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कांग्रेस से मोह, मोहभंग और संविद सरकार

स्पेशल सेल 1952 में पहला आमचुनाव हुआ और श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी. आबोहवा में आजादी की खुमारी तो थी ही, साथ में यह इरादा भी था कि विकास के पहिये को कैसे समाज की ओर मुखातिब किया जाये. इसी की अभिव्यक्ति सरकार के कामकाज में दिखी. जमींदारी उन्मूलन का कानून लागू करनेवाला […]

स्पेशल सेल

1952 में पहला आमचुनाव हुआ और श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी. आबोहवा में आजादी की खुमारी तो थी ही, साथ में यह इरादा भी था कि विकास के पहिये को कैसे समाज की ओर मुखातिब किया जाये. इसी की अभिव्यक्ति सरकार के कामकाज में दिखी. जमींदारी उन्मूलन का कानून लागू करनेवाला बिहार देश में पहला राज्य बना. बड़ी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की पहल उसी दौर में हुई. पर यह उतना ही बड़ा सच है कि 1952 से 67 के बीच कांग्रेस से मोहभंग की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी थी. पहले आमचुनाव में कांग्रेस को जहां 239 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी, वह 1967 में घटकर 128 सीटों पर पहुंच गयी. दूसरी ओर, गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का तेजी से विस्तार हो रहा था. कमतर समझी जानेवाली राजनीति आहिस्ता-आहिस्ता राजनीति के केंद्र में पहुंच गयी. बिहार की राजनीति में यह बड़ा बदलाव था. इस बदले राजनीति के सूत्र सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में हिस्सेदारी की चाहत में छुपे हुए थे.

आजादी के बाद पहला आम चुनाव 1952 में हुआ. चुनाव की प्रक्रिया 1951 में ही शुरू हो गयी थी. बिहार में कांग्रेस के अलावा 16 पार्टियां चुनाव मैदान में थीं. 54 ऐसी सीटें थी जहां से दो प्रतिनिधियों का चयन होना था. कुल सीटें 276 थीं और कुल उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे 1594. चुनाव एकतरफा था और ऐसा पहले से ही तय था, कांग्रेस विशाल बहुमत से सरकार बनायेगी. चुनाव परिणाम उम्मीदों के अनुरूप ही हुए. कांग्रेस को 239 सीटें मिलीं. आजादी के बाद श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में पहली सरकार बनी. अगले डेढ़ दशक तक कांग्रेस बिहार की राजनीति के केंद्र में रही. श्रीकृष्ण सिंह ने कई बड़े काम किये. उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र में अनेक औद्योगिक इकाईयों को स्थापित करने में पहल की. सिंचाई परियोजनाओं, इंफ्रास्ट्रर के क्षेत्र में देसी सरकार ने काम शुरू कर दिया था.
1952 से लेकर 1967 तक सरकार के विकासात्मक काम के साथ-साथ दो बातें समानांतर तरीके से चल रही थीं. पहला, कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति में खींचतान और दूसरा कांग्रेस के खिलाफ छोटे-छोटे समूूहों का लगातार सशक्त होना. यही वह दौर भी था जब श्रीकृष्ण सिंह की सरकार ने जमींदारी उन्मूलन कानून को लागू किया था. ऐसा कानून लागू करने वाला बिहार देश में पहला राज्य था. ध्यान रहे कि आजादी के पहले ही रामवृक्ष बेनीपुरी से लेकर स्वामी सहजानंद तक ने जमींदारी उन्मूलन के खिलाफ धरना-प्रदर्शन की धारावाहिकता बनाये रखी थी. उनका मानना था कि जब तक जमींदारी प्रथा का अंत नहीं होगा तब तक कास्तकारों की दशा में सुधार नहीं आनेवाला. ऐसा माना जाता है कि तब बिहार देश में गुड गवर्नेस का मॉडल स्टेट था. लेकिन मार्के की बात यह भी है कि 1952 से 67 के बीच विधानसभा के चार चुनाव हुए और उसमें कांग्रेस की सीटें क्रमिक रूप से कम होती गयीं. विकास के नये दरवाजों को खोलने के बावजूद कांग्रेस की राजनीति समाज को शायद एड्रेस नहीं कर पा रही थी. सत्ता को लेकर खेमेबंदी व खींचतान कम नहीं थी और कांग्रेस के दर्शन के खिलाफ जनसंघ से लेकर समाजवादी धारा की राजनीति मजबूत हो रही थी. आजादी के सपने तिरोहित हो चले थे. लोग जिंदगी से जुड़े सवालों से साक्षात्कार कर रहे थे.
सतह पर आता रहा कांग्रेस का टकराव
1957 में हुए दूसरे आम चुनाव तक कांग्रेस के भीतर टकराव काफी तीखा हो चला था. सरदार हरिहर सिंह सहित कुछ बड़े नेताओं के टिकट काट दिये गये. महेश प्रसाद सिंह और केबी सहाय, दोनों चुनाव में पराजित हो गये. पहली बार बिहार केसरी डॉ श्रीकृष्ण सिंह और बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिंह के बीच नेता पद को लेकर टकराव खुलकर सामने आ गया. इस टकराव के बावजूद दोनों नेताओं के बीच सद्भाव कम नहीं था. नेता पद के चुनाव में बिहार केसरी जीत गये. पर 1961 में उनके देहांत के बाद विनोदानंद झा को विधायक दल का नेता चुना गया और इस तरह वह मुख्यमंत्री बने.
इसके पांच साल बाद हुए चुनाव में कांग्रेस की सीटें और कम हो गयीं. तीसरे चुनाव में उसे 195 सीटें मिलीं और विनोदानंद झा दोबारा मुख्यमंत्री बनाये गये. खास बात यह थी कि कांग्रेस के खिलाफ स्वतंत्र पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने में कामयाब रही. उधर, सरकार में केबी सहाय को शामिल नहीं किया गया जिसका नतीजा टकराव के रूप में सामने आता रहा.
सत्ता संघर्ष और तीखा हुआ
कामराज योजना के तहत विनोदानंद झा को मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा. नेता पद के नये दावेदारों में केबी सहाय और वीरचंद पटेल आमने-सामने थे. यह पहला मौका था जब कांग्रेस में किसी पिछड़ी जाति के नेता ने मुख्यमंत्री के पद पर दावा जताया हो. इसके पहले पिछड़े समुदाय से एकमात्र पटेल ही 57 से 62 तक कैबिनेट
मंत्री रहे.
बहरहाल, केबी सहाय को सरकार बनाने का मौका मिला और उन्होंने दो अक्टूबर 1963 को ग्यारह सदस्यों के साथ सरकार बनायी. उस सरकार में पिछड़ी जाति के रामलखन सिंह यादव, वीरचंद पटेल और सुमित्र देवी को कैबिनेट मंत्री बनाया गया. जानकार मानते हैं कि सामाजिक-आर्थिक बदलावों के कारण कांग्रेस में उन्हें जगह मिलनी शुरू हुई. इसकी दूसरी बड़ी वजह पिछड़ी जातियों का सोशलिस्ट पार्टियों के प्रति गहरा झुकावभी था.
आंदोलन बढ़ा तो बढ़ गयी पुलिस ज्यादती
कहते हैं कि आजादी के बाद पहली बार, 1965 में विभिन्न मुद्धों पर आंदोलन फूट पड़ा. इसके साल भर पहले ही सोशलिस्ट और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हो चुका था और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी अस्तित्व में आ चुकी थी. महंगाई, भ्रष्टाचार, अनाज संकट और विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ोतरी के खिलाफ लोग आंदोलित थे. संसोपा और कम्युनिस्ट इन आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे. उसी साल 9 अगस्त की रात पटना में डॉ लोहिया और भाकपा के बड़े नेता सुनील मुखर्जी सहित दूसरे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. उस दिन पटना बंद किया गया था और इन नेताओं की गांधी मैदान में सभा थी.
पहली गैर कांग्रेसी सरकार
1967 के आम चुनाव में कांग्रेस की सीट घटकर 128 हो गयी. गैर कांग्रेसवाद के नाम पर चुनाव जीतने वाली पार्टियों ने मिलकर संयुक्त विधायक दल बनाया और कामकाज के लिए 33 सूत्री कार्य योजना भी बनायी. अब आगे सरकार बनाने की दावेदारी थी. डॉ लोहिया चाहते थे कि संविद सरकार की कमान कपूरूरी ठाकुर को दी जाये. पर सामाजिक पेच के आगे डॉ लोहिया सफल न हो सके और महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी.

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