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सूरत: बदशक्ल शहर के स्वर्ग बनने की गाथा

-दर्शक- हल्के कोहरे में डूबा था सूरत स्टेशन. ठंड थी, पर तड़के सुबह जीवंत चहल-पहल थी बंबई जैसी, लड़कियां-औरतें-छोटे बच्चे, स्कूटरों से, पैदल और ऑटो पर यात्रा कर रहे थे. शायद स्कूल जाने की जल्दी थी. काम पर समय से पहुंचने की तत्परता. जीवन की रफ्तार बंबई जैसी. पर जो अंतर साफ था. वह था. […]

-दर्शक-

हल्के कोहरे में डूबा था सूरत स्टेशन. ठंड थी, पर तड़के सुबह जीवंत चहल-पहल थी बंबई जैसी, लड़कियां-औरतें-छोटे बच्चे, स्कूटरों से, पैदल और ऑटो पर यात्रा कर रहे थे. शायद स्कूल जाने की जल्दी थी. काम पर समय से पहुंचने की तत्परता. जीवन की रफ्तार बंबई जैसी. पर जो अंतर साफ था. वह था. सूरत की अद्भुत सफाई. फिलहाल बंबई में नारा लग रहा है, ‘ सूरत से साफ शहर बनेंगे’ यानी देश की आर्थिक राजधानी ‘बंबई’ समेत, देश भर के लिए सूरत आदर्श बन गया है.
ऑटोरिक्शा का ड्राइवर नागेंद्र दो वर्ष पहले की स्थिति बताता है. वर्षों से सूरत में है. ग्वालियर का रहनेवाला है. जब प्लेग फैला, तो वह ऑटोरिक्शा से ही निकल भागा. जिस जगह वह रहता था, वहां उसने एक साथ 22 लाशें देखीं. वह भाग खड़ा हुआ. वैसे ही, जैसे सूरत के लोग पलायन करने लगे थे. बंबई या अहमदाबाद की ओर जानेवाली ट्रेनों में जगह मिलना कठिन हो गया. सड़क मार्ग से लोग पैदल भागने लगे. तक सूरत का शक्ल बदसूरत था.

पूरी दुनिया के लोग ‘सूरत’ के कारण भारत से कटने लगे थे. विदेशी उड़ानें भारत आना बंद कर चुकी थीं. उन दिनों का ‘सूरत’ गंदा था. सूरत शहर के सबसे मुख्य और व्यस्त हिस्से में जो सड़क थी, उसमें बमुश्किल एक कार जा सकती थी. कई-कई घंटे जाम रहता था. सूरत औद्योगिक शहर है, इसलिए भी झोपड़पट्टियां-गंदगी विरासत में मिली हैं. इस शहर का प्रतिनिधित्व मोरारजी देसाई और अशोक मेहता ने किया. अशोक मेहता ने एक बार इस शहर को ‘सिटी विदाउट लंग्स’ (फेफड़ा रहित शहर) कहा था. अंगरेजों के गजट में उल्लेख है कि सूरत के लोग गंदगी के नरक में रहते थे.

सूरत से प्रकाशित एकमात्र हिंदी दैनिक ‘लोकतेज’ के संपादक कुलदीप सनाढ्य कहते हैं, ’26 वर्षों से इस शहर में हूं, पर पिछले दो वर्षों में यहां जो कुछ हुआ है, वैसा पहले कभी नहीं देखा.’ इन गुजरे दो वर्षों में क्या हुआ है? ‘गंदा’ सूरत देश का दूसरे नंबर का सबसे साफ-सुथरा शहर बन गया है, उसकी कायापलट हो गयी है. सड़कें-गलियां घर जैसी साफ-सुथरी. आंखों को सुख देनेवाली. संकीर्ण गलियों का व्यस्त शहर, अब चौड़ी सड़कोंवाला सुंदर शहर बन गया है.

यह सब किसी सरकार, राजनीतिक दल, बौद्धिकों या स्वैच्छिक संगठनों के प्रयास से नहीं हुआ है, यह अनोखा बदलाव आया है, सूरत म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के कमिश्नर सूर्य देवरा रामचंद्र राव के प्रयास से. श्री राव का व्यक्तित्व भव्य है, न अतीत प्रेरक. वह शुरू से ही एक सामान्य, कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार अफसर रहे हैं. उनके संकल्प से और जनता के सहयोग से सूरत की गलियों-गलियों में अब एसआर राव की छवि महानायक की बन गयी है.

वह जहां जाते हैं, उनके ‘ ऑटोग्राफ’ के लिए भीड़ जुट जाती है. खोमचावाले, ऑटो रिक्शावाले, धमाल, झोपड़पट्टियों में रहनेवालों समेत 98 फीसदी सूरतवासियों के लिए एसआर राव ‘लीजेंड’ बन गये हैं. लोग स्वेच्छया उन्हें शहर की सफाई में मदद दे रहे हैं. खुद अपना अवैध निर्माण गिरवाते हैं. अब तो देश के कोने-कोने से लोग ‘सूरत में हुए इस चमत्कार’ को देखने पहुंच रहे हैं. सूरत ‘सक्सेस स्टोरी’ (सफल गाथा) बन चुका है. सूरत में लोगों के बीमार पड़ने की संख्या में 60 फीसदी की गिरावट आयी है. ‘सूरत डायरिया’ वहां का आम रोग था, जो अब लगभग खत्म हो गया है.

डेढ़ वर्ष पहले तक सड़कों पर जो कूड़ा-करकट रहता था, वह गायब हो गया है. हाल में ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरीटेज’ ने सूरत को चंडीगढ़ के बाद देश का दूसरे नंबर का सबसे साफ शहर घोषित किया है. दिल्ली में ‘डेंगू’ बुखार का आतंक छाया, पर सूरत में इस रोग से एक आदमी भी पीडि़त नहीं हुआ. शहर में 250 कंप्यूटरीकृत स्वास्थ्य उपकेंद्र खोले गये हैं, जो अपने-अपने इलाके की बीमारियों पर नजर रखते हैं. इससे सूरत के हर इलाके में रोजाना स्वास्थ्य की क्या स्थिति है, यह पता चलती है.

झोपड़पट्टियों के विकास पर अब तक 16 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं. पाखाने, बढ़िया निकासी व्यवस्था और अच्छी-चौड़ी सड़कों के कारण सूरत के स्लम पहचान में नहीं आते. स्टेशन के पास बसे एक स्लम की पूरी आबादी को बेहतर जगह बसाया जा चुका है. किसी ने इसका प्रतिकार नहीं किया, बल्कि लोगों ने आगे बढ़ कर मदद की. क्योंकि जहां यह झोपड़पट्टी बसायी जा रही थी, वहां पहले ही बुनियादी नागरिक सुविधाओं का बंदोबस्त कर दिया गया था. हर स्लम में चौड़ी सड़क , बिजली और पानी का बेहतर इंतजाम किया गया है.

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