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साहित्य के राम-रहीम

जब से बाबा रामरहीम साध्वियों के साथ बलात्कार के मामले में धरा गया है, मुझे चारों तरफ रामरहीम ही रामरहीम नजर आ रहे हैं, खासकर साहित्य में. वे भी अपना नाम बदल लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि नाम में ही सब-कुछ रखा है. होते आंख के अंधे हैं, पर नाम नयनसुख रख लेते […]

जब से बाबा रामरहीम साध्वियों के साथ बलात्कार के मामले में धरा गया है, मुझे चारों तरफ रामरहीम ही रामरहीम नजर आ रहे हैं, खासकर साहित्य में. वे भी अपना नाम बदल लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि नाम में ही सब-कुछ रखा है. होते आंख के अंधे हैं, पर नाम नयनसुख रख लेते हैं, जिससे कोई उन्हें अंधा कहने की जुर्रत ही नहीं कर पाता.

इस तरह नाम रख लेने से उन्हें नाम करने के लिए नाम कमाने की जरूरत नहीं रह जाती. बिना नाम कमाये ही उनका नाम हो जाता है. नाम हो जाने से वे नामी हो जाते हैं और नामी हो जाने से उन्हें नामा मिलने लगता है, जिससे लोग उनका नामाकूल होना भूल जाते हैं.

गौरतलब है कि साहित्य के रामहीमों के भी डेरे होते हैं, जिनमें साहित्य का सौदा होता है. वह सौदा इस रूप में सच्चा होता है कि वह यह सूचित करता है कि हां, यहां सच में सौदा ही होता है अथवा यह कि यह सच में ही सौदा है. यह अलग बात है कि आम लोग सच्चे को सौदे का विशेषण समझ सौदे को ही सच्चा मान लेते हैं और फलस्वरूप उन्हें मान देने लगते हैं. मान वे मन से देते हैं, जो उनके तन में रहता है, इसलिए वे तन-मन से उनकी सेवा में समर्पित हो जाते हैं. और जब तन-मन ही समर्पित हो गया, तो उनका धन ही कैसे बच सकता है, वह भी खिंच-खिंचकर उनके पास आने लगता है. मान देने के बाद जल्दी ही वे उन्हें मान भी जाते हैं.

इसके बदले में डेरामुखी उन्हें साहित्य में दीक्षित करते हैं. दीक्षित होना शिक्षित होने से कहीं ऊंची बात है, इसलिए वे उन्हें शिक्षित न करके सीधे दीक्षित ही करते हैं. शिक्षित करने में यह संदेह उत्पन्न होने का जोखिम भी रहता है कि वे खुद भी शिक्षित हैं या नहीं. दीक्षित करने में ऐसा कोई जोखिम नहीं होता. लिखने की शिक्षा देना वे इसलिए भी जरूरी नहीं समझते, क्योंकि वे जानते हैं कि लिखकर साहित्यकार बनना तो मूर्खों का काम है, जो लिख-लिखकर मर जाते हैं, पर लिखने का फल यानी पुरस्कार कभी प्राप्त नहीं कर पाते- पोथी लिखि-लिखि जग मुआ, पुरस्कृत भया न कोय. इसलिए वे उन्हें नामदान देकर ही साहित्यकार बना देते हैं. फिर तो वे जो कुछ करते हैं, वही साहित्य हो जाता है. उनके अंग-प्रत्यंग से साहित्य झरता है, मतलब जो कुछ भी झरता है, उसी को वे साहित्य घोषित कर देते हैं.

साहित्य के डेरों में भी गुफाएं होती हैं, जहां साहित्य की चुनिंदा साध्वियों को ही प्रवेश मिलता है. वहां साहित्य के रामरहीम भी वही सब करते हैं, जो धर्म के रामरहीम करते हैं. लेकिन, फिर एक दिन उनका भी भांडा फूट जाता है उन्हीं की तरह. फूटना भांडे की नियति जो है!

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

drsureshkant@gmail.com

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