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शर्म तुमको मगर नहीं आती

II सुरेश कांत II वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail.com सत्य के संबंध में यह एकदम सत्य है कि जीत हमेशा सत्य की ही होती है. बेशक इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि जिसकी जीत हो, वही सत्य है. फिर तो जीत ही सत्य है, यह निष्कर्ष निकलते भी देर नहीं लगी. सोचिये, त्रेता युग में अगर […]

II सुरेश कांत II
वरिष्ठ व्यंग्यकार
drsureshkant@gmail.com
सत्य के संबंध में यह एकदम सत्य है कि जीत हमेशा सत्य की ही होती है. बेशक इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि जिसकी जीत हो, वही सत्य है. फिर तो जीत ही सत्य है, यह निष्कर्ष निकलते भी देर नहीं लगी. सोचिये, त्रेता युग में अगर जीत रावण की होती, हो भी सकती थी, क्योंकि जीत के लिए आवश्यक सभी कुछ तो उसके पास था, सिवाय आज्ञाकारी भाई के. भाई धोखा न दे देता, तो उसकी जीत में संशय ही क्या था?
समाज ने भी, विभीषण के राम के पक्ष में आ जाने के बावजूद, उसे दिल से कभी स्वीकार नहीं किया. उसके बाद किसी ने कभी अपने पुत्र का नाम विभीषण रखा हो, देखने में नहीं आया. इतना बुरा माना समाज ने विभीषण के भ्रातृ-द्रोह का. बहरहाल, अगर रावण जीता होता, तो आज उसी का गुणगान होता दिखता. और वह इसलिए कि सत्य के ही जीतने का यह निष्कर्ष भी निकलता है कि जीतना ही सत्य है.
जाहिर है, बेशर्मीभरा यह निष्कर्ष बेशर्मों ने ही निकाला और सिद्ध किया है. ऐसे बेशर्म समाज के हर क्षेत्र में पाये जाते हैं. राजनीति में तो बिना बेशर्म हुए गुजारा ही नहीं है. औरतों के साथ बलात्कार की घटनाएं चरम पर हैं, यहां तक कि बच्चियों और बूढ़ियों तक को नहीं बख्शा जा रहा, लेकिन नेता उसे अपरिहार्य बताते हुए कह रहे हैं कि बलात्कार संस्कृति का अंग है, उसे रोका नहीं जा सकता. तो भाई, जब तुम विपक्ष में थे, तो क्यों इसका विरोध करते थे? और भी आगे बढ़कर, मंत्री लोग तो बलात्कारियों के समर्थन में निकले जुलूस में भी शामिल हो जाते हैं.
उधर एक मुख्यमंत्री कहता है कि भारत में इंटरनेट महाभारत काल से था, क्योंकि संजय उसी के जरिये धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाता था. अगर ऐसा था, तो आज क्यों समस्त टेक्नोलॉजी हमें विदेशी जूठन के रूप में प्राप्त होती है? और अगर ऐसा ही था, तो वह युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाने में ही काम आता था या पोर्न फिल्में देखने के भी?
क्योंकि ऐसा तो हो नहीं सकता कि आज का एक आविष्कार तो प्राचीन भारत में पहले से मौजूद रहा हो और उससे जुड़ा दूसरा न रहा हो. यह वैसा ही है, जैसे यह दावा करने पर कि प्राचीन भारत में एड्स का भी इलाज मौजूद था, यह बिना कहे साबित हो जाता है कि प्राचीन भारत में एड्स का रोग भी मौजूद था. और प्राचीन भारत में एड्स का रोग होने के और क्या निहितार्थ हो सकते हैं, कहना अनावश्यक है.
साहित्य में भी बेशर्म पूरी बेशर्मी का प्रदर्शन करते मिलते हैं. उनके लिए बेशर्मी ही सत्य है, इसलिए ‘सत्यमेव जयते’ का अर्थ उनकी निगाह में बेशर्ममेव जयते’ ही है.
पुरस्कार झटकने, अपनों को रेवड़ी बांटने, ‘गैरों पे सितम अपनों पे करम’ करने आदि मामलों में दिखायी जानेवाली उनकी बेशर्मी देखकर खुद बेशर्मी भी शर्म से पानी-पानी हो जाती है. उन्हें गालिब की यह झिड़की भी बेशर्मी करने से नहीं रोक पाती कि काबा किस मुंह से जाओगे ‘गालिब’, शर्म तुमको मगर नहीं आती! और उसका कारण यह है कि उन्हें काबा जाना ही नहीं होता, वे अपने पास ही अपना अलग काबा जो बना लेते हैं, जिसे मठ कहते हैं.

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