जनलोकपाल के सवाल पर इस्तीफा देने का फैसला एक तरह से अरविंद केजरीवाल का मास्टर स्ट्रोक है. बड़ा राजनीतिक जुआ है. सोची समझी रणनीति का हिस्सा है, जिसमें कामयाबी की संभावना ज्यादा है. उन्होंने भाजपा, कांग्रेस जैसी जमी जमायी पार्टियों को उनके मैदान से खेलने को मजबूर किया है.
दिल्ली के चुनावी नतीजे आने के बाद से ही केजरीवाल यह बार-बार दोहराते रहे हैं कि उनके पास सरकार बनाने के आंकड़े नहीं हैं. इसी तरह 32 सीटें पाने के बाद भी भाजपा ने कहा कि उनके पास भी सरकार बनाने के आंकड़े नहीं. ऐसे में केजरीवाल ने कांग्रेस अध्यक्ष और भाजपा अध्यक्ष दोनों को पत्र लिख कर 18 मुद्दों पर समर्थन मांगा. कांग्रेस ने समर्थन देकर सरकार बनवायी. लेकिन इन दोनों दलों को पता था कि केजरीवाल के लिए जनलोकपाल बड़ा मुद्दा है.
जब उन्होंने दिल्ली की विधानसभा में जनलोकपाल बिल रखना चाहा तो इस राजनीति में दोनों दल फंस गये. अगर जनलोकपाल पास होता तो केजरीवाल इसे अपनी बड़ी जीत के रूप में दिखाते. यदि भाजपा और कांग्रेस उन्हें समर्थन देती, तो उन्हें संसद में पारित किये गये लोकपाल के मजबूती या कमजोरी को लेकर सवालों के दायरे में खड़ा होना पड़ता. केजरीवाल के लोकपाल के विरोध करने का मतलब था यह आरोप कि वे भ्रष्टाचार से लड़ना नहीं चाहते.
केजरीवाल के इस दावं के तहत भाजपा-कांग्रेस को न उगलते बन रहा था, न निगलते. केजरीवाल को भी अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत सरकार में बदलने के लिए एक अवसर की तलाश थी. वे सम्मानजनक तरीके से वापस निकलना चाहते थे, साथ ही, भाजपा व कांग्रेस को एक्सपोज करना चाहते थे. केजरीवाल ने भांप लिया था कि विधानसभा में कांग्रेस व भाजपा को इसी मुद्दे पर एक मंच पर खड़ा किया जा सकता था, और यह दिखाया जा सकता था कि ये दोनों एक साथ हैं और इनका विकल्प आम आदमी पार्टी है.
इसके लिए उन्होंने तैयारी भी की थी और सोची समझी रणनीति के तहत मुकेश अंबानी के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराया, शीला दीक्षित के खिलाफ एफआइआर हुआ. इस तरह से देखा जाये तो उन्होंने बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया है और सोच समझ कर लिया है. लेकिन उनके इस कैलकुलेटिव जोखिम को जनता किस तरह से लेती है, इसका पता आगामी लोकसभा चुनाव और आगे होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में ही चल पायेगा.
।। आनंद प्रधान ।।
(राजनीतिक विश्लेषक)