नयी दिल्ली :समलिंगी सेक्स को उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध करार दिये जाने के बीच सरकार ने आज संकेत दिया कि वह इस मुद्दे से निपटने के लिए विधायी रास्ता अपनाएगी.
शीर्ष अदालत के फैसले के बाद अब समलिंगी सेक्स को लेकर गेंद संसद के पाले में आ गयी है और वही तय करेगी कि भारतीय दंड संहिता से कौन सी धाराएं हटाने की आवश्यकता है.
कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि संविधान के तहत किसी कानून की संवैधानिकता परखना उच्चतम न्यायालय का विशेषाधिकार है. शीर्ष अदालत उसी विशेषाधिकार का उपयोग कर रही है. कानून बनाना हमारा विशेषाधिकार है और हम उस विशेषाधिकार का इस्तेमाल करेंगे.
उनसे शीर्ष अदालत के उस फैसले पर सवाल किया गया था, जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को दरकिनार कर दिया गया. उच्च न्यायालय ने बालिग समलिंगियों के बीच सहमति से सेक्स को अपराधमुक्त कर दिया था.
इस सवाल पर कि सरकार कितनी जल्दी संसद में यह मुद्दा लायेगी, सिब्ब्ल ने कहा कि यदि संसद चले तो हम इसे ले आयेंगे.
जब पूछा गया कि लाल बत्ती के इस्तेमाल को लेकर फैसला करने वाली यही शीर्ष अदालत समलिंगी सेक्स के मुद्दे पर गेंद संसद के पाले में डालकर चुनिन्दा न्यायिक एक्टिविज्म नहीं कर रही, तो सिब्बल बोले कि उच्चतम न्यायालय कानून की वैधता पर अंतिम फैसला देती है और उसकी राय का सरकार को सम्मान करना चाहिए.
उन्होंने कहा कि कानून के मामले में अंतिम फैसला विधायिका का होता है. इसके आगे मैं कोई टिप्पणी नहीं करुंगा. किसी एक मामले या अन्य मामले में कोई न्यायाधीश क्या राय देता है, मैं उस बारे में टिप्पणी नहीं करुंगा.
उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिक कार्यकर्ताओं को झटका देते हुए समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद तक की सजा वाला जुर्म बनाने वाले दंड प्रावधान की संवैधानिक वैधता को आज बहाल रखा. न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 2009 में दिए गए उस फैसले को दरकिनार कर दिया जिसमें वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति से बनने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था.
पीठ ने विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों की उन अपीलों को स्वीकार कर लिया जिनमें उच्च न्यायालय के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि समलैंगिक संबंध देश के सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ हैं.
न्यायालय ने हालांकि यह कहते हुए विवादास्पद मुद्दे पर किसी फैसले के लिए गेंद संसद के पाले में डाल दी कि मुद्दे पर चर्चा और निर्णय करना विधायिका पर निर्भर करता है. शीर्ष अदालत के फैसले के साथ ही समलैंगिक संबंधों के खिलाफ दंड प्रावधान प्रभाव में आ गया है. जैसे ही फैसले की घोषणा हुई, अदालत में पहुंचे समलैंगिक कार्यकर्ता निराश नजर आये.
पीठ ने कहा कि भादंसं की धारा 377 को हटाने के लिए संसद अधिकृत है, लेकिन जब तक यह प्रावधान मौजूद है, तब तक न्यायालय इस तरह के यौन संबंधों को वैध नहीं ठहरा सकता.फैसले की घोषणा होने के बाद समलैंगिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि वे शीर्ष अदालत के फैसले की समीक्षा की मांग करेंगे.न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाले उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ समलैंगिकता विरोधी कार्यकर्ताओं और सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं पर आदेश पारित किया.
पीठ ने 15 फरवरी 2012 से हर रोज सुनवाई करने के बाद पिछले साल मार्च में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.अपील पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने के मुद्दे पर ढुलमुल रवैये के लिए केंद्र की खिंचाई की और इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद द्वारा चर्चा नहीं किए जाने तथा बजाय इसके न्यायपालिका पर अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने का आरोप लगाये जाने पर चिंता जताई.
समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किये जाने की वकालत करते हुए केंद्र ने बाद में न्यायालय से कहा था कि देश में समलैंगिकता विरोधी कानून ब्रिटिश उपनिवेशवाद का नतीजा था और भारतीय समाज समलैंगिकता के प्रति काफी सहिष्णु था.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2 जुलाई 2009 को समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था और कहा था कि दो वयस्कों के बीच निजी स्थान पर आपसी सहमति से बने समलैंगिक संबंध अपराध नहीं होंगे.
भादंसं की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) समलैंगिक संबंधों को आपराधिक जुर्म बनाती है जिसमें उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है.नाज फाउंडेशन ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकाले जाने की मांग की थी.
वरिष्ठ भाजपा नेता बीपी सिंघल ने उच्च न्यायालय के आदेश को यह कहते हुए शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी कि इस तरह के कृत्य अवैध, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के मूल्यों के खिलाफ हैं.सिंघल का पिछले साल अक्तूबर में निधन हो गया था. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल और एपोस्टोलिक चर्चेज एलायंस जैसे धार्मिक संगठनों ने भी फैसले को चुनौती दी थी.
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग, तमिलनाडु मुस्लिम मुन कषगम, एसडी प्रतिनिधि सभा, ज्वाइंट एक्शन काउंसिल, रजा एकाडमी, ज्योतिषी सुरेश कुमार कौशल, योग गुरु रामदेव के शिष्य एसके तिजारवाला, राम मूर्ति, भीम सिंह और बी कृष्ण भट ने भी दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया था.
केंद्र ने पूर्व में उच्चतम न्यायालय को सूचित किया था कि देश में करीब 25 लाख समलैंगिक लोग हैं और उनमें से लगभग सात प्रतिशत (1.75 लाख) एचआईवी संक्रमित हैं.
जब मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में था तब गृह मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय ने भादंस की धारा 377 को लेकर विरोधाभासी रुख अपनाया था. गृह मंत्रालय ने दंड प्रावधान को जारी रखने का पक्ष लिया था तथा स्वास्थ्य मंत्रालय ने प्रावधान को खत्म किये जाने का समर्थन किया था.
उच्चतम न्यायालय के निर्णय से समलैंगिक कार्यकर्ता निराश
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर करने संबंधी याचिका सबसे पहले दायर करने वाले गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ने समलैंगिक संबंधों को दंडनीय अपराध बनाने के प्रावधान की संवैधानिक वैधता बहाल रखने के उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर आज असंतोष व्यक्त किया.
एनजीओ नाज फाउंडेशन की ओर से मामला पेश करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद ग्रोवर ने फैसले के बाद कहा, हम निर्णय से निराश है. हमें लगता है कि यह निर्णय कानून के लिहाज से सही नहीं है. हम उचित कानूनी मदद लेंगे। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 में दिए गए उस फैसले को दरकिनार कर दिया है जिसमें समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था.