कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को कहा कि अगर 2019 में लोकसभा चुनावों के बाद उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह महिला आरक्षण विधेयक को प्राथमिकता से पास करेंगे.
कोच्चि में बूथ स्तरीय पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने यह बयान दिया.
लेकिन विधेयक के पारित होने के मायने क्या हैं?

अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो सदन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण होगा. लेकिन इस पर आम राय नहीं बन पाने की वजह से विधेयक अभी भी अधर में लटका पड़ा है.
केंद्र में बहुमत की सरकार होने के बावजूद क्यों पास नहीं हो रहा विधेयक?
बीजेपी नेता गोपाल कृष्ण अग्रवाल इस पर कहते हैं कि विपक्षी पार्टियों का रुख़ सार्वजनिक जगहों पर कुछ और होता है और संसद के भीतर कुछ. वे बाहर तो आरक्षण के पक्ष में बोलते हैं लेकिन सदन के भीतर नहीं.
वो कहते हैं, "बात सिर्फ़ बीजेपी पार्टी की कीजिएगा तो आपको ख़ुद समझ आएगा कि हम महिला राजनेताओं को आगे बढ़ाने में यक़ीन करते हैं लेकिन ये एक ऐसा मसौदा है जिसमें सबका साथ आना ज़रूरी है."

गोपाल कृष्ण मानते हैं कि सभी राजनीतिक पार्टियों को इस मसले पर काम करने की ज़रूरत है. हालांकि वो ये भी कहते हैं कि राहुल गांधी अब भले ही ऐसा कह रहे हों लेकिन पहले तो उन्हीं की सरकार थी, लगभग साठ सालों तक फिर भी वे कुछ नहीं कर सके.
हालांकि, गोपाल ये मानते हैं कि राजनीति में महिलाओं की दिलचस्पी उतनी नहीं है और न ही इस क्षेत्र में महिलाएं लीडरशिप में आगे हैं. और बहुत हद तक संभव है कि लोग उन्हें इसी वजह से राजनीति में नहीं देखते.
वो कहते हैं "इस क्षेत्र में महिलाएं कम हैं. 33 फ़ीसदी रिज़र्वेशन के लिहाज़ से महिलाओं की उतनी संख्या नहीं है और जो लोग विरोध कर रहे हैं, उनके लिए ये एक बड़ी वजह है."
गोपाल कृष्ण कहते हैं, "आप ख़ुद ही देखते होंगे गांवों में कई बार महिलाएं पंचायत चुनावों में खड़ी होती हैं-जीतती हैं लेकिन उनके नाम पर उनके पति 'सरपंच पति' सब कुछ चलाते हैं. वे ख़ुद को सरपंच पति कहकर सारी चीज़ें देखने लगते हैं."
कांग्रेस अध्यक्ष के बयान के मायने क्या हैं?

कांग्रेस पार्टी महिला आरक्षण बिल को 'अपना' बताती है. कांग्रेस नेता शकील अहमद कहते हैं, "पहले भले ही हमारी सरकार थी लेकिन वो गठबंधन की सरकार थी, जिसमें कई दल थे और सब इस बिल के समर्थन में नहीं थे. लेकिन अगर भविष्य में हमारी सरकार बनती है और बहुमत के साथ हम आते हैं तो निश्चित रूप से हम यह बिल लाएंगे."
लेकिन बीजेपी के पास तो बहुमत है फिर क्यों...?
इस सवाल के जवाब में शकील अहमद कहते हैं कि बीजेपी के पास बहुमत भले है लेकिन पार्टी के भीतर ही कई ऐसे नेता हैं जो नहीं चाहते कि बिल पास हो.
वो कहते हैं, "बीजेपी उन्हें नाराज़ नहीं कर सकती और बीजेपी की अपनी ये सोच भी रही है कि वो हर किसी को थोड़ा-थोड़ा ख़ुश रखना चाहती है. लेकिन हमारी सरकार आई तो बिल ज़रूर पास होगा क्योंकि ये हमारे नेता की सोच थी."
लेकिन विरोध करने की वजह क्या है?
इस पर शकील अहमद कहते हैं, "कुछ राजनीतिक पार्टियां और नेता इसमें भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं. उन्हें इस 33 प्रतिशत में पिछड़ों का कोटा, दलितों का कोटा चाहिए. उन्हें डर है कि ये सीटें भी जनरल कैटिगरी से भर दी जाएंगी."
हालांकि शकील अहमद ये भी कहते हैं कि ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिसे बातचीत से नहीं सुलझाया जा सके.

महिला आरक्षण बिल का इतिहास?
1975 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब 'टूवर्ड्स इक्वैलिटी' नाम की एक रिपोर्ट आई थी. इसका संदर्भ आज भी दिया जाता है. इस रिपोर्ट में हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया गया था और आरक्षण पर भी बात की गई थी.
रिपोर्ट तैयार करने वाली कमेटी में अधिकतर सदस्य आरक्षण के ख़िलाफ़ थे. वहीं महिलाएं चाहती थीं कि वो आरक्षण के रास्ते से नहीं बल्कि अपने बलबूते पर राजनीति में आएं.
लेकिन आने वाले 10-15 सालों में ये रवैया बदला और महिलाओं ने अनुभव किया कि राजनीति में हर क़दम पर उनके रास्ते में रोड़े अटकाए जाते हैं और उनके लिए समान मौक़े भी नहीं हैं.
तब से महिला आरक्षण की ज़रूरत महसूस होने लगी. तभी से आरक्षण का मुद्दा सामने आया कि महिलाओं को संसद में प्रतिनिधित्व देने के लिए इसकी ज़रूरत है.
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित करने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य की विधानसभाओं ने इसका विरोध किया था. उनका कहना था कि इससे उनकी शक्तियों में कमी आएगी.
महिला आरक्षण विधेयक को एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने पहली बार 12 सितंबर 1996 को पेश करने की कोशिश की थी.

इस गठबंधन सरकार को कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी. मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद इस सरकार के दो मुख्य स्तंभ थे, जो महिला आरक्षण के विरोधी थे.
जून 1997 में एक बार फिर इस विधेयक को पास कराने का प्रयास हुआ. उस वक़्त शरद यादव ने इस विधेयक की निंदा करते हुए एक विवादास्पद टिप्पणी की थी.
उन्होंने कहा था, 'परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी.'
साल 1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार में एन थंबीदुरई (तत्कालीन क़ानून मंत्री) ने इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की. पर सफलता नहीं मिली.
इसके बाद एनडीए की सरकार ने दोबारा 13वीं लोकसभा में 1999 में इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की.
उस वक़्त भी क़रीब-क़रीब यही दृश्य देखने को मिला.
साल 2003 में एनडीए सरकार ने फिर कोशिश की लेकिन प्रश्नकाल में ही सांसदों ने ख़ूब हंगामा किया कि वे इस विधेयक को पारित नहीं होने देंगे.

हालांकि 2010 में राज्यसभा में यह विधेयक पारित हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आदेश दिया कि राज्यसभा में यह विधेयक पारित हो जाना चाहिए.
उस दिन पहली दफ़ा मार्शल्स का इस्तेमाल हुआ, जिसका इस्तेमाल पहले की सरकारें भी कर सकती थीं लेकिन उन्होंने नहीं किया था. उस दिन अच्छी खासी चर्चा हुई और यह विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया.
इस विधेयक को राज्यसभा में इस मक़सद से लाया गया था कि अगर यह इस सदन में पारित हो जाता है तो इससे उसकी मियाद बनी रहती.
लेकिन यूपीए सरकार से ग़लती यह हुई कि वह तुरंत इस विधेयक को लोकसभा में लेकर गई. सरकार को उम्मीद थी कि जिस तरह इसे राज्यसभा में पास करा लिया गया वैसे ही इसे लोकसभा में भी पारित करा लिया जाएगा.
2014 में 15वीं लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक भी ख़त्म हो गया था. इसलिए अब लोकसभा में महिला आरक्षण के विधेयक को नए सिरे से पेश करना होगा.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कई बार कह चुके हैं कि केंद्र सरकार बहुमत की सरकार है और वो महिला आरक्षण बिल लेकर आए, कांग्रेस का उसे पूरी समर्थन होगा.
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