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जब मुर्गे की बांग से होती थी सुबह

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार शहर के एक गरीब इलाके में सवेरे-सवेरे मुर्गे की बांग सुनी, तो याद आ गया कि कैसे बचपन में सवेरा होने की पहचान करायी जाती थी कि सूरज की पहली किरण से पहले ही मुर्गा बांग देता है कि उठो भाई.बहुत सो लिये. अब जागो, तैयार होकर काम पर चलो. पहले […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
शहर के एक गरीब इलाके में सवेरे-सवेरे मुर्गे की बांग सुनी, तो याद आ गया कि कैसे बचपन में सवेरा होने की पहचान करायी जाती थी कि सूरज की पहली किरण से पहले ही मुर्गा बांग देता है कि उठो भाई.बहुत सो लिये. अब जागो, तैयार होकर काम पर चलो.
पहले के जमाने में पाठ्यपुस्तकों में पढ़ायी जानेवाली कविता- सूरज निकला चिड़ियां बोलीं, कलियों ने भी आंखें खोलीं, बच्चे-बच्चे को याद थी. कविता के साथ किताबों में सूर्योदय का चित्र भी बना होता था. ग्रामीण समाजों और छोटे कस्बों में मुर्गे की बांग सवेरा होने की पहचान थी.
लेकिन शहरों में जब से चौबीस घंटे वाहनों की आवाजाही बढ़ी है, शोरगुल इतना है कि मुर्गे की बांग कहीं खो गया है. एक समय था, जब गाय, भैंसें, बकरियां, मुर्गियां आदि पशु-पक्षी घर-घर में दिखायी देते थे. एक तरह से कह सकते हैं कि यह मनुष्य की इनसे दोस्ती भी थी, मगर शहरीकरण ने और जानवरों के आसपास रहने मात्र से बना दिये गये बीमारियों के खौफ ने पालतू पशुओं को हमारे जीवन से धीरे-धीरे दूर कर दिया.
मुर्गे की बांग सुबह-सवेरे अलार्म का काम करती थी, लेकिन अब तो हर सिरहाने मोबाइल है और मुर्गे की बांग के भरोसे न होकर आदमी मोबाइल के भरोसे है. जब चाहे जिस समय उठने का अलार्म लगा ले, फोन अपने मालिक को उठाने की जिम्मेदारी संभाल ही लेगा. कई लोग तो उठने के लिए मुर्गे की बांग वाली रिंग टोन का इस्तेमाल भी करते हैं.
वह तो सूरज पर वश नहीं चलता है, वरना हर कोई अपने सिरहाने एक-एक सूरज भी रख ले और जब चाहे तब अपनी मर्जी और सुविधा से उसे निकलने और छिपने को कहे. किसी का सवेरा दोपहर के दो बजे होता है, तो शाम ढलने के बाद भी किसी की रात शुरू नहीं होती. हमारी लालसाओं औ आरामतलबी का अंत ही कहां! हालांकि, यह भी सच है कि जितना मनुष्य आरामतलब हुआ है, उसकी परेशानियां भी उतनी ही बढ़ी हैं.
कई बार लगता है कि आजकल क्या आधुनिक बच्चे मुर्गे और मुर्गी में भेद कर सकते हैं? क्या वे भेड़ और बकरी का अंतर पहचानते हैं? क्या आम और बेल के पेड़ में फर्क समझते हैं. कमल-कमलिनी के भेद को बता पाते हैं?
ज्यों-ज्यों शहरीकरण बढ़ा है, मनुष्य प्रकृति से दूर हुआ है. तकनीकी उपकरणों के सामने एक तरह से प्रकृति की अनदेखी की जा रही है.इसलिए अक्सर जब कहीं प्रकृति का कहर टूटता है, तभी हमें वह याद आती है, वरना तो रोज की अफरा-तफरी में हम उसे भूलते जा रहे हैं.
शहरों में जानवरों के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए कहीं-कहीं वे घूमते दिखते हैं. आज के बच्चों को अगर बताया जाये कि पहले के लोग चिड़ियों के चहचहाने और मुर्गे की बांग सुनकर उठते थे, तो उन्हें सहज ही विश्वास नहीं होगा. हमारे जीवन में पेड़, पौधे, नदियां, तालाब, झरने कितने जरूरी हैं, इसे पर्यावरण बतानेवाली किताबों के मुकाबले, जीवन से आसानी से समझा जा सकता है.

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