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मोटे अनाज की खेती से बहुरे किसानों के दिन

किसानों के लिए वह स्थिति और भी कष्टदायी होती है, जब मॉनसून फेल हो जाने या कम वर्षा होने के कारण वह सही तरीके से धान की फसल की बुआई नहीं कर पाते हैं. कृषि वैज्ञानिक किसानों को हमेशा यह सलाह देते हैं कि ऐसी स्थिति में उन्हें खेती के दूसरे विकल्प को अपनाने के […]

किसानों के लिए वह स्थिति और भी कष्टदायी होती है, जब मॉनसून फेल हो जाने या कम वर्षा होने के कारण वह सही तरीके से धान की फसल की बुआई नहीं कर पाते हैं. कृषि वैज्ञानिक किसानों को हमेशा यह सलाह देते हैं कि ऐसी स्थिति में उन्हें खेती के दूसरे विकल्प को अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए.

खेती के लिए फसल के दूसरे विकल्पों में मक्का तथा मडुवा के अलावा दूसरी कई फसल भी हैं. अक्सर देखा जाता है कि किसान पूरी तरह से धान की खेती में आश्रित होते हैं. उन्हें हमेशा यह सलाह दी जाती है कि धान की खेती के साथ दूसरे विकल्पों की भी खेती करें, ताकि यदि धान की खेती में किसी कारण से नुकसान होता है तो विकल्प के रूप में दूसरी फसलों से उसकी भरपाई की जा सके. झारखंड के कुछ क्षेत्रों में सिंचाई के साधनों की कमी और भूमि की संरचना (टांड भूमि) के कारण भी धान की खेती में किसानों को संकट का सामना करना पड़ता है. पंचायतनामा के पिछले अंक में हमने धान की अच्छी खेती करने वाले किसानों से बात की थी, उनके अनुभवों की चर्चा की थी. इस अंक में खेती के दूसरे विकल्प अपनाने वाले किसानों के अनुभव को हम साझा कर रहे हैं.

सोमनाथ उरांव

रांची जिला के बेड़ो प्रखंड के चरकाटंगरा गांव के किसान सोमनाथ उरांव धान और मडुवा की खेती करते हैं. इसके अलावा वह बादाम अरहर और दूसरी कई फसलों की भी खेती करते हैं. सोमनाथ के पास एक एकड़ टांड जमीन है. सोमनाथ अपनी 20 डिसमिल जमीन में मडुवा की खेती प्रमुखता से करते हैं. वह पिछले कुछ सालों से भूमि की संरचना को समझ कर अलग-अलग प्रकार की फसलों की खेती कर रहे हैं. अधिक नमी वाली जमीन में यानी दोन 1 में वह धान की खेती करते हैं, लेकिन टांड और कम नमी वाली जमीन में मडुवा की खेती कर रहे हैं. सोमनाथ नयी कृषि पद्धति का इस्तेमाल कर अब मडुवा की खेती में ज्यादा उपज पा रहे हैं. वह पहले तो पुरानी विधि से ही मडुवा की खेती कर रहे थे, लेकिन ज्यादा उपज नहीं हो पाती थी. अब उन्होंने कृषि के क्षेत्र में काम कर रही एक संस्था की सहायता से नयी एससीआइ विधि से खेती की है. पिछले साल उन्नत बीज और नयी कृषि विधि का इस्तेमाल कर उन्होंने एक एकड़ में 16 क्विंटल मडुवा का उत्पादन किया. इसके लिए महज उन्होंने दो किलो मडुवा बीज का इस्तेमाल किया. बाजार में मडुवा उत्पादकों को अच्छे दाम मिले हैं. सोमनाथ ने अपने उत्पाद को 14 रुपये प्रति किलो की दर से बेचा. उनके अनुसार इसका बाजार भाव 22 रुपये प्रति किलो तक मिलता है.

मनी उरांव
सोमनाथ के ही गांव के मनी उरांव ने पिछले वर्ष अपनी 20 डिसमिल जमीन के एक ही प्लॉट में धान और मडुवा दोनों फसलों की खेती की थी. दोनों फसलों के लिए जमीन को बराबर बांट दिया गया था. कम नमी वाली जमीन में धान और मडुवा दोनों की खेती के फलस्वरूप पाया कि धान की अपेक्षा मडुवा का उत्पादन अधिक हुआ है. मडुवा में कम पानी की जरूरत होने के कारण उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होती, क्योंकि अधिकांश भूमि की संरचना टांड है. सिंचाई की पूरी व्यवस्था न होने के कारण ऐसी भूमि पर कम पानी वाली फसल लगाना ही लाभदायक होता है. इसके साथ ही मॉनसून फेल होने पर भी ज्यादा चिंता नहीं होती क्योंकि खेती के लिए दूसरे विकल्प मौजूद होते हैं. मनी उरांव का मानना है कि धान की खेती के लिए ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है. कभी पानी न होने पर धान की खेती को नुकसान हो जाता है. पैसा और मेहनत दोनों बरबाद चले जाते हैं. फसल होने के बाद भी असमय बारिश होने से फसल के खराब होने के अंदेशा से किसान चिंतित रहते हैं. इसलिए किसान मडुवा मक्का की उन्नत फसल भी धान के साथ जरूर लगायें, ताकि पानी की कमी के कारण धान की खेती के कारण हुए नुकसान की भरपायी होने में मदद मिल सके. मनी उरांव बताते हैं कि मडुवा को दो-तीन साल तक घर में भंडारण कर रखा जा सकता है लेकिन धान के मामले में ऐसा नहीं है. धान में कीड़ा लगने के डर के कारण भी धान को जल्द बेचना भी पड़ता है. जल्द बेचने के कारण बाजार में सही दाम नहीं मिल पाता है. वहीं मडुवा में भंडारण कर इसे समय-समय पर जब भी अच्छा दाम मिले तो बेचा जा सकता है. पिछले वर्ष मनी से प्रति एकड़ 12.8 किंवटल प्रति एकड़ मडुवा का उत्पादन किया था, जबकि दूसरे हिस्से में लगे धान का उत्पादन मात्र 2.4 किंवटल प्रति एकड़ ही था.

बिरसा उरांव
बेड़ो प्रखंड के ही बिरसा उरांव कई वर्षो तक धान की खेती करते रहे थे. जमीन की संरचना को समझते हुए उन्होंने मडुवा की खेती भी प्रारंभ की थी. धान की खेती के साथ मडुवा उत्पादन भी करना प्रारंभ किया. मडुवा का उत्पादन उनके लिए एक बेहतर विकल्प के रूप में उभर कर सामने आया. पूर्व में बिरसा परंपरागत तरीके यानी बुआई विधि से ही मडुवा की खेती करते थे. इस विधि से उन्हें बहुत ज्यादा उत्पाद नहीं प्राप्त हो रहा था. लेकिन पिछले साल से एक कृषि संस्था के सहयोग से ऐसे बीज इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसका कम मात्र में इस्तेमाल कर अधिक पैदावार हासिल की जा सकती है. बिरसा के पास लगभग ढाई एकड़ जमीन है. इसमें एक एकड़ की जमीन एक नंबर की है अर्थात ऐसी भूमि में वह धान की खेती करते हैं. इसके अलावा उनके पास 50 डिसमिल जमीन दो नंबर की है तथा एक एकड़ की भूमि तीन नंबर (टांड) है. मडुवा उत्पादन वह पहले से कर रहे हैं लेकिन पैदावार कम होती थी. लेकिन अब पैदावार बढ़ गयी है. बिरसा भूमि की संरचना को समझते हुए मडुवा के अलावा बादाम की खेती भी करते हैं और कहते हैं कि इससे अच्छा फायदा होता है. बीते वर्ष उन्होंने एक एकड़ भूमि में 6.8 किंवटल मडुवा की उपज हासिल की. मडुवा का इस्तेमाल वैसे तो वह खुद घर में खाने पीने के लिए करते हैं, लेकिन यदि जरूरत पड़ी तो बाजार में अच्छा भाव मिलने पर बेचते भी हैं.

सोमेर उरांव
बेड़ो प्रखंड के सोमेर उरांव का भी वैकल्पिक खेती को लेकर अच्छा अनुभव रहा है. वह धान की खेती के साथ मक्का-मडुवा की खेती को प्रमुखता देते हैं. उनके पास तीन एकड़ जमीन है. जिनमें से एक एकड़ जमीन एक नंबर की है और उस भूमि में धान की ही खेती की जाती है. बची लगभग डेढ़ एकड़ की भूमि दो तथा तीन नंबर की है. सोमेर ने धान की खेती के साथ मडुवा की खेती को भी चुना. उनके अनुसार पहले अधिक बीज लगता था, लेकिन नयी एससीआइ विधि से जिसे गुल्ली विधि भी कहते हैं (धान की श्री विधि की तरह अनाज के लिए एक नयी विधि) का इस्तेमाल कर मडुवा की खेती कर अधिक उत्पाद प्राप्त कर रहे हैं. वह मानते हैं कि आंधी तूफान से फसल बरबाद होती है, लेकिन धान को होने वाली क्षतिपूर्ति को इन वैकल्पिक खेती से बराबर किया जा सकता है.

धुधयां उरांव ने मडुए की खेती में पाया पहला स्थान
धुधयां उरांव रांची के बेड़ो प्रखंड की जामटोली पंचायत के बहेराटोली गांव के हैं. उन्होंने पिछले कई सालों तक अपने खेतों में धान और आलू जैसे फसलों की खेती की थी. अपनी धान की खेती के दौरान उन्होंने कई बार मौसम की मार भी ङोली है. लेकिन धान की नुकसान की भरपाई को पूरा करने का प्रयास हमेशा किया है. इसके लिए वो मडुवा की भी खेती करते हैं. उनके पास काफी भूमि है, जिसमें भूमि का कुछ हिस्सा टांड भी है. पिछले साल उन्होंने खेती की एक बेहतरीन रणनीति अपनाते हुए जमीन के कुछ हिस्सों को बांटते हुए मडुवा की खेती की. मडुवा उत्पादन के लिए उन्हें कृषि के क्षेत्र में काम कर रही एक संस्था का सहयोग प्राप्त हुआ था. मडुवा के लिए उन्होंने अपनी 30 डिसमिल भूमि का संस्था द्वारा ट्रायल बेसिस पर खेती की. गुल्ली विधि या एससीआइ (सिस्टम क्राप इंटेसीफिकेशन) विधि से ही मडुवा की खेती की. पहले की तरह बुआई विधि से अलग इस नयी विधि को अपनाने से उपज में काफी परिवर्तन देखा गया. धुधयां ने कृषि संस्था के द्वारा बताये गये सभी नियमों का भली-भांति पालन किया. 12 से 15 दिन का बिचड़ा रोपा गया था. एक बिचड़े में 35 टिलर हुए थे. अपने खेत में जैविक खाद का इस्तेमाल किया. और खरपतवार पर पूरा नियंत्रण रखा. साथ ही समय-समय पर मिट्टी चढ़ाने का कम भी किया. आसपास की मिट्टी को हलका करने से जड़ में हवा अच्छी मात्र में गयी, जिससे पौधों को फैलने का पूरा मौका मिला. इसका परिणाम काफी सकारात्मक रहा. उन्हें मडुवा का बेहतरीन फसल प्राप्त हुई. उन्होंने 17.2 किवंटल प्रति एकड़ के हिसाब से मडुवा उत्पादन किया. यह ट्रायल के रूप में सोलह किसानों के साथ किया गया था. कुछ किसानों ने खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान नहीं दिया इस कारण उन्हें कम पैदावार मिली. लेकिन कई किसानों ने अच्छी तरह से बतायी गयी सलाह का उपयोग किया. सोलह किसानों के साथ किये गये इस ट्रायल में उन्हें प्रथम स्थान मिला.

खाद्य सुरक्षा व पोषण के लिए पुरानी परंपराओं की ओर जाना होगा

मोटे अनाज की खेती के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार मानव हित में नहीं

कहा जाता है कि विकास हमेशा अच्छा नहीं होता है, अगर इसे समय-समय पर पुनमरूल्यांकन नहीं किया होगा. आप जरूर सोच रहे होंगे कि लेखक निराशावादी है. मैं बदलते खान-पान में हुए परिवर्तन की बात कर रहा हूं. जब हमारे देश को आजादी मिली थी, तब हमारे देश के सामने सबसे बड़ी समस्या खाद्य आपूर्ति की थी. आज जब हमारा देश खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है, तब एक और बड़ी समस्या उत्पन हो गयी है. वह है पोषण सुरक्षा (न्यूट्रिशन सिक्यूरिटी) का. देश में 30 मिलियन से ज्यादा लोग कुपोषित हैं और देश का 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. अब सरकारी योजनाएं खाद्य आपूर्ति के साथ एक नया शब्द प्रयोग कर रही है – खाद्य एवं पोषण सुरक्षा. सवाल यह है कि क्या जो हम खाना खा रहे हैं उससे शरीर को जरूरी पोषक तत्व मिल पा रहा है.

पाठकों के लिए यह जानना जरूरी है कि देश आजादी के साठ साल बाद खाद्य-आत्मनिर्भर कैसे बना. इस दौरान देश में ऐसा क्या हुआ, जिससे देश खाद्य-आत्मनिर्भर हो गया. देश में हरितक्रांति आयी, जिसमें मुख्यत: गेहूं और धान की खेती को प्रोत्साहान दिया गया. खेती करने के तरीकों के साथ-साथ, उन्नत बीज और रासायनिक खाद्य के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया गया. भारत सरकार ने धान और गेहूं की न्यूनतम सीमा निर्धारित की. इससे यह स्पष्ट हो गया था कि भारत सरकार इन फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को हर संभव सहायता प्रदान कर रही है.

हमारे भावी दूरदर्शी योजनाकारों एवं नेताओं ने जिस तरह देश को खाद्य-आत्मनिर्भर बनाने का सपना देखा था, उसे कठिन प्रयास से प्राप्त किया गया. पर उन्होंने ऐसा नहीं सोचा था कि धान और गेहूं कि खेती को प्रोत्साहन देने से देश को पोषण सुरक्षित नहीं किया जा सकता. इस योजना की सबसे बड़ी कमी यह थी कि यह देश के सारे राज्यों के लिए पूरी तरह लागू नहीं होता है. हमारे देश के दक्षिणी राज्यों (केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र-प्रदेश) में गेहूं की खेती नहीं की जाती है. इन राज्यों में मुखत: धान की खेती की जाती है, तो क्या हरितक्रांति केवल उत्तर भारत के लिए ही था. हरित क्रांति में कई नये कृषि यंत्रों का खोज हुआ जो धान और गेहूं की खेती को आसान बनाता है.

धान और गेहूं की खेती को प्रोत्साहन करने के साथ-साथ कई फसलों का उपेक्षा भी हुई. इन फसलों में है मडुवा, गोंदली, तीसी और कई दलहन एवं तेलहन फसलें. जिससे की इन फसलों के उत्पादन और क्षेत्रफल में भारी गिरावट आयी. देश के कई क्षेत्रों में तो ये फसलें विलुप्त हो गयीं.

मडुवा और गोंदली जिसका उत्पादन झारखंड में बड़े पैमाने पर होता था, आज इसके क्षेत्रफल में भारी गिरावट आयी है और यह प्रत्येक वर्ष कम होते जा रहा है. रांची जिले के आदिवासी किसानों का कहना है कि आज से पंद्रह साल पहले किसान के घर में आने वाली पहली फसल गोंदली होती थी और जबतक धान नहीं कटता था (लगभग दो महीने बाद) तब तक लोग गोंदली खाते थे. धान का उत्पादन इतना कम होता था कि यह आठ से दस माह ही चल पता था और गेहूं की खेती बहुत ही कम होती थी. लोग मडुए के आंटे की रोटी खाते थे. उन्नत नस्ल के धान बीज के आने के बाद इसका उत्पादन बढ़ा और लोग धीरे-धीरे मडुवा और गोंदली की खेती कम करने लगे. आज लोगों के भोजन में मुख्य रूप से चावल, मडुवा और गेहूं है.

मडुवा और गोंदली मोटे अनाजों की श्रेणी में आता है और यह बहुत पौष्टिक होता है. मडुवा में कैल्सियम, रेशा, लौह तत्व, अमिनो एसिड और कई पौष्टिक तत्व प्रचूर मात्र में उपलब्ध है. मडुवा में अन्य किसी फसल की अपेक्षा कैल्सियम ज्यादा होता है, जो की हड्डी को मजबूत बनात है. वहीं लौह तत्व शरीर में खून बनाने में मदद करता है और रेशा मुख्य रूप से कब्ज की समस्या दूर करता है.

आज भारत सरकार ने देश के पोषण सुरक्षा को पूरा करने के लिए दो मुख्य कार्यक्र म शुरू किया है. पहला योजना एआइसीएसएमआइपी (ऑल इंडिया को-आर्डिनेट स्मॉल मिलेट इम्प्रोवेमेंट प्रोजेक्ट) जिसका मुख्य उदेश्य पूरे भारत में छोटे अनाजों के उत्पादन बढ़ाने के लिए है. दूसरा कार्यक्रम आइएनएसआइएमपी (इनिसिएिटव फॉर न्यूट्रिशनल सिक्यूरिटी थ्रू इंटेसिव मिलेट प्रमोशन) है. इसका मुख्य उद्देश्य भारत में कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए छोटे अनाजों के उत्पादन एवं उपयोग को बढ़ाना है.

अगर हम सरकार की तत्काल योजना पर ध्यान दें तो हमें पता चलता है कि सरकार कुपोषण की समस्या से लड़ने के लिए छोटे अनाजों का उत्पादन बढ़ाना चाहती है. यहां पर अंगरेजी की एक सटीक कहावत है ‘‘गोइंग बैक टू ऑरिजनल’’. इसका मतलब होता है पुरानी परंपराओं को वापस अपनाना. परंतु सरकार एवं दूरदर्शी योजनकारों को यह समझने में साठ से भी ज्यादा साल लगे और इससे भारत देश के किसानों को एक सीख लेनी चाहिए कि बदलते परिवेश में अपने पूर्वजों के की कार्यप्रणाली एवं अभ्यासों का बिना अच्छे तरीके से विचार किये उसका तिरस्कार नहीं करें.

छोटे अनाजों का उत्पादन फिर से बढ़ाना सरकार एवं सहयोगी संस्थाओं के लिए काफी कठिन होगा. परंतु यह असंभव नहीं है और हम फिर से स्वस्थ भारत का निर्माण कर सकते हैं.

(लेखक एक गैर सरकारी संस्था धान फाउंडेशन के द्वारा चलाये जा रहे ‘‘छोटे अनाजों के पुनर्जीवित करने का प्रयास’’ प्रोजेक्ट में अनुसंधान संयोजक हैं.)

पशुपतिनाथ पांडे

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