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राष्ट्रीय राजनीति में आदिवासी

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपने वरिष्ठ आदिवासी नेता कड़िया मुंडा को टिकट नहीं दिया. कड़िया मुंडा ने हमेशा की तरह विनम्रतापूर्वक अपनी पार्टी के निर्णय को स्वीकार कर लिया और कहा कि वे अब फिर से अपने खेतों में हल-बैल के साथ […]

डॉ अनुज लुगुन

सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

anujlugun@cub.ac.in

लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपने वरिष्ठ आदिवासी नेता कड़िया मुंडा को टिकट नहीं दिया. कड़िया मुंडा ने हमेशा की तरह विनम्रतापूर्वक अपनी पार्टी के निर्णय को स्वीकार कर लिया और कहा कि वे अब फिर से अपने खेतों में हल-बैल के साथ समय गुजारेंगे.

ऐसे समय में जब राजनीति का अपराधीकरण होता जा रहा है, कड़िया मुंडा की सादगी एक मिसाल है. वे भारतीय राजनीति के राष्ट्रीय परिदृश्य में ऐसे आदिवासी नेता हैं, जो लोकसभा के उपाध्यक्ष भी रहे. इसके बावजूद एक सवाल हमेशा उनका पीछा करता रहेगा कि राष्ट्रीय राजनीति में उनकी छवि का प्रभाव क्या है? क्या उनकी छवि उनके ही दल के अन्य कद्दावर नेताओं के समक्ष खड़ी की जा सकती है? या कभी मीडिया ने उनके राष्ट्रीय व्यक्तित्व को उभारने की कोशिश की?

यह सवाल सिर्फ कड़िया मुंडा से जुड़ा सवाल नहीं है. यह सवाल दिवंगत वरिष्ठ नेता पीए संगमा से भी जुड़ा हुआ है, जो लोकसभा के अध्यक्ष भी रहे. यह सवाल हर आदिवासी नेता का पीछा करता है. सवाल राष्ट्रीय राजनीति में आदिवासी मुद्दा और उनके नेतृत्व का है.

देश की संसदीय राजनीति में हमें राष्ट्रीय छवि का कोई आदिवासी नेता दिखायी नहीं देता, जो संपूर्ण भारत के आदिवासी समुदायों का प्रभावी चेहरा हो.

यह विडंबना ही है कि जयपाल सिंह मुंडा के बाद संसदीय राजनीति में राष्ट्रीय छवि का प्रभावी आदिवासी नेतृत्व उभर कर नहीं आया. भले ही उन्होंने अलग झारखंड राज्य की मांग को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा था, लेकिन उनकी वैचारिकी आदिवासियत की थी, जो देश के विभिन्न समुदायों में बंटे आदिवासियों को संबोधित करती थी. वे न केवल पूर्वोत्तर के आदिवासी समुदायों से जुड़े रहे, बल्कि नागा समस्या को हल करने में भी उन्होंने सक्रिय पहल की.

उन्होंने नागा विद्रोहियों के शीर्ष नेता जापू फिजो से भी बात की और उन्हें हमेशा सलाह दी कि नागाओं को भारतीय राज्य के अंदर ही अपनी अधिकतम स्वायत्तता को सुनिश्चित करने की लड़ाई लड़नी चाहिए. जयपाल सिंह मुंडा न सिर्फ आदिवासी पक्ष को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में रख रहे थे, बल्कि उनका प्रभाव नेहरू और कांग्रेस के अन्य नेताओं पर था. कांग्रेस उनके नेतृत्व के उभार और लोकप्रियता से हमेशा चिंतित रही. जब उनके द्वारा गठित ‘आदिवासी महासभा’ ‘झारखंड पार्टी’ के रूप में तब्दील होकर 1952 के चुनाव में उतरी, तो उसने अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुए न केवल लोकसभा की तीन सीटों पर जीत हासिल की, बल्कि उसने बिहार विधानसभा की तैंतीस सीटों को भी जीत लिया था. उसके इस प्रदर्शन ने राष्ट्रीय दलों की नींद उड़ा दी थी.

कांग्रेस को इससे सबसे बड़ा धक्का लगा था. जयपाल सिंह मुंडा जिस तरह राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी होकर हस्तक्षेप करते रहे, वह आगे चलकर आदिवासी नेताओं से क्यों नहीं संभव हो पाया? कुछ समय के लिए शिबू सोरेन में इसकी झलकी मिली थी, लेकिन वे बहुत दूर तक प्रभावी सिद्ध नहीं हो सके.

नेतृत्व के विचार के साथ ही जुड़ा हुआ एक और सवाल है. क्या बिना आदिवासी मुद्दों के राजनीतिकरण के राष्ट्रीय नेतृत्व का उभार संभव है? जयपाल सिंह मुंडा, जापू फिजो या शिबू सोरेन की लोकप्रियता की वजह यह रही कि इन्होंने आदिवासी मुद्दों को राष्ट्रीय फलक पर उभारा. झारखंड राज्य की मांग का मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावकारी रहा.

उसी तरह जापू फिजो के नेतृत्व में उठी नागाओं की मांग भी राष्ट्रीय मुद्दा बनी. कथित मुख्यधारा की दिकू राजनीति तो आदिवासी मुद्दों को हमेशा उपेक्षित करती रही. बाद के दिनों में क्षेत्रीय आदिवासी राजनीति के प्रतिनिधि भी आदिवासी मुद्दों को चिन्हित करने में सफल नहीं हुए, जबकि आजादी के बाद आदिवासी समाज सबसे ज्यादा अस्मिता और अस्तित्व संकट से घिर गया. वह विकास की मार, जल, जंगल और जमीन की लूट, विस्थापन, पलायन और राजकीय हिंसा का शिकार बना.

इस तरह के आदिवासी मुद्दों को राजनीतिक दलों द्वारा उपेक्षित करने का परिणाम यह हुआ कि आदिवासी समाज का मजबूत जुड़ाव गैर-संसदीय राजनीति यानी नक्सल आंदोलनों के साथ हो गया. आदिवासी मुद्दों को तो कभी राष्ट्रीय दलों ने ईमानदारी से उठाया ही नहीं. सामाजिक न्याय की राजनीति करनेवाले राजनीतिक दल भी आदिवासियों को अपने एजेंडे में शामिल नहीं करते. उन पर लगनेवाले फर्जी देशद्रोह के मुद्दों तक पर भी चुप रहते हैं. तो क्या यह समझा जाये कि संसदीय राजनीति में दिकू विचार की तरह आदिवासी समाज को उपेक्षित ही माना जाता है?

या, लोकतंत्र की बहुमत वाली राजनीति में बड़ा वोट बैंक न होने से आदिवासी समाज का कोई मुद्दा नहीं है? क्या बड़ा वोट बैंक ही किसी भी नेतृत्व को राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष पर बैठाने में सक्षम है? अगर ऐसा है, तो फिर इस लोकतंत्र में देश की आबादी में आठ प्रतिशत वाले आदिवासी समाज का भविष्य क्या होगा?

राष्ट्रीय राजनीति में आदिवासी नेतृत्व और मुद्दों की मांग को जातिवादी मांग नहीं माना जाना चाहिए. यह हमारे लोकतंत्र के भागीदारी करने और प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर आधारित है. इसी सिद्धांत के आधार पर लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति के लिए कुल 545 सीटों में से 47 सीट आरक्षित हैं.

अब जबकि चुनाव में उम्मीदवारों के निजी व्यावसायिक हित एवं दलों के एजेंडे इस सिद्धांत के ऊपर हावी हो गये हैं, ऐसे में आदिवासियों के मुद्दे फिर से गौण हो गये हैं. यह संसदीय व्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है.

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