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देशज आधुनिकता के अनुपम कवि : कुंवर नारायण

अशोक कुमार पांडेय लेखक कुंवर नारायण जी के साथ हिंदी का एक युग समाप्त हो गया. आधी सदी से अधिक लंबी उनकी साहित्य यात्रा एक साधक की यात्रा है, जिसमें हमारी भाषा, राजनीति और समाज के विकास की गाथा अपने समस्त विडंबनाओं के साथ विन्यस्त है. परंपरा से गहरे जुड़े और उससे अग्रगामी यात्रा का […]

अशोक कुमार पांडेय

लेखक

कुंवर नारायण जी के साथ हिंदी का एक युग समाप्त हो गया. आधी सदी से अधिक लंबी उनकी साहित्य यात्रा एक साधक की यात्रा है, जिसमें हमारी भाषा, राजनीति और समाज के विकास की गाथा अपने समस्त विडंबनाओं के साथ विन्यस्त है. परंपरा से गहरे जुड़े और उससे अग्रगामी यात्रा का पाथेय ढूंढनेवाले कुंवर जी देशज आधुनिकता के कवि थे, जिनकी कविताएं मनुष्यता के पक्ष में सदैव सन्नद्ध रहीं.

वह भारतीय दर्शनिकता के प्रगतिशील पक्ष से ऊर्जस्वित समन्वय के कवि थे, जिसने लड़ने-झगड़ने की जगह ‘जरा सा प्यार में डूबे रहने’ का चुनाव किया. उनका यह देशज कोई संकुचित देशज नहीं था, जो धार्मिक कट्टरता की संकीर्ण गलियों में दम तोड़ दे. साझा परंपराओं और सामूहिकताओं से निर्मित वह एक विराट देश था.

फैजाबाद के एक व्यवसायी परिवार में जन्मे कुंवर जी ने 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम ए किया और आजीविका के लिए ऑटोमोबाइल के अपने पुश्तैनी धंधे से जुड़े रहे.

उनका पहला कविता संकलन 1956 में ‘चक्रव्यूह’ शीर्षक से आया और उन्हें प्रयोगवादी कवि के रूप में पहचान मिली. अज्ञेय ने उन्हें तीसरा सप्तक में शामिल किया और इस तरह वह साहित्यिक दुनिया के स्थायी रहवासी की तरह प्रतिष्ठित हो गये. लेकिन, उनकी विशिष्ट पहचान बनी 1965 में आये ‘आत्मजयी’ से. प्रबंध काव्यों का दौर लगभग समाप्त हो जाने के बावजूद उन्होंने इसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना और कठोपनिषद पर आधारित उनका यह प्रबंध काव्य अपनी दार्शनिकता और भाषाई सौष्ठव के साथ हिंदी कविता की दुनिया में एक नवोन्मेष था तो इसके बाद इतिहास और मिथकों के साथ अपने विशिष्ट प्रयोग के लिए कुंवर जी ने विवादों तथा चर्चाओं का हिस्सा बने बिना हिंदी के पाठकों का वह स्नेह पाया, जो लगभग दुर्लभ है.

नचिकेता की कथा के सहारे 2008 में आया उनका संकलन ‘वाजश्रवा के बहाने’ एक पिता के मानसिक द्वंद्व का ही नहीं, अपितु रूढ़ि और प्रगति के सतत द्वंद्व का अद्भुत चित्रण है, जहां वाजश्रवा की करुण पुकार ‘लौट आओ प्राण/ पुनः हम प्राणियों के बीच/ तुम जहां कहीं भी चले गये हो/ हमसे बहुत दूर-/ लोक में परलोक में/ तम में आलोक में/ शोक में अ-शोक में’ सरोज स्मृति की याद दिलाती एक पिता की करुण पुकार से आगे मनुष्यता की पुकार बन जाती है, तो नचिकेता के लौट आने के बाद ‘वह लौट आया है, आज/ जो चला गया था कल/ वही दिन नहाधोकर/ फिर से शुरू हो रहा है… और हम आश्चर्य करते/ कहीं कुछ भी तो मरा नहीं’ अपनी भव्य दार्शनिकता के उद्घोष में अद्भुत व्यंजना भी रचती है. इसे अपनी नाटकीयता, दार्शनिकता और काव्यात्मक सौंदर्य के लिहाज से भारत के विश्वस्तरीय काव्य संकलनों में शुमार किया जा सकता है.

लेकिन, यह मान लेना कि अपनी दार्शनिक चिंताओं में वह रोज-ब-रोज की राजनीतिक-सामाजिक विडंबनाओं से कटे हुए थे, उनके कवि का अपमान होगा. सांगठनिक या वैचारिक प्रतिबद्धताओं के किसी उद्घोष के बिना वह मनुष्यता के पक्ष में सदा मजबूती से खड़े नजर आते हैं. उनकी अनेक कविताएं देश में जड़ जमाती जा रही आत्मघाती सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ आवाज उठाती हैं.

6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद लिखी कविता ‘अयोध्या’ में वह लिखते हैं- इससे बड़ा क्या हो सकता है/ हमारा दुर्भाग्य/ एक विवादित स्थल में सिमट/ रह गया तुम्हारा साम्राज्य/ अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं/ योद्धाओं की लंका है,/ ‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं/ चुनाव का डंका है… इस कविता के लिए उन्हें धमकियां भी मिलीं, लेकिन वह उनसे अप्रभावित रहे.

साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और पद्मभूषण जैसे सम्मानों से सम्मानित कुंवर नारायण ने कविताओं के अलावा भी लगभग सभी विधाओं में विपुल काम किया और उनके साक्षात्कारों का संग्रह ‘मेरे साक्षात्कार’ तो जैसे हर कवि के लिए एक जरूरी किताब है.

कोलाहल और हड़बड़ाहट से भरे समकालीन साहित्यिक परिवेश में उनका होना एक ‘वृहत्तर, मनुष्यतर और कृतज्ञतर’ कवि के होने की आश्वस्ति थी, जिसके लिए पूर्णतर होने का अर्थ था ‘सबके हिताहित की चिंता.’ सर्वे भवंतु सुखिनः का उद्घोष करती उनकी कविताएं हिंदी साहित्य के लोकवृत्त को सदा समृद्ध करती रहेंगी.

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