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आधुनिक युग में कम हुई ढाकियों की आमदनी

कोलकाता : दुर्गा पूजा तमाम लोगों के लिए आस्था का विषय हो सकता है, जिसका इंतजार लोग पूरे वर्ष भर करते हैं. लेकिन कुछ लोगों के लिए यह त्योहार सीधे रोटी से जुड़ा हुआ है. दुर्गोत्सव संपन्न हो चुका है और राज्य के लोगाें ने बहुत ही आनंद के साथ इस उत्सव को मनाया. लेकिन […]

कोलकाता : दुर्गा पूजा तमाम लोगों के लिए आस्था का विषय हो सकता है, जिसका इंतजार लोग पूरे वर्ष भर करते हैं. लेकिन कुछ लोगों के लिए यह त्योहार सीधे रोटी से जुड़ा हुआ है. दुर्गोत्सव संपन्न हो चुका है और राज्य के लोगाें ने बहुत ही आनंद के साथ इस उत्सव को मनाया. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें पूजा का इंतजार इसलिए रहता है कि पूजा के इन चंद दिनों में वह कुछ रूपये कमा पायेंगे, जिससे उनके परिवार का भरण-पोषण होगा. लेकिन आज आधुनिकता के युग ने उनकी भी रोजी-रोटी छीन ली है.

दुर्गा पूजा के दौरान ढाकियों के ढाक बजाने की परंपरा धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही है. पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के दौरान जहां पहले पंडालों में ढाक की ताल पर मां दुर्गा की वंदना होती थी, अब ढाकियों की जगह ऑडियो सीडी व पेन ड्राइव ने ले ली है. आपको पंडाल में ढाकियों की आवाज तो सुनने को तो मिलेगा, लेकिन ढाक बजाने वाले देखने को नहीं मिलेंगे.
राज्य के विभिन्न जिलों से आये ढाकिये अब अपने घरों की ओर लौट रहे हैं, लेकिन घरों को लौटते वक्त भी उनके चेहरे पर मायूसी है, क्योंकि जिस उम्मीद के साथ वह कोलकाता आये थे, उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हो पायी. मालदा जिले के इंग्लिशबाजार के रहने वाले 45 वर्षीय सामंत घोराई रिक्शा चला कर पूरे साल मुश्किल से अपने परिवार का पेट पाल पाते हैं. लेकिन दुर्गापूजा के दौरान ढाक बजा कर वह थोड़ी अतिरिक्त कमाई कर लेते थे.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से दुर्गा पूजा के दौरान ढाक बजा कर भी कमायी नहीं हो पा रही. उन्होंने कहा कि पहले ढाकियों की टीम को 22 से 25 हजार रुपये मिलते थे, लेकिन इस महंगाई के युग में उनको मिलने वाला मेहनताना कम होता जा रहा है. इस वर्ष छह दिन ढाक बजाने के बाद उन्हें औसतन 15-16 हजार रुपये ही मिले हैं.
घोराई ने बताया कि हम अपने रोजमर्रा के जीवन में गरीबी का सामना करते हैं और रिक्शा खींच कर किसी तरह जीवनयापन करते हैं. घोराई अपने पांच साथियों के साथ दक्षिण कोलकाता में संघमित्रा समूह द्वारा आयोजित दुर्गा पूजा में ढाक बजाने आये थे. दुर्गा पूजा के दौरान प्रति व्यक्ति 700 से 1,000 रुपये तक की आमदनी हुई है, जो कि पहले दो हजार रुपये से भी अधिक था.
लुप्त होने के कगार पर ढाक वादन कला : अगली पीढ़ी के लिए इस कला को जीवित रखना काफी मुश्किल होगा. बर्दवान जिले के मंतेश्वर से आये ढाकिये सुकुमार दास ने बताया कि वह एक किसान हैं. पूजा के दिनों में कमाई करने के लिए दुर्गा पूजा पंडालों का रूख करते हैं.
लेकिन धीरे-धीरे ढाकियों की मांग कम होती जा रही है. उन्होंने कहा ढाक बजाना एक कला है. पश्चिम बंगाल सरकार इसको जीवित नहीं रख पा रही है. युवा भी इसको नहीं अपना रहे हैं, जिस कारण इसका वजूद खतरे में है और ये कला लुप्त होने के कगार पर.

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