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व्यवस्था पर दाग हैं मुठभेड़ें

आकार पटेल लेखक एवं स्तंभकार aakar.patel@gmail.com ज्यादातर पुलिसकर्मी मुठभेड़ों में हिस्सा नहीं लेना चाहते. इस वजह से भारत में पुलिसकर्मियों की एक विशिष्ट श्रेणी सामने आयी है, जिसे ‘मुठभेड़ विशेषज्ञ’ अथवा ‘निशानेबाज’ कहा जाने लगा है. यह दूसरा शब्द गलत ही इस्तेमाल किया जाता है. पहले हम यह देखें कि आखिर मुठभेड़ है क्या. यह […]

आकार पटेल

लेखक एवं स्तंभकार

aakar.patel@gmail.com

ज्यादातर पुलिसकर्मी मुठभेड़ों में हिस्सा नहीं लेना चाहते. इस वजह से भारत में पुलिसकर्मियों की एक विशिष्ट श्रेणी सामने आयी है, जिसे ‘मुठभेड़ विशेषज्ञ’ अथवा ‘निशानेबाज’ कहा जाने लगा है. यह दूसरा शब्द गलत ही इस्तेमाल किया जाता है. पहले हम यह देखें कि आखिर मुठभेड़ है क्या. यह एक ऐसा सरकारी कृत्य है, जिसके अंतर्गत व्यक्तियों को हिरासत में लेकर फिर उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है.

इस घटना को प्रायः एक सुनसान जगह में रात के अंधेरे में अंजाम दिया जाता है. हैदराबाद में यह अलसुबह तीन बजे घटित हुआ, पुलिसकर्मियों के अनुसार, जब वे चारों आरोपितों को उक्त आपराधिक सिलसिले के ताने-बाने को फिर से जोड़ने ले जा रहे थे. जैसा इन मामलों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट प्रायः बताती हैं, यह गोलीबारी बिल्कुल निकट से हुई.

पुलिस अधिकारियों द्वारा साथ रखी जाने वाली पिस्तौलों का इन मामलों में इस्तेमाल नहीं किया जाता, क्योंकि उनकी नली छोटी होने की वजह से लगभग 30 फुट से अधिक दूरी से चलाये जाने पर उनके निशाने सही बैठने की संभावनाएं कम होती हैं. यही कारण है कि इन मामलों में ‘निशानेबाज’ शब्द का प्रयोग सर्वथा अनुपयुक्त है. साधारणतः पुलिसकर्मी इनकी नलियां आरोपितों के बदन से लगा कर या उनकी पिटाई के बाद उनके पस्त पड़े रहने के दौरान गोली चलाते हैं.

मुठभेड़ विशेषज्ञ (एनकाउंटर स्पेशलिस्ट) उस पुलिसकर्मी को कहते हैं, जो निहत्थे मनुष्यों की निकट से हत्या करने की मानसिक तैयारी रखता है.

मुंबई में, 1990 के दशक में मुठभेड़ों की संस्कृति पनपी. पुलिसकर्मियों का एक छोटा समूह ऐसी हत्याएं करता था. दया नायक (जिन पर ‘अब तक छप्पन’ फिल्म बनी) ने 80 मुजरिमों की जानें लीं. विजय सालस्कर के नाम पर भी, जो स्वयं 26/11 हमले में शहीद हो गये, इतनी ही हत्याएं दर्ज हैं. प्रदीप शर्मा ने 150 से भी ज्यादा लोगों को मारा. इन सभी पर गलत करने के आरोप लगे, क्योंकि एक बार जब किसी पुलिसकर्मी को ऐसे कृत्यों की छूट मिलती है, तो फिर उसकी अन्य गतिविधियों पर नियंत्रण रख पाना कठिन हो जाता है.

प्रश्न है कि जब इसमें वाहवाही मिलने की संभावना है, तो क्यों अधिकतर पुलिसकर्मी इसे नहीं करते? क्योंकि हममें से ज्यादातर लोग किसी की हत्या करना नहीं चाहते. सैन्यकर्मी भी इसे पसंद नहीं करते हैं.

अमेरिकी सैनिक एसएलए मार्शल ने इस प्रवृत्ति का अध्ययन किया और उसके निष्कर्षों को अपनी एक पुस्तक में व्यक्त किया, जिसका नाम ‘मेन अगेंस्ट फायर’ है. मार्शल ने लिखा कि कई बार जब सैनिकों पर खुद ही गोलीबारी हो रही हो, फिर भी वे हवा में या जमीन की ओर रुख कर इसीलिए गोलीबारी करते हैं, क्योंकि वे नैसर्गिक हत्यारे नहीं होते और इसलिए वे ‘शत्रुओं’ को भी मारना नहीं चाहते.

मार्शल यह सब द्वितीय विश्वयुद्ध के संदर्भ में बता रहे थे. नेपोलियन के युद्धों में भी प्रशियाई अध्येता इसी निष्कर्ष तक पहुंचे थे. उस समय जब सैनिकों की एक पंक्ति को शत्रुओं जितनी दूरी पर स्थित कपड़े की चादर पर निशाना लेने को कहा गया, तो उनके निशाने वास्तविक शत्रुओं पर लिये गये निशाने की तुलना में सौ गुने सटीक पाये गये. ज्यादातर मनुष्य अहिंसक होते हैं और हममें से विरला ही कोई ऐसी हिंसक वृत्ति का है.

अधिकतर लोग किसी की हत्या करना नहीं चाहते और पुलिसकर्मी अन्य लोगों से भिन्न नहीं होते. यह एक शुभ लक्षण है, क्योंकि गंभीर अपराधों के मामलों में हमारे देश में दोषसिद्धि की दर केवल 25 प्रतिशत ही है. इसका अर्थ है कि 75 प्रतिशत मामलों में पुलिस संभवतः गलत संदिग्धों को पकड़ लाती है और इस वजह से उनकी हत्या करना संबद्ध पुलिस अधिकारियों के लिए नैतिक रूप से और भी कठिन होता है.

इसका एक अन्य कारण यह है कि प्रत्यक्षतः किसी हत्या में शामिल होना एक अपराध है और इससे पुलिसकर्मी मुश्किलों में फंस सकते हैं.

यही वजह है कि हमारे पास मुठभेड़ विशेषज्ञ हुआ करते हैं, जो किसी भी सभ्य देश में नहीं होते. विकसित देशों में पुलिस के लिए यह संभव नहीं है कि वह ऐसा कर उसकी जांच तथा अभियोजन से बच निकले. अमेरिकी ऐसा कहा करते हैं कि वे लोगों के नहीं, कानूनों के देश हैं. भारत, फिलीपींस जैसे देशों की तरह है, जहां पुलिस को कानून तोड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हुए हत्या के आपराधिक कृत्य का नायकत्व एवं न्याय के प्रदर्शन जैसा जश्न मनाया जाता है.

बगैर मुकदमे के लोगों की जान लेना इंसाफ तो नहीं ही है, यह इंसाफ के हित पर चोट करनेवाला भी है. राज्य के अभिकर्ताओं को कानूनों का पालन करने का प्रोत्साहन कम मिलता है. जब कुछ लोगों को पकड़ कर उन्हें गोली मारी जा सकती हो, तो पहचान, अन्वेषण, पूछताछ तथा विधि विज्ञान के पचड़ों में क्यों पड़ा जाये? फिर यह सब हमारी न्यायिक व्यवस्था को भी एक दूसरा ही रंग दे देते हैं. निर्भया मामले के एक आरोपित ने जेल में आत्महत्या कर ली और उसके वकील ने यह आरोप लगाया कि उसकी हत्या कर दी गयी.

पुलिस ने हैदराबाद में जो कुछ किया, उसे कई एक्टिविस्टों ने भीड़ द्वारा की गयी हिंसा ही माना है और वह वस्तुतः यही है भी. जो कुछ हुआ, वह हमारी संस्कृति, हमारे सियासतदानों, जजों, मीडिया तथा हमारी आबादी, कुल मिलाकर हमारी व्यवस्था पर कलंक है.

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