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अग्नि-परीक्षा के चुनावी आधार

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा. मोदीजी ने तो छोटा-सा तिनका नहीं, बल्कि 182 मीटर की प्रतिमा बनवायी है. लेकिन, लगता है कि मोदी सरकार के लिए यह सहारा भी नाकाफी साबित होगा. अब तो राम मंदिर का ही आसरा है! पिछले सालभर में मोदी सरकार की साख […]

योगेंद्र यादव

अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

yyopinion@gmail.com

कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा. मोदीजी ने तो छोटा-सा तिनका नहीं, बल्कि 182 मीटर की प्रतिमा बनवायी है. लेकिन, लगता है कि मोदी सरकार के लिए यह सहारा भी नाकाफी साबित होगा. अब तो राम मंदिर का ही आसरा है! पिछले सालभर में मोदी सरकार की साख अप्रत्याशित रूप से गिरी है.

जिस व्यक्ति पर उंगली उठाने से पहले लोगों की भौहें तन जाती थीं, अब उसी नरेंद्र मोदी पर व्हाॅट्सएप पर चुटकुलों की बाढ़ आ गयी है. पिछले महीनेभर में सीबीआइ, रिजर्व बैंक और सुप्रीम कोर्ट के घटनाक्रम ने सरकार की परेशानी को अचानक एक संकट में बदल दिया है.

इस संकट की बुनियाद में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की घोर असफलता है. इधर डॉलर के मुकाबले रुपया गिरता जा रहा है, उधर पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते जा रहे हैं.

सेंसेक्स गिर रहा है और बेरोजगारी बढ़ रही है. महंगाई अब भी उतनी नहीं है, जितनी मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान हो गयी थी, लेकिन खाद और डीजल पेट्रोल की महंगाई अब चुभने लगी है. देशव्यापी सूखे के चलते आनेवाले महीनों में खाद्यान्न और फल-सब्जी में महंगाई की आशंका है.

इसके लिए खुद सरकार जिम्मेदार है. जब पहले तीन साल तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल अचानक सस्ता हो गया था, तब सरकार ने उससे भविष्य निधि बनाने की बजाय अपना घाटा पूरा कर लिया. नोटबंदी ने काम-धंधों को धक्के पहुंचाये, अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेला. ऊपर से जीएसटी को जिस तरह थोपा गया, उससे बचे-खुचे व्यवसाय की भी कमर टूट गयी है. रिजर्व बैंक से सरकार की तनातनी की असली वजह यही है. चुनाव से पहले केंद्र सरकार का खजाना खाली है.

अरुण जेटली चाहते हैं कि रिजर्व बैंक अपनी तिजोरी तोड़कर एक मोटी रकम सरकार की झोली में डाल दे, अपने नियम-कायदे छोड़कर बैंकों को पूंजीपतियों को खुले हाथ से कर्ज बांटने दे. नोटबंदी के प्रयोग में अपनी साख गंवा चुके रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल अब और तोहमत झेलने के लिए तैयार नहीं हैं. यानी मामला कुछ गड़बड़ है.

सीबीआइ मामले को आलोक वर्मा बनाम राकेश अस्थाना विवाद के रूप में देखना बचकाना होगा. यह सीधा सीबीआइ बनाम प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) का मामला है.

सीबीआइ के वर्तमान निदेशक आलोक वर्मा मोदी सरकार की पसंद से नियुक्त किये गये थे. तब विपक्षी कांग्रेस के नेता ने इस नियुक्ति का विरोध किया था. वर्मा को नियुक्त करते समय मोदी सरकार को इतना तो भरोसा रहा होगा कि वह सरकार के इशारे के अनुसार ‘एडजस्ट’ करेंगे. जरूर पानी नाक के ऊपर पहुंच गया होगा, तभी उर्जित पटेल की तरह आलोक वर्मा को भी खड़ा होना पड़ा.

चुनाव से पहले मोदी सरकार को सीबीआइ की जरूरत थी. नीतीश कुमार को अपने साथ बनाये रखने के लिए, बिहार में लालू यादव को राजनीतिक धक्का पहुंचाने के लिए, बसपा को कांग्रेस के साथ जाने से रोकने के लिए, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी से समझौते की गुंजाइश के लिए और तमिलनाडु की सरकार को अपनी जेब में रखने के लिए सीबीआइ पर कब्जा जरूरी था, लेकिन सरकार का खेल बिगड़ता दिख रहा है.

जस्टिस पटनायक जैसे निर्भीक जज की निगरानी में सीबीआइ निदेशक की जांच होने से यह संभावना नहीं रही कि सरकार आलोक वर्मा पर आरोप लगाकर उनकी छुट्टी कर देगी. एक संभावना यह है कि सुप्रीम कोर्ट आलोक वर्मा को सीबीआइ निदेशक के पद पर बहाल कर दे. तब उनके पास ढाई महीने होंगे और सरकार के विरुद्ध संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की फाइलें उनके सामने होंगी. इस कल्पना मात्र से प्रधानमंत्री के दिल की धड़कन बढ़ सकती है.

रही-सही कसर राफेल मामले पर सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश ने पूरी कर दी है. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण था कि कांग्रेस राज के भ्रष्टाचार से तंग आयी जनता एक बेदाग चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी को देखती थी, लेकिन राफेल सौदे में अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाने के आरोप ने उस चमक को धुंधला कर दिया है.

सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्टाचार साबित हो न हो, लगता है जनता की अदालत में सरकार की खूब भद्द पिटेगी, जिसका असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा.

चारों ओर से घिरी-घबरायी बीजेपी अब अपना ब्रह्मास्त्र निकाल रही है. अमित शाह राजस्थान में बांग्लादेशी टिड्डियों को ढूंढ रहे हैं, केरल में सुप्रीम कोर्ट को ललकार रहे हैं.

असम के नागरिकता रजिस्टर को वहां ले जाने की बात हो रही है, जहां इस बहाने हिंदू-मुस्लिम तनाव पैदा किया जा सके. भारत की नागरिकता को धार्मिक आधार पर परिभाषित करनेवाला कानून संसद में पास करवाने की कोशिश होगी. आनेवाले महीनों में या तो जवान और किसान होगा, नहीं तो हिंदू-मुसलमान होगा.

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण इसी राजनीतिक पैंतरे की तार्किक परिणति होगा. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई ने इस मामले की सुनवाई को टालकर बीजेपी की चुनावी रणनीति का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है.

फिर भी यह संभव है कि सरकार संसद में इस आशय का कानून लाने की कोशिश करे. फिर भी नहीं लगता कि राम मंदिर वाली काठ की हांडी दोबारा चुनावी चूल्हे पर चढ़ सकेगी, लेकिन अगर ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे पर सत्ता में आयी सरकार की अग्नि-परीक्षा विकास नहीं, राम मंदिर के सवाल पर होती है, तो सिर्फ बीजेपी ही नहीं, पूरा देश ही राम भरोसे है!

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