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क्या 1996 के हरकिशन सुरजीत साबित होंगे 2019 के चंद्रबाबू नायडू?

<p>19 मई को सातवें चरण के चुनाव ख़त्म होने के साथ ही, देश भर में जारी हुए एग्ज़िट पोल के नतीजों ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को औसतन 300 सीटों पर बढ़त से साथ जीत की तरफ़ जाता हुआ बताया गया. </p><p>इसके साथ ही विपक्षी पार्टियों के एक-जुट होने से […]

<p>19 मई को सातवें चरण के चुनाव ख़त्म होने के साथ ही, देश भर में जारी हुए एग्ज़िट पोल के नतीजों ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को औसतन 300 सीटों पर बढ़त से साथ जीत की तरफ़ जाता हुआ बताया गया. </p><p>इसके साथ ही विपक्षी पार्टियों के एक-जुट होने से जुड़ी राजनीतिक सुगबगाहट भी तेज़ हो गयी.</p><p>आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के दिल्ली में कांग्रेस और लखनऊ में समाजवादी पार्टी समेत बहुजन समाजवादी पार्टी के नेताओं से जारी मुलाक़ातों की ख़बरें सियासी हलकों में तैरने लगीं. लेकिन यहां सवाल यह है कि विपक्षी पार्टियां सत्रहवीं लोकसभा का अंतिम स्वरूप तय करने में आख़िर कितनी बड़ी भूमिका निभा पाएंगी?</p><p>वरिष्ठ पत्रकार स्मिता गुप्ता नतीजों से पहले की इस शुरुआती सुगबुगाहट को एक बिखरे विपक्ष के एकजुट होने की कोशिश के तौर पर देखती हैं. </p><p>बीबीसी से बातचीत में वह कहती हैं, &quot;एनडीए के तौर पर भाजपा के सहयोगी दल तो सुनिश्चित हैं लेकिन विपक्ष बिखरा हुआ है. नतीजों से पहले एकजुट होने की यह कोशिशें यही बताती हैं कि अगर आंकड़े भाजपा के पक्ष में नहीं आते और विपक्ष की सरकार बना पाने की कोई संभावना निकलती है तो इनके सभी सहयोगी दल पहले से तैयार हों. ताकि नतीजों के बाद यह न देखना पड़े कि किस रीजनल पार्टी की प्राथमिकता क्या है.&quot;</p><h3>हरकिशन सिंह सुरजीत से तुलना</h3><p>वहीं वरिष्ठ पत्रकार इमरान कुरैशी विपक्षी खेमे को एकजुट करने की अगुवाई कर रहे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तुलना हरकिशन सिंह सुरजीत से करते हुए कहते हैं, &quot;नायडू, एक तरह से वही भूमिका निभा रहे हैं जो 1996 में सीपीएम के दिवंगत नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने निभाई थी. दिवगंत सुरजीत के समर्थन से यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार बनी थी जिसको कांग्रेस ने समर्थन दिया था. नायडू को भी 2019 का यह चुनाव 1996 के जैसा लग रहा है. लेकिन यहां उनको चुनौती दे रहे हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, जो अपने फ़ेडरल फ़्रंट के लिए अलग अभियान कर रहे हैं. इसको दक्षिण भारत के तेलुगू राज्यों के दो मुख्यमंत्रियों के राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है.&quot;</p><p>वहीं राजनीतिक विश्लेषक संगित रागी कहते हैं कि बसपा, सपा और कांग्रेस के बड़े नेताओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं और उनकी निजी राजनितिक असुरक्षा की वजह से उन सभी का एक संगठित विपक्ष की तरह एक साथ सामने आना मुश्किल है.</p><h3>व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं </h3><p>बीबीसी से विशेष बातचीत में वह जोड़ते हैं, &quot;मुझे नहीं लगता कांग्रेस कभी भी तीसरे मोर्चे में मायावती को आगे बढ़ाना चाहेगी. क्योंकि देश में सत्ता का रास्ता उत्तरप्रदेश में सत्ता हासिल करने के रास्ते से होता हुआ जाता हैं. कांग्रेस कभी उत्तर-प्रदेश में किसी भी बड़े नेता के राष्ट्रीय स्तर पर उद्भव को औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं करेगी. क्योंकि मायावती जैसे ही राष्ट्रीय पटल पर आगे बढ़ेगीं, कांग्रेस पार्टी का दलित और मुस्लिम वोट बैंक ख़तरे में आ जाएगा.&quot; </p><p>&quot; और दूसरी तरफ़ कांग्रेस यदि ममता बनर्जी को विपक्षी गठबंधन के चेहरे के तौर पर पेश करें, तो मायावती इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगी. क्योंकि यह तो तय है की विपक्षी महगठबंधन के चेहरे के तौर पर यदि कोई एक राजनेता उभरेगा, तो उत्तर प्रदेश से ही होगा, क्योंकि वहां सीटें सबसे ज़्यादा हैं. अंदरूनी बात यह भी है कि समाजवादी पार्टी ख़ुद कभी राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर मायावती का उभार नहीं चाहेगी. क्योंकि सपा यह जानती है कि यदि एक बार मायवती का राजनीतिक उभरा राष्ट्रीय राजनीति में होता है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा हाशिए पर चली जाएगी. और उत्तर प्रदेश में जो दो नए ध्रुव उभर कर आएंगे, वह भाजपा और बसपा होंगे.&quot; </p><p>लेकिन कर्नाटक के विधान सभा चुनावों में बनी कांग्रेस की मिली-जुली सरकार का हवाला देते हुए स्मिता कहती हैं कि एकजुट होकर विपक्ष का सरकार बनना असम्भव भी नहीं.</p><p>वह जोड़ती हैं, &quot;विपक्ष की ताक़त बहुत हद तक 23 मई को उन्हें मिलने वाली सीटों पर निर्भर करती हैं. बसपा, सपा और कांग्रेस समेत सभी पार्टियों के प्रमुख नेताओं की अपनी निजी महत्वकांक्षाओं का प्रश्न तो है ही. लेकिन साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए की बहुत सारे सवालों के जवाब इस बात पर निर्भर करेंगे की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर कौन उभरता है.&quot;</p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-47495277?xtor=AL-[73]-[partner]-[prabhatkhabar.com]-[link]-[hindi]-[bizdev]-[isapi]">सोनिया गांधी के हाथों में होगी एनडीए की तकदीर?</a></li> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-43515111?xtor=AL-[73]-[partner]-[prabhatkhabar.com]-[link]-[hindi]-[bizdev]-[isapi]">जब ‘सुरजीत ब्रेड’ पर ज़िंदा रहा क्यूबा</a></li> </ul><p>&quot;दूसरी तरफ़ अगर हम कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनावों को देखें तो तस्वीर अलग नज़र आती है. वहां कांग्रेस ने ख़ुद बड़ी पार्टी होने के बावजूद एक ग़ैर-भाजपा सरकार बनाने के लिए जनता दल सेकुलर (जेडीएस) को सरकार का प्रतिनिधित्व दे दिया. उस वक़्त भी कर्नाटक के नतीजे आने से एक दिन पहले ही ग़ुलाम नबी आज़ाद और अहमद पटेल – दोनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता-बेंगलुरु पहुँच गए थे. उन्होंने जेडीएस से पहले ही बातचीत कर ली थी और वो तैयार थे. इसलिए नतीजों में भाजपा के ‘सिंगल लार्जेस्ट पार्टी’ के तौर पर उभरने के बावजूद जेडीएस और कांग्रेस ने मिली जुली सरकार बनाई. अगर कांग्रेस केंद्र में भी कर्नाटक की कहानी दोहराए तो विपक्षी पार्टियाँ भी सरकार बनाने का दावा कर सकती हैं.&quot; </p><p>सरकार किसकी बनेगी यह तो 23 मई को ही साफ़ हो पाएगा. लेकिन फ़िलहाल एक ओर जहां भाजपा एनडीए के घटक दल एग्ज़िट पोल से मिली मनोवैज्ञानिक बढ़त की वजह से निश्चिन्त नज़र आ रहे हैं, वहीं विपक्ष ने भी हार नहीं मानी है. </p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong>, </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong>, </strong><a href="https://www.instagram.com/bbchindi/">इंस्टाग्राम</a><strong> और </strong><a href="https://www.youtube.com/bbchindi/">यूट्यूब</a><strong> पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)</strong></p>

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