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कोलकाता : शहीदों की शहादत को कभी नहीं भूल सकते देशवासी

विजय दिवस के उपलक्ष्य में प्रभात खबर कार्यालय में आयोजित परिचर्चा में सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने रखे अपने विचार कोलकाता : 16 दिसंबर, 1971 को हर भारतीय नागरिक के लिए गौरव का दिन है. इसी दिन भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को करारी मात दी थी. करारी शिकस्त का सामना करते हुए 92,208 पाकिस्तानी […]

विजय दिवस के उपलक्ष्य में प्रभात खबर कार्यालय में आयोजित परिचर्चा में सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने रखे अपने विचार
कोलकाता : 16 दिसंबर, 1971 को हर भारतीय नागरिक के लिए गौरव का दिन है. इसी दिन भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को करारी मात दी थी. करारी शिकस्त का सामना करते हुए 92,208 पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इसी के साथ पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया, जो बांग्लादेश कहलाया. पूर्वी पाकिस्तान की आजादी का मसला हो या आजादी के लिए संग्राम करने वाले मुक्ति वाहिनी योद्धा के प्रशिक्षण का, भारत की थल, वायु और नौसेना की भूमिका काफी अहम रही. भारतीय सेना ने महज 13 दिनों में जीत हासिल की. यह युद्ध भारत के लिए ऐतिहासिक है. यही वजह है कि पूरे देश में 16 दिसंबर ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. इस युद्ध में 3,900 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और 9,851 सैनिक घायल. विजय दिवस के खास मौके पर प्रभात खबर के कार्यालय में विशेष परिचर्चा का आयोजन किया गया. खास बात यह रही कि इस मौके पर वायु सेना, नौ सेना और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के वरिष्ठ अधिकारी, थल सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी मौजूद रहे. उन्होंने विजय दिवस और सेना की अहम भूमिका को लेकर अपने विचार साझा किये. आइये जानते हैं सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की कही बातें :
एग्जीक्यूटिव ऑफिसर, इंडियन नेवी, कोलकाता के कमांडर अशोक ढाका ने बताया कि 16 दिसंबर को विजय दिवस मनाया जाता है क्योंकि वर्ष 1971 में इसी दिन पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था. उससे पहले भी एक महत्वपूर्ण घटना घटी थी. वह चार दिसंबर 1971 को हुआ.
यही वजह है कि चार दिसंबर को भारतीय नौसेना दिवस का पालन किया जाता है. वर्ष 1965 तक भारतीय नौसेना ज्यादा मजबूत नहीं थी. लेकिन छह वर्षों के अंदर भारतीय नौसेना ने अपने आप को उबारा और पहला चोट पाकिस्तान को लगा. यह चोट कराची बंदरगाह की बर्बादी के रूप में मिला था. पाकिस्तान सोच भी नहीं पाया था कि भारतीय नौसेना इतने अंदर घुसकर हमला करेगी.
हमले में पाकिस्तान के युद्धपोत निकल भी नहीं पाये थे और हार्बर में डूबो दिये गये. उनके आयल फील्ड को भी काफी क्षति पहुंची थी. इस शुरुआत से सेना को काफी मनोबल मिला. नौसेना की तरफ से 4 दिसंबर को ऑपरेशन ट्राइडेंट शुरू कर दिया गया. भारतीय नौसेना ने युद्ध के दो मोर्चे संभाल रखे थे. एक था बंगाल की खाड़ी में पूर्वी पाकिस्तान और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान का अरब सागर की ओर से मुकाबला करना. पूर्वी मोर्चे पर आइएनएस विक्रांत का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा. लड़ाई की योजना बनाने में नौसेना के साथ ही थल सेना ने भी योगदान दिया था.
वर्ष 1971 की लड़ाई पहली थी जहां पर लैंडिंग क्राफ्ट का इस्तेमाल किया गया. युद्धपोत गुलदार ने थल सेना की टुकड़ी को चटगांव और कॉक्स बाजार में उतारा. जमीन ही नहीं समुद्र के तरफ से भी थल सेना का अाक्रमण हुआ. युद्ध ऐसे योजनाबद्ध तरीके से लड़ा गया कि पाकिस्तान कुछ समझ ही नहीं पाया. इसका उदाहरण पीएनएस का डूबना है.
पाकिस्तान ने आइएनएस विक्रांत को खोजने व खत्म करने के लिये पूर्वी मोर्चे पर पीएनएस गाजी को पहले ही रवाना कर दिया था. हमारे इंटेलिजेंस और सिग्नल नेटवर्क को इस तरह से मैनेज किया गया कि पाकिस्तान को समझ में नहीं आया कि उसे किस तरफ जाकर ढूंढ़ना है. तंग आकर पीएनएस गाजी में वाइजैक हार्बर आया ताकि भारतीय नौसेना को नुकसान पहुंचाया जा सके क्योंकि विशाखापत्तनम में भारतीय नौसेना के पूर्वी कमान का बेस है.
पाकिस्तान उसमें भी विफल रहा और पीएनएस गाजी आइनएनएस राजपूत के द्वारा अटैक किया गया और विशाखापत्तनम के बाहर ही डूबो दिया गया. पाकिस्तानी नौसेना को यह चकमा काफी महंगा पड़ा और आइएनएस विक्रांत के सी-हाॅक लड़ाकू बमवर्षक विमानों ने चटगांव एवं कॉक्स बाजार सहित पूर्वी पाकिस्तान के कई तटवर्ती नगरों और कस्बों पर हमला बोल दिया जिससे पाकिस्तानी सेना को बहुत नुकसान हुआ. पूर्वी पाकिस्तान को किसी प्रकार का सपोर्ट नहीं मिल पा रहा था.
पाकिस्तान के पूर्वी तरफ के नौसेना कमांडर इस कदर डर चुके थे कि उन्होंने सिग्नल बनाया अपने नौसेना प्रमुख के लिए. जिसमें कहा कि अब उन्हें इस जगह को छोड़ने के लिए सिविल जहाजों से बात करनी होगी. इस तरह का डर दुश्मन की सेना में पहली बार देखा गया. यह हमारे लिए गर्व का क्षण है.
1971 के ऐतिहासिक युद्ध में मेरे पिता लांस नायक प्रताप सिंह ढाका भी शरीक हुए थे. वे 17 ग्रेनेडियर कंपनी का हिस्सा थे. युद्ध और उससे जुड़ी हर बातें सुनकर ही मेरा बचपन गुजरा. यही वजह है कि मेरा पूरा परिवार सेना से जुड़ा है. मेरे भाई और बहन भी थल सेना में हैं और मैं नौ सेना से जुड़ गया. 1971 का युद्ध भारतीय सेना की बहादुरी एक मिशाल है, जिसे शायद ही कोई भारतीय भूल पाये.
विंग कमांडर राजेश शर्मा, सीओ, नंबर 1 एयर एनसीसी स्कवाड्रन ने बताया कि भारत ने 1965 में भी युद्ध रहा लेकिन वर्ष 1971 में हुए युद्ध का विशेष महत्व है. अपने 26-27 वर्षों के कार्यकाल में डाक्यूमेंट के अनुसार लड़ाई से संबंधित एयरफोर्स के कुछ महत्वपूर्ण भूमिका को मैंने समझा है.
1971 में सेना के जनरल रहे सैम मानेक शाॅ ने शुरू में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध को नकार दिया था. यह अच्छे लीडर और अच्छे लीडरशीप की खासियत है. अप्रैल-मार्च के समय युद्ध के हिसाब से सही नहीं था. जब फसलें कट जाती थीं तब हम युद्ध को लेकर तैयार होते थे.
नुकसान हमारी तरफ भी होता है और वहां भी, पब्लिक सपोर्ट जरूरी है. भारतीय वायु सेना का सबसे महत्वपूर्ण टास्क खबरीलाल का मिला. यह चुनिंदा लड़ाइयों में है जो जल्द खत्म हो गयी. महज 13 दिनों में. पाकिस्तान ने 11 एयरफोर्स स्टेशन पर हमला किया. युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना भारतीय थलसेना के समानान्तर कार्य कर रही थी. ऑपरेशन कैक्टस भी महत्वपूर्ण था. 14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर 11 बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के बड़े अधिकारी भाग लेने वाले हैं.
भारतीय वायु सेना के चार मिग विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी. इस हमले ने पाकिस्तान लगभग तोड़ दिया. यह हमला आसान नहीं था क्योंकि मैप नहीं था. भारत की विजय ऐसे ही वीर सपूतों की वजह से संभव हो पायी जिनकी शहादत और त्याग को कभी भूला नहीं जा सकता.
कर्नल शिव शर्मा, भारतीय थल सेना (सेवानिवृत्त) ने कहा कि
4 दिसंबर, 1971 को भारतीय नौसेना के एक्शन को पीलर ऑफ दी विक्टरी कहा जा सकता. वह बहुत जोरदार एक्शन था और सफल रहा. दुश्मन का मुख्य बंदरगाह लगभग तबाह हो गया.
यह पहल ने भारतीय नौसेना की भूमिका को महत्वपूर्ण कर दिया. भारतीय वायुसेना ने युद्ध में डोमिनेटिंग रोल इनिशियल फेस में किया. हमारे देश के वायु सेना ठिकानों पर हमले पाकिस्तान ने शुरू किये. पांच-छह दिनों के अंदर भारतीय वायु सेना ने उन्हें शांत करा दिया. युद्ध में उनके एयरफोर्स की भूमिका नाम मात्र रह गयी. पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार होने लगा था. पाकिस्तान बनने के बाद से पूर्वी पाकिस्तान को महत्व नहीं दिया गया. वर्ष 1965 के बाद से ही लोगों के अंदर रोष आना शुरू हुआ. भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की इसलिये मदद की क्योंकि इतने ज्यादा शरणार्थी भाग कर हमारे देश आने लगे.
भारत के लिए सुरक्षा और आर्थिक रूप से दबाव बढ़ने लगे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस युद्ध से सात महीने पहले 25 अप्रैल को एक कैबिनेट मीटिंग बुलाई थी. इसमें उन्होंने जनरल सैम मानेक शॉ को भी बुलाया. बांग्लादेश से लाखों शरणार्थी भारत आने से इंदिरा काफी परेशान थीं. उन्होंने कहा कि उन्हें इसे रोकना होगा. लेकिन सैम मानेक शॉ ने कहा अभी हम इसके लिए तैयार नहीं हैं. कुछ ही दिनों में मानसून आने वाला है और उस इलाके में मूसलाधार बारिश होती है.
नदियां समुद्र बन जाती हैं. एक किनारे से दूसरा किनारा नहीं दिखता. वायुसेना हमारी मदद नहीं कर सकती. हम अगर युद्ध करेंगे तो युद्ध हार जाएंगे. मानेक शॉ ने उनसे युद्ध की तैयारी के लिए वक्त मांगा था. जनरल ने पूर्वी पाकिस्तान की मौजूदा स्थित को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के पक्ष में माहौल बनाने कहा. उसके सात महीने बाद ही पाकिस्तान ने भारत पर युद्ध कर दिया.
अमेरिका उस वक्त पाकिस्तान के पक्ष में था. हालांकि युद्ध में यूएसएसआर भी भारत के पक्ष में खड़ा था, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पाकिस्तान को अलग-थलग कर दिया. इस युद्ध में मेरे रिश्तेदार जीके त्रिवेदी भी शामिल हुए थे. जिन्हें बाद में वीर चक्र मिला था. वीर जवानों के श्रद्धांजलि के लिए फोर्ट विलियम में विजय स्मारक की ज्योति वर्ष 1982 से जल रही है. जो हमेशा याद दिलाती है कि हम उन्हें भूल नहीं पायें हैं और कभी भूल ना पायेंगे.
केके मजूमदार, कमांडेट फ्रंटियर हेडक्वार्टर, बीएसएफ साउथ बंगाल फ्रंटियर ने बताया कि वर्ष 1971 में मुक्ति वाहिनी को प्रशिक्षण देने और उन्हें तैयार करने में बीएसएफ की भूमिका काफी अहम रही थी.
यह युद्ध मेरे और मेरे परिवार के लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण रहा क्योंकि मेरे पिता कैप्टन डीके मजूमदार भी युद्ध का हिस्सा रहे थे. उन्होंने मुक्ति वाहिनी को प्रशिक्षण देने का कार्य किया. उनमें कई प्रशिक्षित मुक्ति वाहिनी के सदस्य मौजूदा समय में बांग्लादेश सैन्य के अधिकारी पद पर कार्यरत हैं.
पाकिस्तान से तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की हवाई सेवा बंद करने और पाकिस्तानी सेना को आपूर्ति कमजोर करने के लिए महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बीएसएफ ने उठायी. युद्ध के समय यदि सेना की जरूरी आपूर्ति बंद हो जाये तो दुश्मन की कमर टूट जाती है. वर्ष 1971 के युद्ध में भारतीय सेना के अदम्य साहस सबके लिये प्रेरणादायक है.
गीतेश शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार) ने बताया कि वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के दो पक्ष हैं. पहला तो युद्ध के पहले ही एक अजीब सा माहौल था. हमारे देश की सीमा के निकटवर्ती इलाका शरणार्थियों कैंप से पटा हुआ था. एक इंच जगह खाली नहीं थी. कैंप खाली नहीं थी.
बंगाली, मारवाड़ी समेत हर संगठनों ने उनकी मदद की. दूसरा पक्ष युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान ने की. हमारी चेष्टा भी यही थी. हम हर बार यही चेष्टा करते हैं और वे झांसे में आते हैं फिर मार खाते हैं.
युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के लिये लड़ने वाले हर मुक्ति वाहिनी योद्धा का महत्वपूर्ण योगदान है. जब हम ढाका गये थे तो वहां भारतीय सेना की प्रशंसा काफी मिलती है. युद्ध के वक्त हम आठ-दस लोग मिलकर बार्डर पारकर अत्याचार सहने वाले लोगों की मदद करने गये थे.
पाकिस्तान ने जो अत्याचार किया ऐसी घटना इतिहास में कम हुई है. लोगों के मन में उनके प्रति घृणा हो गयी थी. हमारी सेना की खास बात यही है कि वह नॉन पालिटिक्ल रही है. हमारी सेना का महत्व तो फर्स्ट वर्ल्ड वार में लोगों ने माना. जितनी कुर्बानी हमारी हमारी सेना ने दी उतनी तो जिन देशों पर हमला हुआ था उन्होंने भी नहीं दिया. हमारे देश के साथ अन्य देशों के साथ बेहतर रिश्तों के लिये हमारी सेना का योगदान काफी अहम है.

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