2014 कांग्रेस के लिए बस एक पड़ाव
2014 के चुनाव को राहुल गांधी के लंबी राजनीतिक लड़ाई के पड़ाव के तौर पर देखा जाना चाहिए. जो लोग यदा-कदा राहुल का उदाहरण देते हुए कांग्रेस को समाप्त करने या होने की बात करते हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका बनी रहेगी, और राहुल उसके अहम किरदार होंगे. इस सीरीज में अब तक आपने पढ़ा जयललिता, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार के बारे में. आज पढ़ें राहुल गांधी की संभावनाओं के बारे में..
डॉ अश्विनी कुमार
(दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के अध्यापक रहे प्रोफेसर अश्विनी कुमार वर्तमान में टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट, स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के निदेशक हैं. ओकलाहोमा से राजनीति शास्त्र में पीएचडी करने वाले कुमार को अपने कार्य के लिए कई अवार्ड से सम्मानित किया गया है.)
एक राजनीति शास्त्री होने के नाते अगर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की राजनीति पर नजर डाली जाये, तो उनके नेतृत्व को न तो पार्टी के अंदर कोई चुनौती है और न ही राहुल के सिवा कांग्रेस के पास कोई विकल्प है. इस लिहाज से देखें तो भले ही कांग्रेस ने किसी भी नेता को 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए औपचारिक उम्मीदवार नहीं बनाया हो, लेकिन स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस की तरफ से उम्मीदवार राहुल गांधी ही हैं. राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस न सिर्फ नेतृत्व परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ा रही है, बल्कि एक पूरी पीढ़ी उनके साथ उभर कर सामने आ रही है. ऐसे में राहुल गांधी न सिर्फ प्रधानमंत्री (यदि कांग्रेस सत्ता में आती है) के रूप में बड़ी भूमिका में होंगे, बल्कि पार्टी के अंदर भी उनकी बढ़ती हुई भूमिका को राजनीतिक जानकार शिद्दत से महसूस कर रहे हैं.
कांग्रेस के सामने स्वाभाविक विकल्प भी राहुल हैं, और कांग्रेस की राजनीति और राहुल की राजनीति एक दूसरे की विरोधाभाषी नहीं, बल्कि पूरक है. हां, यह बात हो सकती है कि नरेंद्र मोदी जिस तरह से विकास को परिभाषित करते हैं, राहुल ने विकास को उस तरह से परिभाषित नहीं किया है. यूपीए सरकार में भले ही वे किसी बड़ी भूमिका में न दिखे हों, लेकिन पिछले 10 वर्षों से वे लगातार कांग्रेस को लोकतांत्रिक परिवर्तन की राह पर ले जाने के काम में लगे हुए हैं. राहुल के लिए विकास की राजनीति सिर्फ ग्रोथ से जुड़ी हुई नहीं है, बल्कि वे आर्थिक विकास के स्थापित मानकों के अंदर समाज कल्याण को बड़े मुद्दे के रूप में हमेशा से रखते आये हैं. मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार के साथ ही अन्य आम-आदमी से जुड़ी जन कल्याणोमुखी नीतियों को हमेशा उन्होंने तवज्जो दी है.
साथ ही उनकी राजनीति के केंद्र में यही सारे विंदु प्रमुख होंगे. लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में राहुल के समक्ष चुनौतियां भी यहीं से शुरू होती हैं कि आखिर वे कैसी समाज कल्याणकारी नीतियों को साथ लेकर आगे बढ़ते हुए विकास दर को आगे बढ़ाते हैं.
राहुल गांधी के सामने महत्वपूर्ण चुनौती गंठबंधन की राजनीति का अनुभव का न होना है. राहुल पार्टी के अंदर हमेशा से आम सहमति के आधार पर राजनीति करते आएं हैं, इसी को केंद्र में रख कर जनता के मुद्दों को आगे बढ़ाते आये हैं. वे बेहतर नीतियों के निर्माण और निर्धारण के जरिये जनता की की लड़ाई लड़ने में विश्वास करते हैं. लेकिन एक अर्थ में इसका लाभ भी है, ठीक उसी तरह जिस तरह से अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से पहले राष्ट्रपति ओबामा को किसी भी प्रांत के गवर्नर के रूप में काम करने का कोई अनुभव नहीं था. इस लिहाज से हम राहुल की राजनीति को अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की राजनीति के करीब पाते हैं. लेकिन इस तरह के अनुभव की कमी का खतरा भी है, मसलन सरकार में आने पर विभिन्न मंत्रलयों की परस्पर तनातनी से उलझने का खतरा. ऐसे में तथाकथित ‘पॉलिसी पारालिसिस’ की तरफ बढ़ने का खतरा हो सकता है, जैसा कि कथित तौर पर यूपीए सरकार के पिछले कुछ वर्षो के कार्यकाल पर विपक्षी दलों द्वारा आरोप लगाया जाता रहा है. कांग्रेस के अंदर राहुल या यूं क हें कि राहुल गांधी की राजनीति की प्रमुख चुनौती यह है कि नीतियों के जरिये भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ना चाहते हैं, वहीं ‘आप’ नेता नीतियों के बजाय जनता को अपनी राजनीति का केंद्र बना कर भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ना चाहते हैं. राहुल पारदर्शिता, जवाबदेही और भ्रष्टाचार निवारण के लिए विभिन्न तरह के कानून और बिल को पास करा कर जनता को उनका अधिकार देने में विश्वास रखते हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन यहीं वह यह भूल जाते हैं कि सिर्फ कानून बना कर भ्रष्टाचार का सामना नहीं किया जा सकता. भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी को अपनी लड़ाई में साथ जोड़ कर आगे बढ़ने की चुनौती उनके समक्ष मुंह बाये खड़ी दिखती है, और इसी पैमाने पर केजरीवाल उनकी राजनीति को पीछे छोड़ते हुए आम जनता के साथ खड़ा होकर उनके दिनों दिन के संघर्ष का हमकदम बनते हुए बाजी मारते हुए प्रतीत हो रहे हैं.
हालांकि राहुल गांधी द्वारा पिछले कुछेक माह में लिये गये निर्णयों मसलन प्रत्याशी के चयन में कुछेक सीटों पर जनता की राय को तवज्जो देने (प्राइमरी सीट) और विभिन्न सामाजिक समूहों पर फोकस करते हुए सर्वहारा लोगों को साथ जोड़ने के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए. उनके द्वारा लिया गया पहला निर्णय स्थापित राजनीति के मानदंड को बदलते हुए नये लोगों को राजनीति में आने का मौका देगा, वहीं विभिन्न सामाजिक समूहों पर फोकस किये जाने जैसे कि कुलियों के साथ बातचीत, महिलाओं, बुनकरों, एवं अन्य सर्वहारा लोगों के बीच जाकर उनकी बात सुनने के प्रयास के जरिये राहुल गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों और मध्यम वर्ग के दायरे से बाहर रह रहे 75 करोड़ लोगों(एक अनुमान के मुताबिक) के साथ मैनेजमेंट के स्टाइल में जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन इन तौर-तरीकों को जबतक जनव्यापी,लोकव्यापी, राजनीति का स्वरूप नहीं देते,
अब अगर 2014 के आम चुनाव के मद्देनजर राहुल और उनके दल की दावेदारी के मद्देनजर बात की जाये तो राहुल गांधी राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं, (केजरीवाल की लड़ाई भी ऐसी ही है) जबकि भाजपा एवं अन्य दल चुनावी लड़ाई (एलेक्टोरल बैटल) को सत्ता की लड़ाई, शासन की लड़ाई मान कर लड़ रहे हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी हों या ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल ये दोनों लंबी राजनीतिक लड़ाई के प्रतीक हैं, और 2014 के चुनाव को राहुल गांधी के लंबी राजनीतिक लड़ाई के पड़ाव के तौर पर देखा जाना चाहिए. जो लोग यदा-कदा गांधी का उदाहरण देते हुए कांग्रेस को समाप्त करने या होने की बात करते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि भविष्य की राजनीतिक लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका बनी रहेगी और राहुल गांधी उसके अहम किरदार होंगे. उनके समक्ष सड़क पर उतर कर लड़ाई लड़ने की चुनौती है. कांग्रेस की ऐतिहासिक विफलता ही कही जायेगी कि कांग्रेस अपनी पुरानी परंपरा से सीख न लेते हुए (गांधी से)