आरके नीरद
चुनाव आयोग के मुताबिक देश में इस वक्त 1851 राजनीतिक पार्टिंयां हैं. इनमें से केवलसात राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 58 क्षेत्रीय दल ही राजनीतिक तौर पर सक्रिय हैं और चुनाव लड़ रहे हैं. बाकी 1786 ऐसी रजिस्टर्ड पार्टिंयां हैं, जो चुनाव नहीं लड़ती हैं. उनकी कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं है और कुछ को छोड़ कर बाकी का तो अता-पता भी नहीं है. उनके विषय में न तो जनता काे पता है, न आयोग के पास उनकी कोई ताजा जानकारी है. इनमें से कई पार्टिंयां तो आयकर रिटर्न भी दाखिल नहीं करती हैं. अब चुनाव आयोग ने ऐसी करीब 200 राजनीतिक पार्टियों की सूची बनायी है, जो 2005 से चुनाव ही नहीं लड़ रही हैं. केवल दस्तावेजों तक सीमित हैं. आयोग ने उनका पंजीयन खत्म करने का फैसला किया है.
सवाल है कि आखिर ऐसी राजनीतिक पार्टिंयां बनती ही क्यों हैं, जब उन्हें चुनाव ही नहीं लड़ना होता. चुनाव न लड़ने वाली इन पार्टियों के विषय में इलेक्शन कमीशन को आशंका है कि इनका गठन मनी लॉन्डरिंग के लिए किया गया है या उनका इस्तेमाल इस रूप में किया जा रहा है. इसलिए आयोग ने 200 दलों की जो सूची बनायी है, उसे केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) को सौंपने जा रहा है. उन दलों की आर्थिक गतिविधियों का पता अब CBDT लगायेगा.
दरअसल, भारत की राजनीतिक और संसदीय व्यवस्था बहुदलीय है. लिहाजा लोकतांत्रिक जरूरतों को आधार मान कर छोटे और क्षेत्रीय दलों को बहुत आसानी से मान्यता मिल जाती है. यही वजह है कि देश में इस वक्त केवल सात राष्ट्रीय पार्टियां हैं, जबकि चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में 1851 दल हैं. कई तरह की जटिलताओं और उदासीनता का नतीजा है कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसी राजनीति पार्टिंयों का पंजीकरण बना रहता है, जो चुनाव में सक्रिय नहीं रहतीं. अक्तूबर 2005 में चुनाव आयोग ने 730 ऐसी पंजीकृत ‘अज्ञात’ पार्टियों की सूची जारी की थी.
देश के संसदीय घटनाक्रम पर नजर डालें, तो खंडित जनादेश, दलों में विखंडन और विघटन की प्रवृत्ति ने भी नये दलों के गठन की प्रथा में उभार लाया. खास कर 1990 के बाद से. राजनीतिक-वैचारिक मतभेद और महत्वाकांक्षा ने भी दलों की संख्या में इजाफा किया. सत्ता पर दावा बनाने के लिए नये दल या गंठबंधन बने. जैसे 2001 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में विपक्षी दलों का साझा मोर्चा बना ‘बंगला बचाओ मोरचा’. इसका नेतृत्व अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस ने किया था. उसी तरह महाराष्ट्र में ‘लोकतांत्रिक फ्रंट’ बना. हिमाचल प्रदेश में ‘हिम लोकतांत्रिक मोरचा’ और भाजपा के नेतृत्व में ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ बना. 1989-1991 में नेशनल फ्रंट बना और देश में इसने सरकार बनायी. वाम दलों ने वाम लोकतांत्रिक मोर्चा बनाया. इसी तर्ज पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, सिक्किम यूनाइटेड लोकतांत्रिक एलायंस और तेलंगाना राष्ट्र साधना मोरचा बना. ये खंडित जनादेश और समय की मांग से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण बने और एक समय या मकसद पूरा होने के बाद कई का विघटन हो गया. इस अलायंस की राजनीति ने भी छोटे दलों को सत्ता और राजनीति में छोटी-बड़ी भागीदारी पाने की गरज से पैदा होने का अवसर दिया, किंतु इनकी चुनाव में किसी-न-किसी रूप में हिस्सेदारी रही. संकट, संदेह और सवाल उन दलों ने पैदा किया है, जो चुनाव आयोग के पास रजिस्टर्ड तो होते हैं, किंतु चुनावी और संसदीय प्रक्रिया में शामिल नहीं होते. ऐसे दलों की मंशा और उनके वजूद को लेकर अक्सर सवाल उठाते रहे हैं.
यह जाहिर है कि कागज तक वजूद को सीमित रखने वाले राजनीतिक दल लोकतंत्र में भागीदारी के लिए नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ, राजनीतिक प्रपंच, भयादोहन और आर्थिक अपराध को कानूनी संरक्षण देने के लिए बनाये जाते हैं. चंदा उगाही और चंदे की आड़ में कालेधन को सफेद करने का खेल यहां व्यापक पैमाने पर होता है. राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये तक के चंदे का हिसाब नहीं देना होता. इस प्रावधान का लाभ ये दल उठाते हैं और करोड़ों की संपत्ति आसानी से जमा कर लेते हैं. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर किसी पार्टी के पास एक करोड़ रुपये पहुंचते हैं, तो वह 95 लाख रुपये को अज्ञात स्रोतों से प्राप्त चंदा बता कर राजनीतिक दलों को मिले विशेष कानूनी छूट का लाभ ले लेती है. मौजूदा कानून के मुताबिक राजनीतिक दलों को अपने इनकम टैक्स रिटर्न में केवल उसी रकम का स्रोत दिखाना है, जो 20 हजार रुपये से ऊपर की हो. इस बात की गंभीरता को स्वीकारते हुए 2004 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा था और यह सिफारिश की थी कि राजनीतिक दलों को सभी तरह के चंदादाताओं का रिकॉर्ड चुनाव आयोग को देने के लिए बाध्य किया जाये. चंदे की यह रकम 20 हजार रुपए से कम या ज्यादा, लेकिन उनकी इस सिफारिश पर अब तक अमल नहीं हुआ है. लिहाजा चुनाव आयोग की यह चिंता अब तक बनी हुई है कि कागज तक सीमित राजनीतिक दल मनी लॉन्डरिंग में लगे हैं.
ऐसे राजनीतिक दलों की आड़ में जनता, कारोबारी, औद्योगिक संस्थानों और अफसरों का भयादोहन भी खूब होता है. इनमें से कई दल ऐसे भी हैं, जो चुनाव लड़ते तो नहीं हैं, लेकिन चुनाव के वक्त ये दूसरे दलों को नुकसान पहुंचाने, उनसे सौदेबाजी करने और चंदा वसूलने के लिए सक्रिय हो जाते हैं. किसी प्रतिष्ठित दल के उम्मीदवार के नाम से मिलते-जुलते नामवाले उम्मीदवार से नामांकन कराने और सौदेबाजी कर नाम वापस कराने का खेल खूब होता है.
बहरहाल, चुनाव आयोग की यह ताजा कार्रवाई कालेधन को सफेद करने जैसे आर्थिक के लिए राजनीतिक दल बनाने की प्रवृत्ति को रोकने की दिशा में बड़ा कदम है.