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मिथिलेश कु. राय रचनाकार mithileshray82@gmail.com कक्का उस दिन हरे टमाटर तोड़ रहे थे. कहने लगे कि हरखू के घर भेजना है. परसों उसने टमाटर की ओर देखकर कहा था कि उसे हरे टमाटर की चटनी बहुत पसंद है. सब्जी में दो हरे टमाटर डाल देने से उसका स्वाद कितना अद्भुत हो जाता है न! वह […]

मिथिलेश कु. राय
रचनाकार
mithileshray82@gmail.com
कक्का उस दिन हरे टमाटर तोड़ रहे थे. कहने लगे कि हरखू के घर भेजना है. परसों उसने टमाटर की ओर देखकर कहा था कि उसे हरे टमाटर की चटनी बहुत पसंद है. सब्जी में दो हरे टमाटर डाल देने से उसका स्वाद कितना अद्भुत हो जाता है न! वह यह भी कह रहा था कि उसने भी समय रहते पांच पौधे लगाये थे, लेकिन बकरी चर गयी. बाद में बारिश आयी, तो उसमें उसके पौधे गल गये. वह देर तक हरे टमाटर को निहारता रहा था और कह रहा था कि बारिश के मौसम आने से पहले तक ये फलते रहेंगे.
कक्का ने किलो भर के लगभग हरे टमाटर तोड़े और कहने लगे कि हरखू और लछमन दो भाई हैं, दोनों का चूल्हा अलग है. अभी एक ही आंगन में दोनों परिवार का निर्वाह हो रहा है. एक के घर भेजूं और दूसरे के घर न भेजूं, तो यह अच्छा नहीं लगता. आधा-आधा दोनों के घर भेज देता हूं. जब भी कोई काम पड़ता है, जिसे हांक देता हूं, दौड़े चले आते हैं.
कक्का की बातें सुनकर मुझे कुछ दिन पहले का एक दृश्य याद आ गया. दरवाजे की बैठकी की छप्पर पर एक कद्दू की लता फैल गयी थी और उसमें फल आने लगे थे. एक दिन दो कद्दू तोड़े गये. एक घर के लिए रख लिया गया और दूसरे कद्दू को माई पड़ोस के घर दे आयी. उसी दिन शाम को पड़ोस के यहां से किलोभर के लगभग सेम लेकर कनिया काकी मेरे घर पहुंच गयीं. कह रही थीं कि कद्दू में गजब का स्वाद था. होगा क्यों नहीं, बिना खाद का जो है. देखना, कुछ दिन में जब लता और पसर जायेंगी, तो खूब फल लगेंगे.
पता नहीं यह कैसी रीत है और यहां कब से चलन में है. लेकिन है और इसका निर्वाह लगभग हरेक परिवार कर रहा है. जब भी किसी परिवार के यहां कुछ भी नया होता है, थोड़ा-थोड़ा सबके यहां भेजा जाता है.
खासकर उनके यहां, जिनके यहां उस वस्तु की उपजने की संभावना कम रहती है या नहीं रहती है. कभी-कभी तो गाय या भैंस के बच्चा देने पर कुछ दिनों तक अड़ोस-पड़ोस में दूध भी बांटे जाते हैं.
इस संदर्भ में कक्का का अलग ही विचार है. यह कोई तार्किक विचार नहीं है, लेकिन सिरे से खारिज करने लायक भी नहीं है. वे कहते हैं कि मिल-बांटकर खाने से वस्तुओं में बरक्कत होती है.
वे यह भी कहते हैं कि देने से न सिर्फ संतुष्टि मिलती है, वरन पानेवाले को एक अलग प्रकार की खुशी भी मिलती है, जिसे देखकर मन हरा रहता है. वे कहते हैं कि बिना मोल-भाव और नफे-नुकसान की परवाह किये जब इस तरह का लेन-देन किया जाता है, तो यह अपनत्व की भावना को प्रगाढ़ करने की एक प्रक्रिया बन जाती है. सब लोग सब कुछ नहीं उपजा सकते न. लेकिन, इस तरह की रीत से सबको सब कुछ पाने का सुख हासिल होता रहता है!
बात चाहे जो हो. लेकिन मैं जब भी इस तरह के दृश्यों को देखता हूं, बचपन में किसी टीवी सीरियल का यह शीर्षक गीत गुनगुनाने लगता हूं- दुनिया बदल गयी/ इंसां बदल गये/ बदले नहीं लेकिन/ मिट्टी के रंग/ मिट्टी के रंग…!

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