'राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता की बात करने वाले पहले ये तो बताएँ कि इस बाबत वैकल्पिक एजेंडा क्या है?'
ये सवाल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पूछा है और उनका निशाना कांग्रेस की तरफ़ है.
इससे यह भी ज़ाहिर हो रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र विपक्षी मोर्चेबंदी में नीतीश ने अपनी टांग अड़ा दी है.
साथ ही दिलचस्प ये भी है कि ख़ुद को प्रधानमंत्री पद का विपक्षी प्रत्याशी नहीं बताने वाला बयान दोहराना वह कभी नहीं भूलते.
नीतीश कुमार को पता है कि किसी संभावित विपक्षी महागठबंधन की स्थिति में नेतृत्व की दावेदारी कांग्रेस नहीं छोड़ेगी.

नीतीश के संकेत
इसलिए अब उन्होंने संपूर्ण प्रतिपक्षी जमात को अपने बग़ावती रुख़ जैसे संकेत या संदेश देने शुरू कर दिए हैं.
नीतीश कुमार ने कहा है कि मौजूदा केंद्रीय सत्ता के मुक़ाबले कोई वैकल्पिक आर्थिक और सामाजिक एजेंडा या 'नैरेटिव' आम जनता के सामने रखना होगा.
क्या इसका मतलब ये हुआ कि विपक्षी पार्टियों के नेता इस पहली ज़रूरत को भी नहीं समझ रहे और केवल नीतीश ही इस बाबत चिंतित हैं?
इनका यह बयान तब आया है, जब इनके प्रति विपक्षी ख़ेमे में उदासीनता और कुछ कांग्रेसी नेताओं की सख़्त बयानी सामने आ चुकी है.

कांग्रेस को काबू करने का दांव?
चर्चा यह भी है कि बेनामी संपत्ति संबंधी मामलों के दबाव में जब लालू प्रसाद नरम पड़ गए, तब कांग्रेस को क़ाबू में रखने वाले तीर छोड़े गए.
नीतीश कुमार के तेवर अपने दोनों सत्ता-साझीदार दलों के प्रति तल्ख़ ज़रूर हुए हैं लेकिन यह तल्ख़ी एक हद से आगे न बढ़े, इसका भी ख़याल रखा जा रहा है.
दोनों पक्ष अपने प्रवक्ताओं से तूतू-मैंमैं कराते हुए भी यह दावा करते रहते हैं कि गठबंधन अटूट है.
इसे क्या कहें? बिहार में महागठबंधन सरकार के अच्छे दिन चल रहे हैं या बुरे दिन?
यहाँ राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस के साथ जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) की अंदरूनी खटपट सतह पर आने से नहीं बच पाई.
फिर भी ये तीनों दल अपने-अपने सत्तामूलक स्वार्थ के कारण एकजुटता का राग आलापने को विवश हैं.
जब तक स्वार्थ है, गठबंधन चलेगा
कुछ लोग इसे भले ही 'प्याली में तूफान' बताएँ, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हाल के अपने कुछ फ़ैसलों से आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को जो तगड़ा झटका दे चुके हैं, वो तो दरार की शक्ल में क़ायम हो ही चुका है.
बावजूद इसके, राज्य में महागठबंधन सरकार तबतक बनी रहेगी, जबतक इसके तीनों घटक दलों का परस्पर स्वार्थ जुड़ा रहेगा.
यही कारण है कि नोटबंदी से लेकर राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी तक राजद और कांग्रेस के बिलकुल विपरीत रुख़ अपनाने वाले नीतीश कुमार इन दोनों दलों के लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त नहीं हैं.
ख़ुद नीतीश ही किसी चौंकाने वाली रणनीति के तहत रिश्ता तोड़ लें तो बात दूसरी है.

बीजेपी फायदा उठाना चाहेगी, देना नहीं
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में वापसी का भय दिखा कर विपक्षी जमात का नेतृत्व हथियाना नीतीश कुमार के लिए संभव हो सकेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता.
कारण है कि विपक्षी दलों में भी इनकी विश्वसनीयता घटी है और बीजेपी अब इनसे फ़ायदा तो उठाना चाहेगी लेकिन इन्हें फ़ायदा पहुँचाना क़तई गँवारा नहीं करेगी.
लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला कर सत्ता हासिल करना और यह भी दावा करना कि हमारे हाथ मैले नहीं, बेदाग हैं, यह कैसे चलेगा?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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