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गुस्से का इंडेक्स

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com कुछ साल पहले विदेश में रहनेवाले मेरे बेटे ने कहा था कि जब भी मैं यहां आता हूं, मुझे लोग पहले से अधिक नाराज दिखायी देते हैं. वे बड़ी गाड़ी से उतरते हैं, तो नाराज. महंगे होटल में खा रहे हैं, तो नाराज. थियेटर में दिखते हैं, तो भी नाराज. […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
कुछ साल पहले विदेश में रहनेवाले मेरे बेटे ने कहा था कि जब भी मैं यहां आता हूं, मुझे लोग पहले से अधिक नाराज दिखायी देते हैं. वे बड़ी गाड़ी से उतरते हैं, तो नाराज. महंगे होटल में खा रहे हैं, तो नाराज. थियेटर में दिखते हैं, तो भी नाराज. ऐसा क्यों?
उसकी बात सुनकर इधर-उधर देखना शुरू किया, तो सही लगा. इसके अलावा हर रोज की खबरें भी ऐसा बताती हैं कि लोगों में लगातार गुस्सा बढ़ रहा है. पहले मामूली बातों पर लड़ाई-झगड़े और सिर फुटव्वल होता था. लेकिन, बात अब वहीं तक सीमित नहीं रही. अब तो मामूली सी बात पर जान ले ली जाती है.
अखबार और चैनल्स इस तरह की खबरों से भरे रहते हैं. कोई भी एडजस्ट करना या दूसरे को जगह देकर चलना नहीं चाहता. इसके अलावा अहंकार इतना बढ़ा हुआ है कि जरा सी बात को लोग अपनी इज्जत का सवाल बना लेते हैं. और फौरन ही फैसला करने को तैयार हो जाते हैं.
यह फैसला लगभग फिल्मी तरीके से किया जाता है. जिसमें पुलिस, कोर्ट, कचहरी कुछ नहीं, सिर्फ नायक और खलनायक होते हैं और अक्सर नायक बीस को अकेला पराजित करता जीत जाता है. जीवन में यह न भी हो पाता हो, मगर जो भारी पड़ता है, वह दूसरे की जान ले लेता है.
हाल ही में दो दिन के भीतर तीन खबरें आयीं, जो हमारे समाज में बढ़ती नृशंसता और नाराजगी को बता रही हैं.
एक आदमी ने मरा हुआ चूहा अपने साथ के खाली प्लाॅट में फेंक दिया. दूसरी तरफ रहनेवाले आदमी को यह बात नागवार गुजरी. बात बढ़ी और चूहे फेंकनेवाले की हत्या कर दी गयी. कुत्ते से टेंपो क्या टकराया, कुत्ते के मालिकों ने टेंपो वाले की हत्या कर दी. ये घटनाएं दिल्ली की हैं.
शिमला में एक लड़के ने दूसरे की गाड़ी को पास नहीं दिया, तो दूसरी गाड़ी वालों ने उसे उतारकर मार डाला. ऐसी ही बेशुमार घटनाएं देश में रोज के हिसाब से घटती हैं. आखिर जितनी तकनीक बढ़ी है, दुनिया तक पहुंचने के साधन सहज-सुलभ हुए हैं, उतना ही लोगों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है, जो जरा सी बात और विवाद पर हत्या का रूप ले रहा है.
इसका बड़ा कारण यह भी है कि पिछले कई दशकों से हमारे तमाम प्रचार माध्यम गुस्से को एक आदर्श की तरह प्रस्तुत करते रहे हैं. बदला लेने को अन्य सब बातों के मुकाबले अच्छा बताया जाता है.
शोषण और गैर-बराबरी के खिलाफ इसे सबसे अच्छा हथियार माना जाता है. लेकिन गुस्से की चपेट में वे लोग तो शायद ही आते हैं, जो दूसरे का शोषण करते हैं. क्या शिक्षा, पढ़ाई-लिखाई हमें जरा भी नहीं बदलती?
विद्या को विनय से जोड़ा गया है, यानी जाे जितना अधिक शिक्षित है, उसे उतना ही विनम्र होना चाहिए. लेकिन, विडंबना है कि रोज की घटनाओं में यह सब कहीं दिखायी नहीं देता. लोग अक्सर हैप्पीनेस इंडेक्स को आंकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि कायदे से अब लोगों की बढ़ती नाराजगी और गुस्से के इंडेक्स को मापा जाना चाहिए.

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