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या तो शासन दो या सत्ता छोड़ो!

-हरिवंश- फिर दिल्ली में सीरियल विस्फोट ! 26 लोगों की मौत. 110 घायल. प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और अफसरानों के वही घिसे-पिटे बयान, पोज और रुख. ये बयान, दिखावटी सांत्वना और घड़ियाली आंसू, लोक आक्रोश की आग में घी का काम कर रहे हैं. यह राजनीति, जिसके तहत उग्रवाद या आतंकवाद फल-फूल और बढ़ […]

-हरिवंश-

फिर दिल्ली में सीरियल विस्फोट ! 26 लोगों की मौत. 110 घायल. प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और अफसरानों के वही घिसे-पिटे बयान, पोज और रुख. ये बयान, दिखावटी सांत्वना और घड़ियाली आंसू, लोक आक्रोश की आग में घी का काम कर रहे हैं. यह राजनीति, जिसके तहत उग्रवाद या आतंकवाद फल-फूल और बढ़ रहा है, किसकी देन है? इन्हीं राजनीतिक दलों या नेताओं की न? पर इसकी कीमत कौन चुका रहा है? निरीह और गरीब जनता. बेजुबान नागरिक. क्या बड़े नेताओं या शासकों के घर के लोग या उनके स्वजन या उनके पारिवारिक सदस्य, आतंकवादियों के इन हमलों में मर रहे हैं?

बल्कि स्थिति उलटी है. जनता के टैक्स से नेताओं का सुरक्षा घेरा ब़ढ रहा है. इन शासकों की सुरक्षा पर अरबों-अरब खर्च हो रहा है, पर मारी जा रही है, निर्दोष जनता. गरीब से गरीब आदमी भी नमक से लेकर हर चीज पर टैक्स दे रहा है, क्या इन नेताओं की चौकीदारी और सुरक्षा के लिए? जो जनता अपना पेट काट कर नमक, तेल, गैस से लेकर हर चीज पर टैक्स दे रही है, वही मारी भी जा रही है?

राज (स्टेट) या राष्ट्र (नेशन) की स्थापना या नींव के मूल में है, जनता की सुरक्षा. फर्ज कीजिए कल कोई जनांदोलन खड़ा हो, और जनता कहे कि ‘स्टेट’ (राज्य व्यवस्था) हमारी सुरक्षा में विफल है, हम हर तरह का कर बंद कर देंगे, राज्य व्यवस्था को कोई कर नहीं देंगे, तो क्या यह गलत होगा? इतिहास में ऐसे प्रसंग मिलते हैं. एक सामान्य नागरिक के बच्चे को फ्रांस की सड़क पर शासक वर्गों की गाड़ी ने कुचला था और फ्रांस में इस लहू से भींगी सड़क से पुकार उठा था, शासक तंत्र खत्म हो?

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में ऐसा स्वर उभरा था. पर दूसरे संदर्भ में? जो शासक, सत्ता में रहने पर नये बादशाह, राजा- महाराजा या हुक्मरान बन गये हैं, अगर वे अच्छा शासन, सुरक्षित माहौल और बेहतर व्यवस्था नहीं दे सकते, तो उन्हें सत्ता में क्यों रहना चाहिए? लोकतंत्र के इन इनकांपीटेट (अक्षम) जागीरदारों और हुक्मरानों के खिलाफ जन आक्रोश बढ़ रहा है. सत्ता में रहने या पावर में होने का लाभ उठा रहे हैं, ये शासक.

खुद सुरक्षा में रहते हैं, और वह व उनके परिवार अरबों के मालिक भी बन जाते हैं, (कम से कम पहले के नेता त्यागी और ईमानदार तो थे) और जनता को मौत की सौगात देते हैं. अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया में भी लोकतंत्र ही है. क्या वहां 9/11 के बाद दूसरा 9/11 हुआ? ब्रिटेन में क्यों बार-बार विस्फोट नहीं होते? क्यों ऑस्ट्रेलिया में आतंकवादी दोबारा साहस नहीं कर पाते? क्यों भारत ही ‘सॉफ्ट टारगेट’ बना है? क्यों यहीं बार-बार सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं? दिल्ली देश की राजधानी है. भारत संघ की नाक. कितनी बार यह नाक कटेगी? कितने हमले होंगे दिल्ली में? क्या प्रधानमंत्री या गृह मंत्री बतायेंगे?

केंद्र सरकार बतायेगी? संसद अपनी जवाबदेही के तहत कुछ बोलेगी? क्या केंद्र सरकार की आत्मा निर्जीव हो गयी है या पथरा गयी है? क्यों नहीं आतंकवादियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए? उन्हें क्यों इस देश की न्याय प्रणाली की कमजोरियों का लाभ मिलना चाहिए? आतंकवाद से डील करने के लिए क्यों नहीं अलग कानून बनना चाहिए?

आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान को आतंकवादियों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की अनुमति क्यों केंद्र नहीं दे रहा? गुजरात और उत्तर प्रदेश के ऐसे विधेयक बरसों से दिल्ली में अटके हैं? और गृह मंत्री हर विस्फोट के बाद कैसा बयान देते हैं? हमारे पास सूचना है, पर मेरे लिए अभी यह खुलासा करना ठीक नहीं है. इस समय किसी पर दोषारोपण या किसी संगठन पर तोहमत लगाना ठीक नहीं है. क्या ऐसे बयानों से निर्दोष जनता की बलि रुकेगी? दिल्ली विस्फोटों के बाद भी ऐसा ही बयान आयेगा.दिल्ली के इन सीरियल विस्फोटों के पहले की ऐसी घटनाएं याद करिए.
25 जुलाई को बेंगलुरु में बम विस्फोट हुए. नये युग की भाषा में कहें, तो ‘कारपेट बामबिंग.’ इस विस्फोट के बाद भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री का यह बयान आया. धमाके राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही का नतीजा है. इसके अगले दिन गुजरात में श्रृंखलाबद्ध विस्फोट हुए. पुन: गृह राज्यमंत्री का ऐसा ही बयान आया. भारत के गृह मंत्री ने क्या फरमाया, हां! अहम सुराग मिले हैं. कार्रवाई होगी. प्रधानमंत्री ने जनता से निवेदन किया. शांति और धैर्य बनाये रखें.
ये हमारे सबसे ताकतवर शासकों के बयान हैं. जनता की भाषा में ये हमारे रक्षक हैं. इन बयानों से तिथि और जगह हटा दें, फिर हाल में हुए बड़े विस्फोटों की घटनाओं पर गौर करें. पिछले तीन वर्षों में 12 बड़े विस्फोट हो चुके हैं. जुलाई 2005 में अयोध्या. अक्तूबर 2005 में दिल्ली. अक्तूबर 2005 में ही बेंगलुरु. दिसंबर 2005 में वाराणसी. फिर मुंबई ट्रेनों में. 2007 मई में हैदराबाद. मार्च ’08 में जयपुर. इन सभी जगहों पर बड़े विस्फोट हुए. लोग मारे गये. पर हर विस्फोट के बाद हमारे रक्षकों के बयान उठा कर पढ़ लीजिए. एक ही तरह के. लगभग भाषा वही. भाव वही. अंदाज वही. लगता है गद्दी पर बैठे लोग यह भूल गये हैं कि उनकी कोई जिम्मेवारी है? गद्दी पर बैठा कर जनता ने उन्हें इन विस्फोटों को रोकने का काम सौंपा है, यह मामूली सच सत्ता सुख भोग रहे इन नेताओं को याद नहीं है.
पर क्या आपको (जनता/पाठक) याद है कि इन बड़े विस्फोटों में कोई बड़ी गिरफ्तारी हुई? किसी को सजा मिली? कोई बड़ा रहस्य पता चला?सच तो यह है कि छिटपुट गिरफ्तारियां हुईं. गुजरात और राजस्थान की पुलिस ने तुरंत आतंकवादियों तक पहुंचने में कामयाबी पायी, पर अन्य जगहों पर ऐसा नहीं हुआ. और इसके लिए दोषी जनता है. क्या जनता के बीच से आवाज उठती है कि कैसे अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया वगैरह में एक ऐसी घटना के बाद दूसरी नहीं होती, पर हमारे यहां विस्फोट, हत्याएं और आतंक, जीवन के हिस्से बनते जा रहे हैं. लगातार. सिलसिलेवार और बारंबार. क्यों गुजरात और राजस्थान की पुलिस आतंकवादियों तक तुरंत पहुंच जाती है, और अन्य जगहों पर दशकों बाद भी पता नहीं चलता कि दोषी कौन है?

यह स्थिति क्यों है?क्योंकि हमारी व्यवस्था अक्षम (इनकांपिटेंट) हो गयी है. यह कहना सच होगा कि मर गयी है. और इस व्यवस्था को मरणासन्न, बीमार, लाचार और अकर्मण्य बना देने के लिए भी जिम्मेवार जनता है? अंगरेजी में कहावत भी है वी गेट, वाट वी डिजर्व? हम जैसे हैं, शासक भी वैसे ही होंगे. व्यवस्था भी वैसी होगी.
कर्नाटक और गुजरात के लगातार विस्फोटों के बाद (जुलाई ’08) देशव्यापी बहस हुई. दिल्ली विस्फोटों के बाद भी बहस चलेगी. मीडिया में भी. पर कहीं भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य पर एक लाइन की चर्चा नहीं हुई.
वह तथ्य क्या है?मध्य मई ’08 में जयपुर में बम विस्फोट हुए. 17 मई को यह महत्वपूर्ण खबर हर जगह छपी. अत्यंत प्रमुखता से. टाइम्स ऑफ इंडिया में लीड खबर थी कि 16 मई को भारत की कैबिनेट को ब्रीफ करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने निराशाजनक स्थिति बतायी. वह जयपुर में हुए बम विस्फोटों के संदर्भ में कैबिनेट को ब्रीफ कर रहे थे. उन्होंने साफ-साफ कहा कि सरकार की सुरक्षा एजेंसियों के पास न सूचना थी, न संकेत था कि भारत के गुलाबी शहर पर आतंकवादी हमला करेंगे. बाद में जो खबरें छपीं, उनके आधार पर जांच शुरू हुई. खबरों से सुरक्षा एजेंसियों को सुराग मिला.
अखबारों ने भारत के सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन को ‘इंटेलिजेंस जार’ कहा है. वह मंजे और जानकार हैं. उन्होंने कहा, नौकरशाही की लापरवाही, एकाउंटबिलिटी की संस्कृति का न होना, राज्यों और केंद्र में को-आर्डिनेशन न होना, पुअर इंटेलिजेंस (भ्रामक व सतही सूचनाएं), समर्पित अफसरों का अभाव वगैरह से भारत आतंकवाद के खिलाफ लड़ नहीं पा रहा. क्या प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार इस विफलता का दायित्व लेंगे? एमके नारायणन की स्वीकारोक्ति अभूतपूर्व है. देश को शुक्रगुजार होना चाहिए कि नारायणन जैसे अफसर आज भी हैं और वे सच बोलते हैं. आजादी के 60 वर्षों में कैबिनेट के सामने, इसके पहले किसी ऐसे जिम्मेवार व्यक्ति ने ऐसी दो टूक बातें नहीं की.

या ऐसा अवसर नहीं आया. पर क्या हुआ इस महत्वपूर्ण बयान के बाद भी?एमके नारायणन का ऋणी रहेगा यह देश? उनके बयान ने स्पष्ट कर दिया कि केंद्र सरकार की काबिलियत क्या है? सरकार के मंत्रियों की क्षमता और योग्यता क्या है? दुनिया का दूसरा लोकतांत्रिक देश होता, तो सिर्फ इस एक बयान से जागरूक जनता इनकांपीटेंट शासकों के खिलाफ मैदान में होती. याद करिए एनएन बोरा कमेटी की रिपोर्ट. मुंबई ब्लास्ट के दौरान बोरा जी भारत सरकार के गृह सचिव थे. फिलहाल जम्मू-कश्मीर के गवर्नर हैं. मुंबई ब्लास्ट के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने यह कमिटी बनवायी.

कमिटी की रिपोर्ट भगवान जाने, कहां है? तब चर्चा हुई थी कि इस कमिटी ने भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट अफसरों और दलालों को आतंकवाद का जिम्मेवार माना था. रिपोर्ट दबा दी गयी. तब से आज तक न जाने कितनी महिलाओं के सुहाग उज़ड गये, बच्चों की बलि च़ढी? परिवार के परिवार तबाह हो गये? आतंकवाद या विस्फोटों से उज़डे ऐसे लोगों के आंसू आज कौन पोंछ रहा है?

पर जिन निर्दोष लोगों का खून बह रहा है, क्या वह व्यर्थ जायेगा? नहीं. कम से कम इतिहास तो यही बताता है. पि़ढए मशहूर लेखक रांगेय राघव के रेखाचित्र गेहूं से साभार एक अंश :
एक बार
एक ही आदमी को सूली लगायी गयी थी, उस एक का परिणाम गुलामों का नजात साबित हुआ. एक ही आदमी को गोली मार दी गयी थी, उस एक का नतीजा हुआ नफरत की जलती हुए मशालें बुझ गयीं. सिर्फ 72 आदमियों ने नमक आंदोलन शुरू किया था, और उसके अंत में करोड़ों बिजलियां कौंधने लगीं. एक ही बच्चे को सामंत की गाड़ी ने कुचला था, और उसके फलस्वरूप फ्रांस की गलियों में आजादी को बराबरी की पुकार लहू से भींग कर चिल्लायी थी.

एक मंगल पांडेय के शरीर को गोलियों ने छेदा था, और उसके नतीजे में लाखों गरज फूट कर निकली थी दिल्ली चलो, दिल्ली चलो. और एक ही हब्शी को जिंदा जलाया गया था, जब अब्राहम लिंकन ने कहा था- गुलामी को नेस्तनाबूद कर दो. बगावत एक ही लफ्ज है. उसकी बुनियाद में ईमान है, उसका फैलाव इंकलाब है. उसका नतीजा तख्तों और जुल्मों को पलटनेवाली आजादी है. हजार बार दूध पीकर भी क्या इंसान एक दिन भी सांप का जहर पीना या उससे अपने को कटाना चाहता है?

तो साबित हुआ कि यह एक बार भी स्थायी महत्व का है. इसका विरोध नहीं करना ही भूल है. क्योंकि एक ही अमीचंद ने लालच से जो दस्तखत किये थे, वे करोड़ों की गुलामी का कारण बने. एक ही क्लाइव ने जो छल किया था, वह मुट्ठी भर मसाले के सौदागरों को तीन पीढ़ियों का ऐश दे गया.

तो न एक, चाहे व्यक्ति, चाहे क्षण, चाहे काम, और नहीं दो, वह तो बात की असलियत है, वह शाश्वत है. केंटों ने तो ढाई हजार साल पहले रोम में यह आंदोलन किया था कि रोम की सुंदरियों ने भारत की मलमल देख कर सारे रोम को लुटवा दिया. रोम की सारी दौलत हिंद चली गयी. …110 करोड़ का यह देश अब किसी ऐसे ही एक चमत्कार की प्रतीक्षा में है!

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