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”नेहरू से ज़्यादा ज़ोरदार चुनाव विजयलक्ष्मी पंडित का था फूलपुर में”

प्रयागराज ज़िले की फूलपुर संसदीय सीट शुरू से ही इसलिए चर्चित रही है कि शुरुआती तीन चुनाव यहां से पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लड़े और उसके बाद भी तमाम दिग्गजों ने यहां से अपनी क़िस्मत आज़माई है. फूलपुर क़स्बे से क़रीब दस किमी दूर देवनहरी गांव के रहने वाले रामनाथ उपाध्याय यूं तो […]

प्रयागराज ज़िले की फूलपुर संसदीय सीट शुरू से ही इसलिए चर्चित रही है कि शुरुआती तीन चुनाव यहां से पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लड़े और उसके बाद भी तमाम दिग्गजों ने यहां से अपनी क़िस्मत आज़माई है.

फूलपुर क़स्बे से क़रीब दस किमी दूर देवनहरी गांव के रहने वाले रामनाथ उपाध्याय यूं तो ‘देखे गए बसंतों’ का शतक लगा चुके हैं लेकिन बातचीत में जोश और दिलचस्प संस्मरणों की फ़हरिस्त में उनकी उम्र कहीं आड़े नहीं आती.

आज़ादी के बाद 1952 में हुए पहली लोकसभा चुनाव को याद करते हुए वो कहते हैं, "पहला चुनाव हो रहा था लेकिन गांव में उसका बहुत असर नहीं था. केवल कुछ पढ़े-लिखे लोग इसका महत्व समझते थे. कोई प्रचार वग़ैरह नहीं हो रहा था. कभी कभी चार-पांच लोग आते थे साइकिल और कार से और लोगों से मिलकर चले जाते थे. जहां मीटिंग होती थी वहां ज़रूर लाउड स्पीकर लगाकर कुछ खद्दरधारी नेता भाषण देते थे और शोर-गुल सुनाई पड़ता था."

रामनाथ उपाध्याय कहते हैं कि फूलपुर से जवाहरलाल नेहरू भले ही चुनाव लड़ते थे लेकिन हमारे गांव कभी नहीं आए, लेकिन जब विजयलक्ष्मी पंडित चुनाव लड़ीं तो वो गांव आईं थीं.

विजयलक्ष्मी पंडित के चुनाव को याद करके रामनाथ उपाध्याय काफ़ी उत्साहित हो जाते हैं, "बहुत ज़ोरदार चुनाव था वो. नेहरू जी की बहिन विजयलक्ष्मी की जैसे लहर चल रही थी. हर गांव में वो जा रही थीं और उनका बहुत स्वागत हो रहा था. हम लोग भी उनका प्रचार किए थे. नेहरू के प्रचार में ज़्यादा दम नहीं रहता था."

लोकसभा में पहुंचने के लिए जवाहर लाल नेहरू ने अपने पैतृक शहर इलाहाबाद ज़िले की फूलपुर सीट को चुना था जिसका एक बड़ा हिस्सा तब ग्रामीण इलाक़े में आता था.

नेहरू ने लगाई थी हैट्रिक

नेहरू ने यहां से 1952, 1957 और 1962 में लगातार तीन बार जीत दर्ज की. नेहरू के निधन के बाद 1967 में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने यहां से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. हालांकि दो साल बाद 1969 में संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया.

उनके इस्तीफ़े के बाद 1969 में हुए उपचुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जनेश्वर मिश्र ने नेहरू की कैबिनेट के सहयोगी रहे केशवदेव मालवीय को हराकर पहली बार इस सीट पर कांग्रेस का वर्चस्व तोड़ा.

रामनाथ उपाध्याय बताते हैं कि पहले चुनाव और उसके बाद भी कुछ चुनावों तक स्थिति ये थी कि ज़्यादातर लोग तो वोट डालने ही नहीं जाते थे.

वो बताते हैं, "उस समय बहुत ज़्यादा लोग वोट डालने भी नहीं निकलते थे. लोगों को पता भी नहीं होता था. लेकिन धीरे-धीरे जानकारी होने लगी तो गांवों में भी मतदान केंद्रों पर लाइनें लगने लगीं. लेकिन तब लड़ाई-झगड़ा नहीं होता था."

1952 के चुनाव में प्रचार को याद करते हुए रामनाथ उपाध्याय एक दिलचस्प संस्मरण सुनाते हैं, "बहुत से लोग तो यह कहकर प्रचार में या मीटिंग में नहीं जाते थे कि इनसे दूर ही रहो. ये कांग्रेसी हैं. सब ज़मीन ज़ब्त कर लेंगे. लेकिन जो भी दिखता था उस समय कांग्रेस का ही प्रचार दिखता था. सोशलिस्ट पार्टी और दूसरे लोगों का तो बिल्कुल भी नहीं दिखता था."

‘अब मशीन पर अंगूठा लगाता हूँ’

फूलपुर से नेहरू के ख़िलाफ़ 1962 में सोशलिस्ट नेता राममनोहर लोहिया भी चुनाव लड़े थे लेकिन रामनाथ उपाध्याय को लोहिया के बारे में ज़्यादा याद नहीं है. वो बताते हैं, "हम पढ़े-लिखे ज़्यादा नहीं हैं. बस अपना नाम लिख लेते हैं. कुश्ती लड़ते थे. पहले वोट डालकर बक्से में डाल दिया जाता था, अब मशीन पर अंगूठा लगाता हूं."

रामनाथ उपाध्याय 12 मई को होने वाले मतदान के दिन भी वोट डालने को तैयार बैठे हैं. कहते हैं, "बच्चे गाड़ी पर बिठाकर ले जाएंगे, तो वोट डाल देंगे."

रामनाथ उपाध्याय के पोते विपिन उपाध्याय बताते हैं, "बाबा के पास बहुत से संस्मरण हैं लेकिन अब याद दिलाना पड़ता है. बैठे रहिए तो चुनाव के बारे में और उसके अलावा भी तमाम बातें ख़ूब बताते हैं."

विपिन उपाध्याय ने अपने बाबा से जब ये सवाल किया कि ‘वोट किसको डालेंगे’, तो रामनाथ उपाध्याय तिलमिला गए, "तोहका काहे बताई. जेका मन करे उही के देब."

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