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मशीनों की तरह सोचते इंसान

संतोष उत्सुक व्यंग्यकार महान साबित हो चुके ऐतिहासिक बड़े लोगों के कहे वचन कहीं और कभी भी संदर्भ के रूप में लिये जा सकते हैं. मुझे यह पढ़कर दिली खुशी हुई कि लाजवाब शानो-शौकत वाले और शान दिलानेवाले एप्पल के सीइओ टिम कुक ने पिछले दिनों महा व्यवसायी चीन में आयोजित चौथी वर्ल्ड इंटरनेट कांफ्रेंस […]

संतोष उत्सुक

व्यंग्यकार

महान साबित हो चुके ऐतिहासिक बड़े लोगों के कहे वचन कहीं और कभी भी संदर्भ के रूप में लिये जा सकते हैं. मुझे यह पढ़कर दिली खुशी हुई कि लाजवाब शानो-शौकत वाले और शान दिलानेवाले एप्पल के सीइओ टिम कुक ने पिछले दिनों महा व्यवसायी चीन में आयोजित चौथी वर्ल्ड इंटरनेट कांफ्रेंस में फरमाया कि भविष्य में टेक्नोलॉजी में मानवता, खुलापन, सृजनशीलता, गोपनीयता और शालीनता को शामिल करना जरूरी होगा. उनके कथन का हर शब्द लुभा रहा है. वे कहते हैं, मैं इंसानों की तरह सोचनेवाली मशीनों की चिंता नहीं करता, मुझे फिक्र उन इंसानों की है, जो मशीनों की तरह सोचने लगे हैं.

टिम के उद्गार, मुझे लगता है, काफी सलीके से ‘कुक’ किये गये लगते हैं. स्पष्ट लगता है जैसे एक रंग-बिरंगी सुंदर सी हाइजीनिक डिजिटल प्लेट में कई तरह के अद्भुत स्वादिष्ट व्यंजन परोस दिये गये हैं और साथ में इस बात का पूरा प्रबंध किया गया है कि दुनिया बासी खा भी न सके, मगर हैरान जरूर रह जाये. तकनीक की सहायता से जीवन आसान, और बेहद आसान बनाने की राह पर तुले आदमी की बुद्धि ने खुद को मशीन बना लिया है और महा विकास के विनाशकारी जंगल में लापता हो चुकी मानवता को खोजने के नैतिक प्रायोजन और आयोजन निरंतर हो रहे हैं. कौन ढूंढेगा, कहां मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं, यह अब एक डिजिटल प्रश्न बन गया है.

संभवत: हिंदुस्तानी शिशु को विकसित धरती पर पधारने के साथ ही शहद के साथ या बिना शहद मोबाइल पर, बस अभी डाउनलोड किया गेम चटवाकर गर्व महसूस किया जा रहा है.

क्या यह सच है कि अमेरिका को पछाड़ते दिख रहे चीन में यूट्यूब निषेध है, मगर अपने ‘न्यू डिजिटल इंडिया’ में यूट्यूब तन-मन-धन का मंदिर हो चुका है. हमारे यहां तो सृजनशीलता से रोम-रोम को इतना गहरा इश्क हो चुका है कि दिमाग पगला गया है. दो में दो जमा करने के लिए उंगलियां अब कैलकुलेटर खोजती हैं.

गोपनीयता बहुत कमाल है, आधार उसकी मिसाल बन चुका है. शालीनता तकनीक में कैसे प्रवेश कर पायेगी? क्या यह एक अमानवीय सवाल है? सब जानते हैं कि इंसानों की तरह सोचनेवाली मशीनें बुद्धिमान इंसानों ने ही बनायी है. अब कुक उन्हीं इंसानों के बारे में फिक्र जताकर क्या कुछ नया स्वादिष्ट पकाना चाहते हैं? कहीं उन्हें यह तो नहीं लगता कि मशीन अब ज्यादा खतरनाक होती जा रही है या फिर उन्हें लगता है कि मशीनों का ज्यादा यूजर फ्रेंडली होना घातक है?

मुझे लगता है कि अब वह सही समय आ गया है, जब हमें समूहों में बैठकर इत्मीनान से राजकपूर की फिल्म तीसरी कसम का शैलेंद्र लिखित गीत, ‘दुनिया बनानेवाले क्या तेरे मन में समायी, काहे को दुनिया बनायी’, भजन की तरह गाना चाहिए. उम्मीद है इससे मशीन होने का दुख कुछ कम लगने लगेगा. मगर मशीन होने से आप बच नहीं सकते. मशीनों की दुनिया में मशीनों की जरूरत होती है, इंसानों की नहीं.

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