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बदल गयी गंवई संस्कृति

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com हाल ही में फेसबुक पर एक तस्वीर देखी थी. किसी ने हथेली पर रखी लाल, चमकीली मखमल सी रामजी की गुड़िया पोस्ट की थी. इसका जीव वैज्ञानिक क्या नाम है, मुझे नहीं पता, मगर बचपन से बारिश के दिनों में हरी-हरी घास के बीच ये दिखायी देती थीं. बच्चे इन्हें […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
हाल ही में फेसबुक पर एक तस्वीर देखी थी. किसी ने हथेली पर रखी लाल, चमकीली मखमल सी रामजी की गुड़िया पोस्ट की थी. इसका जीव वैज्ञानिक क्या नाम है, मुझे नहीं पता, मगर बचपन से बारिश के दिनों में हरी-हरी घास के बीच ये दिखायी देती थीं. बच्चे इन्हें खोज-खोज बटोरते फिरते थे. और माता-पिता अपने बच्चों को डांटते थे कि उन्हें वापस छोड़ दो, नहीं तो मर जायेंगी.
बारिश के दिनों को याद करती हूं, तो रह-रह कर गाना याद आता है- भूली हुई यादों मुझे इतना न सताओ. क्योंकि नीम, पीपल, गूलर के पेड़ों पर पड़े झूले, उन पर लगी लकड़ी की पटलियां, झोटे देती सहेलियां और ऊंची से ऊंची पींग बढ़ाने की इच्छा. पेड़ों के पत्तों के बीच से झरती बूंदें, ताजे भुने भुट्टों का स्वाद.
रात में सबका घर के आंगन में मूंज की चारपाई पर सोना और एकाएक झड़ी लग जाने पर अंदर दौड़ना. सावन के महीने में हरी चूड़ियों, महावर, मेहंदी से सजी ससुराल से मायके आयी महिलाओं के गाये दूर-दूर तक गूंजते गीत. सावन का मतलब ही है लड़कियों का अपने घर आना. तीज, रक्षाबंधन के त्योहार. बारिश के पानी में नहाती गौरैया. कभी इतनी बारिश कि चारों ओर पानी का भर जाना और उसमें बच्चों का छप-छप कर कूदना, तैरना, नहाना, कागज की नावें चलाना. पानी में बह कर छोटी मछलियों और कछुओं का घर में चले आना.
दूर-दूर तक गूंजती मेढकों की टर्राहट, कभी घर में घुसना, पोखरों में उनकी आंखों का चमकना, भैंसों का पानी में सिर तक डूबना, रात में झींगुरों की आवाजें. नीम की पीली पकी निंबोलियों को खाने की मां की हिदायतें, जिससे कि बारिश के रोगों से बचा जा सके.
जिस दिन बारिश न हो, उस दिन साफ नीले आसमान को देखना. उसमें निकले इंद्रधनुष के बारे में तरह-तरह की कल्पनाएं करना. बच्चों का, बड़ों का रंग-बिरंगे पक्षियों की तरह पतंगों से आसमान का भर जाना और वो काटा और वो काटा का शोर. बच्चों की टोलियों का पतंग कटने का इंतजार करना और कटी पतंग को लूटने के लिए दौड़ लगाना. एक पतंग पर कई बच्चों का झपटना और पतंग का टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरना.
वक्त के साथ ये सारी बातें हमारे शहरी समाज तो क्या, ग्रामीण समाज से भी दूर होती चली गयी हैं. सालों पहले हिंदी के एक मशहूर अखबार ने बताया था कि अब बारिश के दिनों में कजरी कोई नहीं गाता. कजरी तो क्या अब विभिन्न उत्सवों में गाये जानेवाले गीत भी गायब हो चले हैं.
ये गीत, संगीत हमारी विरासत का हिस्सा थे, जिन्हें सदियों से संजोया गया था. लेकिन अब बाॅलीवुड और डीजे का संगीत ही तीज-त्योहार पर हावी है.
इसी को संस्कृति कहा जा रहा है. एक जमाने में फिल्मों में बारिश के बहुत मधुर गीत सुनायी देते थे. लेकिन, अब न तो अब वैसी फिल्में बनती हैं, न गीत लिखे जाते हैं. वैसे भी अब वैसी फिल्में बन जाएं, तो कौन उन्हें देखेगा. बारिश का रोमांटिक मूड भी अब बंद कमरों में बैठ कर टीवी, कंप्यूटर या मोबाइल के सामने गुजरता है.

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