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सर्दी का आलम, चाय गरम

पुष्पेश पंत इस बात के आसार नजर आने लगे हैं कि इस बार ठंड कड़ाके की पड़नेवाली है. हड्डियों को कंपाती ठंड को दूर भगाने के लिए गरमा-गरम चाय की चुस्की से भला क्या हो सकता है? अफसोस सिर्फ इस बात का है कि तन-मन में नया जोश भर देनेवाली मजेदार चाय दुर्लभ होती जा […]

पुष्पेश पंत
इस बात के आसार नजर आने लगे हैं कि इस बार ठंड कड़ाके की पड़नेवाली है. हड्डियों को कंपाती ठंड को दूर भगाने के लिए गरमा-गरम चाय की चुस्की से भला क्या हो सकता है? अफसोस सिर्फ इस बात का है कि तन-मन में नया जोश भर देनेवाली मजेदार चाय दुर्लभ होती जा रही है.
कभी-कभार गुजरे जमाने में रेल के सफर में किसी छोटे स्टेशन पर जब रेलगाड़ी रुकती थी, तो आवाज सुनायी देती थी- चाय गरम, चाय गरम. या फिर एल्यूमिनियम की केतली से मिट्टी के कुल्हड़ों में उड़ेली चाय दूधिया मिठास के सौंधी मिट्टी का स्वाद भी जुबान तक पहुंचाती थी. आज कागज या थरमोकोल के छोटे से कप में घूंटभर चाय परोसी जाती है और वह भी टी-बैग की बनी हुई. उसका तापमान होता है गुनगुने पानी जैसा. ऐसी चाय भला ठंड से जंग कैसे लड़ सकती है?
कुछ दिन पहले अपने पहाड़ी गांव जाने का मौका मिला. वहां एक छोटे से खोमचे वाले दुकानदार ने चाय खौलाने की परंपरा जीवित रखी है. लकड़ी वाले चूल्हे पर बड़ी-सी केतली में पानी दिनभर उबलता रहता है. जब कोई ग्राहक पहुंचता है, तो वह एक छोटी पतीली में माप कर दूध डालता है और उसी अनुपात में केतली से पानी मिलाता है. फिर चाय पत्ती डालता है और चाय को बड़े स्नेह से काढ़ता है.
कई बार ऐसा लगता है कि दूध की तरह चाय का उबाल पतीली से बाहर निकल आयेगा, लेकिन ऐसा होता नहीं. ग्राहक से पूछने के बाद उसके स्वादानुसार वह उसमें चीनी मिलाता है और यदि ग्राहक मना ना करे, तो हमाम दस्ते में कूटकर अदरक मिला देता है. पीतल के गिलासों में दी जानेवाली इस चाय को आप जाड़े से लड़ने के लिए कवच या ब्रह्मास्त्र समझिए. धातु के बने गिलास की गरमी हथेलियों को सेकती है- दस्तानों की जरूरत महसूस नहीं होती. उठती भाप होठों तक पहुंचने के पहले ही तनमन को ऊष्मा से भरती है. पहली दो-चार घूंट फूंक मारे बिना गटकने की कोशिश करने पर तालू जलने का खतरा रहता है.
जाहिर है कि इस चाय का दूर-दराज का रिश्ता उस चाय से नहीं है, जो नकचढ़े, नफीस और नाजुक रईस पीना पसंद करते हैं या उसकी नुमाइश करते हैं. चाय की विभिन्न प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ दार्जिलिंग चाय समझी जाती है या चीन की ऊलौंग. अंतरराष्ट्रीय बाजार में लोग चाय निलामों में एक किलों की कीमत गांठ के पूरे डेढ़ लाख रुपये तक चुकाते हैं.
असम की चाय दार्जिलिंग की सुगंधित चाय के मुकाबले ज्यादा कड़क और तेज स्वाद वाली होती है. आमतौर पर यह ‘कई तरह की पत्तियों से मिश्रित एक चाय’ पैकेट में होती है. पत्ती और कली वाली चाय को उबाल कर बनाना उसकी तौहीन और उस पर अत्याचार समझा जाता है.
चाय की पत्तियों को केतली में रख ऊपर से खौलता पानी डाल उन्हें दो-तीन मिनट भिंगोया जाता है, जिसके बाद उनका अर्क पानी में रच-बस जाता है. चीनी मिट्टी के नफीस प्यालों में छान कर या नाममात्र के दूध के साथ यह पी जाती है. इसमें चीनी मिलानेवाला बौड़म समझा जाता है. आज भले ही चाय टी-बैग में मिलने लगी है, पर यह गर्मी का वह एहसास नहीं कराती, जो पतीली में काढ़ी चाय ढाबों में या सड़क किनारे चाय बेचनेवालों की चाय कराती है.
कुछ लोग घरों में मसाला चाय बनाने के लिए रेडीमेड डिब्बाबंद पावडर का इस्तेमाल करते हैं, जिसके लेबल के अनुसार न जाने उसमें क्या-क्या नायाब चीजें पड़ी होती हैं- केसर, इलायची, जावित्री-जायफल, तेजपत्ता आदि.
हमें अपना बचपन याद आता है, जब हिमालय की गोद में बसे उस कस्बे को सिर्फ काली मिर्च कूटकर मरच्वाड़ी बनायी जाती थी या अदरक को ताजा कुचल कर अदवाड़ी. गरमा-गरम चाय का आनंद लेने के लिए यह जरूरी नहीं कि आप बहुमूल्य चाय की पत्तियों का इस्तेमाल करें. बेहतरीन गरमा-गरम चाय तो मसाले वाली सीटीसी चाय से भी तैयार की जा सकती है. जरूरी सिर्फ यह है कि आप चाय को धैर्य के साथ काढ़ें, उसमें जले दूध का स्वाद न आने दें और न ही मुंह में लगनेवाली मलाई ही. इसके बाद तो कुल्हड़ या पीतल के गिलास न भी हों, तब भी ठंड आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती.
रोचक तथ्य
असम की चाय दार्जिलिंग की सुगंधित चाय के मुकाबले ज्यादा कड़क और तेज स्वाद वाली होती है. आमतौर पर यह ‘कई तरह की पत्तियों से मिश्रित एक चाय’ पैकेट में होती है.
अदरक कुटी और अच्छी तरह से काढ़ी जाने के बाद पीतल के गिलासों में दी जानेवाली कड़क चाय को आप जाड़े से लड़ने के लिए कवच या ब्रह्मास्त्र ही समझिए.

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