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अब कहां बरात में जाना!

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com शादियों का मौसम आ गया है. बरात में जाने के निमंत्रण आ तो रहे हैं, मगर शायद ही कोई जाये. एक समय में बरात में जाना बहुत सम्मान की बात मानी जाती थी. यही वजह है कि आज भी जब कोई आदमी ज्यादा नखरे दिखाता है, तो लोग उससे कहते […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
शादियों का मौसम आ गया है. बरात में जाने के निमंत्रण आ तो रहे हैं, मगर शायद ही कोई जाये. एक समय में बरात में जाना बहुत सम्मान की बात मानी जाती थी. यही वजह है कि आज भी जब कोई आदमी ज्यादा नखरे दिखाता है, तो लोग उससे कहते हैं कि बरात में आये हो क्या.
पहले बरात में जाने के लिए लोगों में उत्साह भी बहुत होता था. क्योंकि शादी में खाने-पीने के वे व्यंजन मिलते थे, जो आम तौर पर घरों में उपलब्ध नहीं होते थे.
पहले की शादियां ऐसी भी नहीं होती थीं कि आज की तरह अनेक व्यंजन परोसे जायें. आलू, कद्दू की सब्जी, पूरी, लड्डू, दही और उन्हें पचाने के लिए लाल मिर्च पड़ा मट्ठा, जिसे सन्नाटा कहा जाता था, भोजन में शामिल होते थे. आर्थिक रूप से संपन्न लोग पचफेनी की दावत करते थे, जिसमें पांच प्रकार की मिठाइयां परोसी जाती थीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पचास साल पहले महिलाएं बरात में नहीं जाती थीं. बहुत हुआ, तो कुछ छोटी बच्चियां जा सकती थीं.
लड़की वाले इस बात को लेकर अक्सर परेशान रहते थे कि कहीं बरात में ज्यादा लोग न आ जायें. बरात में जाने की खुशी, उत्साह, नयी जगह देखने की उत्सुकता, बस-मोटर का सफर, खाना-पीना, मौज-मस्ती करने आदि बातों का वर्णन युवा रचनाकार वसीम अकरम ने अपने सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘चिरकुट दास चिंगारी’ में बहुत मनोरंजक ढंग से किया है.
लोग इन दिनों बरात में जाना नहीं चाहते हैं. एक महिला ने बताया कि बरात में जाने के बाद कई बार रात को लौट पाना मुश्किल होता है. इससे अगले दिन दफ्तर से छुट्टी करनी पड़ती है. इसलिए लोग कोशिश करते हैं कि वे शादी में तो जायें, लेकिन नौ बजे तक वापस लौट आयें. शादी का शगुन तो बिना बरात जाये भी दिया जा सकता है.
एक दूसरे आदमी ने कहा- हमारे बाबा बताते थे कि बरात की दावत खाने के लिए कई बार तीस किलोमीटर दूर भी चले जाते थे. लेकिन, अब ऐसा कुछ नहीं मिलता है बरात में, जो कि हम बिना बरात में जाये नहीं खा सकते.
इस आदमी की बात सच लगती है. पहले कई व्यंजन बाहर खाने के पैसे जेब में नहीं होते थे, इसलिए वे बरात जाते थे. पूरी-कचौड़ी घर में किसी त्योहार या उत्सव के समय ही बनती थी. लेकिन मध्यवर्ग के चढ़ाव और उसकी जेब के पैसे ने तमाम डिब्बाबंद व्यंजन बाजार में उपलब्ध कराये हैं. अाज तरह-तरह के होटल हैं. जहां जाकर मनपसंद खाना खाया जा सकता है.
अब न पहले जैसी आपसदारी है, न नाच-गाना देखने की फुरसत कि बरात में रात की नींद खराब की जाये. सिर्फ शहरों में ही नहीं, अब गांवों में भी चाहे पूरे परिवार के लिए न्यौता हो, एक आदमी भी मुश्किल से बरात में जाने को तैयार होता है.
फिल्मों-सीरियलों ने बरात , दूल्हे, बैंड-बाजे, आतिशबाजियों, दुल्हन के शृंगार आदि को देखने की उत्सुकता को खत्म कर दिया है. पहले जैसे ही बरात के ढोल-नगाड़ों व बाजों की आवाज सुनायी देती थी, महिलाएं दरवाजों और छतों की तरफ दौड़ती थीं. आज ऐसे दृश्य बहुत कम दिखायी देते हैं.

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