'कोई मां अपने बेटे को बंदूक़ नहीं देती'
'जब हमारे बच्चे बंदूक उठाते हैं तो वो परिवार को नहीं बताते'
'वो शायद उस वक़्त मां-बाप के बारे में सोचते भी नहीं'
कुलगाम के खुदवानी में पारंपरिक कश्मीरी लिबास में अपने तीन मंज़िला घर के सामने बैठी फ़िरदौसा के पास अब उमर की यादें और सपनों के सिवा कुछ नहीं है.
पुलवामा हमले के बाद फौज के आला अधिकारी - लेफ़्टिनेंट जनरल केजेएस ढिल्लन ने कश्मीर माताओं से कहा था कि जिनके बच्चों ने बंदूक़ उठा ली हैं उन्हें समझा कर सरेंडर करवाएं वरना वो मारे जाएँगे.
केजे एस ढिल्लन ने कहा था, "जो बंदूक उठाएगा वो मारा जाएगा.'
लेकिन कश्मीर की माँओं का अपनी कहानी है.

फ़िरदौसा के बेटे उमर वानी की मौत साल 2018 में अनंतनाग बहरामसाब इलाके में भारतीय सेना के साथ एक मुठभेड़ हो गई थी.
हथियार उठाने के सिर्फ़ तीन माह बाद ही उमर वानी मारा गया था, तब वो महज़ 21 साल का था. मुठभेड़ के वक्त उनके दो दोस्त भी उसके साथ मौजूद थे.
फ़िरदौसा बताती हैं कि उमर ने ये फ़ैसला शायद जेल से वापस लौटने के बाद लिया था.
वो कहती हैं "उसे बार-बार परेशान किया गया. उसे पकड़कर जम्मू की कोटबिलावल जेल में उसे भेज दिया. वो बाहर तो आ गया लेकिन फिर बार-बार कैंप में बुलाना आम सी बात हो गई. अगर उसे सुरक्षाबलों ने परेशान नहीं किया होता तो वो कभी भी बंदूक़ उठाने के लिए मजबूर नहीं होता. बार-बार प्रताड़ित होने के कारण ही उसने चरमपंथ के रास्ते पर जाने का फ़ैसला किया."
भारतीय सेना ने इस तरह के आरोपों से बार-बार इनकार किया है और कहा है कि वो किसी भी तरह का ऑपरेशन करने वक़्त इस बात का पूरा ख़्याल रखती है कि किसी निर्दोष की जान न जाए. लेकिन इस तरह के आरोप कश्मीर के नेताओं, अलगाववादियों, मानवाधिकार संस्थाओं और लोगों की तरफ़ से उठते रहे हैं.

फ़िरदौसा बानो कहती हैं, "कश्मीर के युवाओं को इतना मजबूर किया जा रहा है कि वो चरमपंथ की तरफ बढ़ने के लिए बाध्य हो जाएं."
वो कहती हैं कि उन सबके बीच एक दिन वो घर से निकला तो वापस नहीं लौटा. आठ दिनों के बाद वो लौटा तो पता चला कि उसने कोई और रास्ता चुन लिया है.
मैंने उनसे पूछा कि अगर आज उनका बेटा ज़िंदा होता तो क्या वो उसे इस राह को छोड़ने को कहतीं? उन्होंने जवाब में कहा कि वो ज़रूर उससे कहतीं लेकिन शायद वो बहुत आहत था और उनकी बात बात नहीं सुनता.
फ़िरदौसा दुख भरे लहजे में कहती हैं, "एक बार जब उसने चरमपंथी संगठन में जाने के बारे में सोच लिया तो हमारे हाथ एक तरह से बंध गए थे. कोई मां-पिता नहीं चाहते कि उनका बेटा उनसे दूर रहे, लेकिन यहां हालात पूरी तरह बदले हुए हैं, अगर यहां इस तरह का माहौल ना होता तो हम ज़रूर कुछ कर सकते, उसे जाने से रोकते. जब मेरे बेटे का शव घर लाया गया तो मैं उसे तकती रही, कुछ कह तक ना सकी."
वो कहती हैं, "जब हमारे बच्चे बंदूक उठाते हैं तो वो इसके बारे में परिवार को नहीं बताते. उन्हें इस बात की चिंता नहीं रहती कि उनके माता-पिता का क्या होगा. उमर जब जेल में था तो अपनी शादी के बारे में हमसे बात करता था. कहता था अपनी पसंद की लड़की से शादी करेगा. लेकिन फिर सब कुछ बदल गया..."

ज़रीफा को अब भी इंतज़ार है
अनंतनाग की एसके कॉलोनी में रहने वाली ज़रीफा को इंतज़ार है कि उनका बेटा लौट आएगा. वो चाहती हैं कि उनका बेटा समाजसेवा के काम में लगे.
ज़रीफा का बेटा बुरहान ग़नी बीते साल 24 जून से ही लापता है. श्रीनगर के सीआरसी कॉलेज में पढ़ाई कर रहा बुरहान एक दिन जब घर से गया तो फिर वापस नहीं लौटा.
ज़रीफा को अब भी याद है कि वो रविवार का दिन था. बेटे के घर से ग़ायब होने के तीन दिन बाद एक तस्वीर सामने आई जिसमें बुरहान बंदूक पकड़े नज़र आ रहा था. ज़रीफा कहती हैं कि इस तस्वीर को देख कर परिवार को भारी सदमा लगा.
ज़रीफ़ा ने अपने बेटे से अपील की, "मैं अपील करती हूं कि किसी को अगर पता है कि मेरा बेटा कहां है तो मुझे लौटा दे. मेरा बेटा लौट आएगा तो मैं बहुत ख़ुश होऊंगी."
मैं उससे भी कहती हूं "मेरे बेटे, घर लौट आओ. तुम्हें लोगों की सेवा करनी चाहिए, वही तुम्हारा काम है. गरीब और मज़लूम की मदद करना ही तुम्हारे लिए असल में जिहाद है. मैंने उसे अच्छी शिक्षा दी है."
सेना की माओं से की गई अपील पर ज़रीफ़ा ने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि कोई भी मां चाहेगी की उसका बेटा मारा जाए. हम चाहते हैं कि हमारे बेटे सही सलामत रहें और घर वापस आएं. एक मां अपने बेटे को बंदूक़ नहीं दे सकती. हर कोई जानता है कि एक मां अपने बेटे को कितने लाड़-प्यार से बड़ा करती है.'

'बेटे से चरमपंथ का रास्ता छोड़ने को नहीं कह सकती'
हमीदा की सोच ज़रीफ़ा से अलग है. उनका मानना है कि कश्मीरी युवा बंदूक़ उठाने को मज़बूर हैं.
हमीदा के बेटे तारिक़ अहमद ख़ान अगस्त 2018 में चरमंपथी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ गए थे. तारिक़ के पिता नज़ीर अहमद ख़ान का अलगाववादी राजनीति का एक लंबा इतिहास रहा है. हमीदा का मानना है कि कश्मीर मसले को सुलझाने में होने वाली देरी ही युवाओं के बंदूक उठाने की वजह है.
वो कहती हैं, "कश्मीर में हर कोई कमज़ोर और बंदूक उठाने के लिए मजबूर है. मेरे बेटे का मामला कोई अलग नहीं है. सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) के नाम पर निर्दोष लोगों को जेल में डाला जा रहा है. पैलेट गन से लोग अंधे हो रहे हैं. कश्मीर का मसला जब सुलझ जाएगा तो सबकुछ ठीक हो जाएगा."
सेना की आत्मसमर्पण की अपील पर हमीदा ने कहा, 'मैं अपने बेटे को नहीं कह सकती कि चरमपंथ का रास्ता छोड़ दे. जो भी बंदूक उठाएगा वो मारा जाएगा और मेरे बेटे किस्मत भी इससे अलग नहीं होगी. कश्मीर में मारे गए लड़के भी हमारे बेटे जैसे हैं.'
पिछले दो सालों में अधिकारियों का दावा है कि सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में करीब 500 चरमपंथी मारे गए हैं. हाल ही में सुरक्षा अधिकारियों ने कहा कि कश्मीर में 200 से ज़्यादा चरमपंथी सक्रिय हैं.
90 के दशक में कश्मीर में चरमपंथ ने ज़ोर पकड़ा तब से सैकड़ों कश्मीरी नौजवानों ने उस तरफ़ का रूख़ किया है और वो सिलसिला कम होने का नाम नहीं ले रहा.
'तो कोई चरमपंथ की तरफ़ नहीं जाएगा...'
तारीक़ के पिता नज़ीर अहमद ख़ान का अलगाववादी राजनीति का एक लंबा इतिहास रहा है.
हमीदा अपने बेटे के वापस आने की अपील नहीं करना चाहतीं. कश्मीर मसले को सुलझाने में होने वाली देरी के कारण ही कश्मीर के युवा हथियार उठा रहे हैं.
हमीदा ने कहा कि कश्मीर में हर कोई कमज़ोर है और बंदूक उठाने के लिए मजबूर है. मेरे बेटे का मामला कोई अलग नहीं है.
वो कहती हैं, "कश्मीर में अत्याचार है. लोगों का यहां दबाया जा रहा है. कश्मीर का मसला सुलझना चाहिए. जब ये मसला सुलझ जाएगा तो सबकुछ ठीक हो जाएगा. सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) के नाम पर निर्दोष लोगों को जेल में डाला जा रहा है. पैलेट गन से उन्हें अंधा किया जा रहा है और इसलिए लोग कश्मीर में बंदूक उठा रहे हैं. अगर अत्याचार रुक जाएंगे तो कोई भी चरमपंथ की तरफ नहीं जाएगा."
जब उनसे पूछा गया कि कौन अत्याचार करता है तो हमीदा ने कहा, "सेना, सीआरपीएफ़, एसओजी और पुलिस यहां अत्याचार करते हैं."

सेना के आत्मसमर्पण की अपील पर हमीदा ने कहा, "यह संभव नहीं है कि मेरा बेटा चरमपंथ छोड़ दे और वापस आ जाए. मैं अपने बेटे को नहीं कह सकती कि चरमपंथ का रास्ता छोड़ दे. जो भी बंदूक उठाएगा वो मारा जाएगा और मेरे बेटे की किस्मत भी इससे अलग नहीं होगी."
"कश्मीर में मारे गए लड़के भी हमारे बेटे जैसे हैं. और हमें अपने बेटों से कहना चाहिए कि अपने घरों में वापस आ जाएं? यह हरगिज़ मुमकिन नहीं है. वो किसी मकसद से चरमपंथी संगठन से जुड़े."
पिछले दो सालों में अधिकारियों का दावा है कि सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में करीब 500 चरमपंथी मारे गए हैं. हाल ही में सुरक्षा अधिकारियों ने कहा कि कश्मीर में 200 से ज़्यादा चरमपंथी सक्रीय हैं.
90 के दशक में जब कश्मीर में चरमपंथ का उदय हुआ था तब कई कश्मीरी युवाओं ने बंदूक उठाई थी और कश्मीर में भारतीय शासन के ख़िलाफ़ लड़ना शुरू किया था.
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