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ऐश्वर्या ठाकुरआर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर रोज हजारों आंखों में तैरती उम्मीदों, पसीने से तर मजदूरों, थके-हारे मुसाफिरों और रुआंसी रुख्सती की गवाही देता रेलवे अपनी कहानी में नये अध्यायों के कोच जोड़ता चला जाता है. सफर जारी रहता है.रेलगाड़ी में तय किये सफर पर तो कितने ही साहित्यकारों ने ‘सफरनामा’ लिखा है, मगर रेलवे स्टेशनों और […]

ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर

रोज हजारों आंखों में तैरती उम्मीदों, पसीने से तर मजदूरों, थके-हारे मुसाफिरों और रुआंसी रुख्सती की गवाही देता रेलवे अपनी कहानी में नये अध्यायों के कोच जोड़ता चला जाता है. सफर जारी रहता है.रेलगाड़ी में तय किये सफर पर तो कितने ही साहित्यकारों ने ‘सफरनामा’ लिखा है, मगर रेलवे स्टेशनों और रेलवे के कामगारों की रगों में धड़कती-दौड़ती रेल की आवाज अपने आप में ही रेलवे की जिंदगी का एक मुकम्मल बयान होती है. बड़ोग का छोटा-सा पहाड़ी रेलवे स्टेशन हो या रतलाम का लंबा-चौड़ा स्टेशन, 19वीं सदी के शुरू में बना कालका स्टेशन हो या ऐतिहासिक मुंबई सेंट्रल स्टेशन, हर मुसाफिर को इन स्टेशनों पर एक वाकफियत महसूस होती है.
अमृतसर से शिमला और शिरडी से हावड़ा तक के रेलवे स्टेशनों में ब्रितानी वास्तुकला के साथ-साथ महराबें, लाल ईंट वाली दीवारें और वेटिंग रूम में लगे जाली के दरवाजों जैसे अंश आज तक गुजरे हुए जमाने की यादगार की तरह मौजूद हैं.
मस्ती में सीटी बजाता और धुआं उड़ाता हुआ इंजन आकर जब प्लेटफाॅर्म पर रुकता है, तो स्टेशन के अंदर-बाहर एक रौनक आ जाती है. खामोश सुबहों में स्टेशन पर गूंजती इंजन की सीटी और अनाउंसमेंट की तेज आवाज नींद में ऊंघते गली-कस्बों तक को जगा आती है, वहीं पार्सल और डाक के दस्ते गाड़ी में चढ़ाने को मुस्तैद मजदूर अपनी ऊर्जा से रेलवे स्टेशन को जीवंत बना देते हैं.
हर ट्रेन के आने से पहले और छूटने के बाद स्टेशनों की चहल-पहल से बेखबर कोई फकीर एक कोने में दुबका रहता है, तो कई स्थानीय बिना किसी ट्रेन के इंतजार में स्टेशन पर बैठे मिलते हैं.
स्टेशन के पास ही बसाये जाते हैं लाल ईंट वाले डिबियानुमा रेलवे-क्वाॅर्टर, जिनके धूप वाले आंगनों में सूखते कपड़े और कच्ची मिट्टी में लगे सदाबहार फूल, रेलवे के मैकेनिकल माहौल की एकरसता को तोड़ते हैं. रेलवे कॉलोनियों के पास ही अंग्रेजों ने बनाने शुरू किये थे गिरिजाघर और जिमखाना क्लब, जिनमें आज भी रेलवे के आला अफसरों की शामें चाय-कॉफी पीते हुए बीतती हैं.
शाम ढलते हुए दूर किसी सुनसान फाटक पर रेल की राह देखते हुए लालटेन की लौ को कम-ज्यादा करता है गेटमैन, तो कहीं ट्रैक पर गिट्टी ठीक से बिछा कर हरा रूमाल दिखाते हुए रेल को आगे बढ़ने का सिग्नल देते हैं खलासी. कहीं 140 डिग्री पर तपते इंजन की भट्ठी में कोयला झोंकते हुए गुनगुनाते हैं फायरमैन, तो कहीं वर्दी पर लगे लोको-पायलट के बैज को देखकर ही मुत्मईन रहते हैं रेलवे-ड्राइवर.
प्लेटफाॅर्म पर चाय बेचनेवाला लड़का गुजरती ट्रेन के मुसाफिरों को देखकर हिलाता है हाथ और लगाता है आवाजें, वहीं चुस्त यूनिफाॅर्म में प्लेटफाॅर्म पर सीट-चार्ट से सवारियों का मिलान करता हुआ दिख जाता है टिकट चेकर. टीन की छतों वाले रेलवे वर्कशॉप से निकलनेवाले वर्कर-यूनियन के कामगार लिख जाते हैं कंपाउंड वॉल पर हड़ताली नारे, जो नैरो-गेज पर सरकती अपनी जिंदगी को ब्रॉड-गेज पर धकेलने के लिए होती है एक इंकलाबी कोशिश.
ढर्रे पर दौड़ती रेलवे के सामने महंगाई, निजीकरण, हादसों और खस्ताहाली जैसी रुकावटें तो हैं, मगर अनथक चलते रहना ही रेलवे का सार है, जिसे रेलवे कर्मचारी भी अपनी जिंदगी में आत्मसात कर लेते हैं. रोज हजारों आंखों में तैरती उम्मीदों, पसीने से तर मजदूरों, थके-हारे मुसाफिरों और रुआंसी रुख्सती की गवाही देता रेलवे अपनी कहानी में नये अध्यायों के कोच जोड़ता चला जाता है. सफर जारी रहता है.

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