हरिवंश
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भ्रष्ट से भ्रष्टतर, अब भ्रष्टतम
हरिवंश विषय था, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, अंतत: यह जंग किसकी है? सीबीआइ के डीआइजी भ्रष्टाचार से जुड़े तथ्य बता रहे थे. उन्होंने कोई भाषण नहीं दिया, सिर्फ वस्तुस्थिति सामने रख दी. उसके बाद एक चुप्पी छा गयी. श्रोता बमुश्किल 40 रहे होंगे. पर आयकर, सीबीआइ, सेंट्रल एक्साइज, बैंक, सीसीएल, झारखंड पुलिस के शीर्ष अफसर, […]
विषय था, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, अंतत: यह जंग किसकी है? सीबीआइ के डीआइजी भ्रष्टाचार से जुड़े तथ्य बता रहे थे. उन्होंने कोई भाषण नहीं दिया, सिर्फ वस्तुस्थिति सामने रख दी. उसके बाद एक चुप्पी छा गयी. श्रोता बमुश्किल 40 रहे होंगे. पर आयकर, सीबीआइ, सेंट्रल एक्साइज, बैंक, सीसीएल, झारखंड पुलिस के शीर्ष अफसर, ट्रेड यूनियन के दिग्गज नेता, मीडिया वगैरह से आये लोग थे. इन सरकारी विभागों के बड़े अफसर थे. अध्यक्षता कर रहे थे, सीसीएल के चेयरमैन. लगा कि यह बैठक सार्वजनिक प्रचार या बहस के लिए नहीं बुलायी गयी है. इसके पीछे एक गंभीर चिंता है. सीबीआइ डीआइजी के प्रजेंटेशन के बाद एक निजी अनुभूति हुई. कलियुग की अवधारणा के साथ एक कहावत जुड़ी है. संघे शक्ति कलियुगे. समूह में ताकत होती है. सीसीएल के उस हाल में बैठा हर आदमी इस मुद्दे पर बेचैन दिखा. कुछ करने के लिए तत्पर. पर भ्रष्टाचार के खिलाफ इस जंग की शुरुआत कहां से या कैसे हो, यह उसे नहीं मालूम? एक नायक, दिग्विजय सम्राट, अवतार या मोक्ष पुरुष की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहा है, यह समाज, ऐसा लगा.
सीबीआइ डीआइजी ने अपने पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन (कंप्यूटर से बड़े स्क्रीन पर तथ्यों को दिखाते हुए) के अंतिम हिस्से में एक टिप्पणी भी की. यह बिग फाइट (बड़ी लड़ाई है) है, और हर एक को इस जंग को अपना मानना चाहिए. विंस्टन चर्चिल के महत्वपूर्ण उद्धरण को याद दिलाया. युद्ध एक अत्यंत गंभीर प्रसंग है, इसे सिर्फ सेनानायकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. इसी तर्ज पर उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार एक अत्यंत गंभीर प्रसंग है, जिसे सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़नेवाली जांच एजेंसियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.
यह वाजिब टिप्पणी थी. आज भारतीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, भ्रष्टाचार. अब यह नैतिक प्रसंग नहीं, आर्थिक और सामाजिक न्याय से जुड़ा सवाल है. इन दिनों विश्व बैंक भी बढ़ते भ्रष्टाचार से चिंतित दिखाई देता है. इन संस्थाओं का मूल सरोकार तो पश्चिम के समृद्ध देशों का हित करना है, पर वे भ्रष्टाचार पर चिंतित हो रही हैं. कारण स्पष्ट है कि विश्व बैंक या पश्चिमी देश समझते हैं कि गरीब देशों के लोगों के आर्थिक हालात नहीं सुधरे, तो समृद्ध देशों का अस्तित्व सुरक्षित नहीं रहेगा. इसलिए विश्व बैंक या स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान देनेवाली अन्य डोनर एजेंसियां, (आर्थिक मदद देनेवाली संस्थाएं) पश्चिमी देश, इस बारे में चिंतित हैं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे.
पर यह अंकुश जन चेतना के बिना संभव है? सीबीआइ डीआइजी ने आंकड़े बताये. टांसप्रेंसी इंटरनेशनल के हवाले से. दस चुनिंदा सरकारी क्षेत्रों से भ्रष्टाचार करनेवाले एक साल में 26728 करोड़ लूट ले गये. सरकारी जांच एजेंसियों के प्रयास से एक वर्ष में कितने पैसे लौटे? 0.13 फीसदी. यानी एक पैसे का 13वां हिस्सा. कुल 34.15 करोड़ रुपये. सार्वजनिक उपक्रमों और सरकारी कार्यालयों से एक साल में 26,728 करोड़ रुपये भ्रष्टाचार में चले गये और लौटे 34.15 करोड़. इन आंकड़ों को देखते हुए, एक दूसरा आंकड़ा भी याद आया. ट्रांसप्रेंसी इंटरनेशनल (भ्रष्टाचार का अध्ययन करनेवाली चर्चित अंतरराष्ट्रीय संस्था) को उद्धृत करते हए एचडी शौरी ने कुछेक माह पहले इंडियन एक्सप्रेस में तीन किस्तों में एक लेख लिखा. एक लेख में ट्रांसप्रेंसी इंटरनेशनल के हवाले से बताया गया कि पिछले एक साल में बहराष्ट्रीय कंपनियां और कॉरपोरेट घरानों ने भारत के सरकारी अफसरों को अपने अनुकूल नीति बनवाने, सरकारी नीति बदलवाने, फेवर लेने, कान्ट्रेक्ट लेने के मद में 32000 करोड़ रुपये घूस दिये.
इस भ्रष्टाचार का सीधा असर क्या है? (1) प्रगति नहीं हो रही. अगर हम चाहते हैं कि उद्योग लगें, सड़कें अच्छी बनें, रोजगार बढ़ें, अस्पताल ठीक चलें वगैरह, तो इन चीजों के लिए तय पूंजी से सही-सही काम होना चाहिए. पर हो क्या रहा है? एमपी, एमएलए फंड से लेकर अन्य विकास कामों में लूट और कमीशन तय है, (2) निवेश खासतौर से गरीब और पिछड़े राज्यों में भ्रष्टाचार के कारण बाहरी पूंजी नहीं आ रही. विकास बंद है. देश स्तर पर देखें, तो चीन के मुकाबले बहुत कम विदेशी पूंजी भारत में निवेश के लिए आ रही है. (3) गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम गरीबों के कल्याण के लिए चलाये जा रही सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ गरीबों तक पहुंचते ही नहीं. कुछेक वर्ष पूर्व जब एनसी सक्सेना योजना आयोग के अध्यक्ष थे, तब उन्होंने जयपुर में कहा था कि केंद्र सरकार की सारी कल्याणकारी योजनाएं बंद कर सीधे ये पैसे गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों को दे दिये जायें, तो गरीबी उन्मूलन की रफ्तार तेज होगी. गरीबों के कल्याणकारी काम में भ्रष्टाचार से नक्सलवाद, सामाजिक तनाव, कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी होती है. (4) राष्ट्रीय सुरक्षा, भ्रष्टाचार से राष्टीय सुरक्षा खतरे में पड़ती है. (5) बढ़ते भ्रष्टाचार से राजसत्ता की वैधता पर सवाल खड़े हो गये हैं.
भ्रष्टाचार के गंभीर असर इन पांच क्षेत्रों पर पड़ रहे हैं, पर सरकारी काम में लगे लोगों का भ्रष्टाचार के प्रति क्या रुख है? एक तबका इसमें शरीक है. दूसरा भ्रष्ट नहीं है, पर इस स्थिति से संतुष्ट है. इसके खिलाफ खड़ा नहीं हो रहा.
भ्रष्टाचार के प्रति जनता का क्या रुख है? एक वर्ग खुशी-खुशी इसमें शामिल है. दूसरा वर्ग अनिच्छुक ढंग से इसमें शामिल है. बड़ा वर्ग है, जो चुप और मूकदर्शक है. सबसे अधिक नुकसान समाज के इसी बहुसंख्यक वर्ग को हो रहा है. अगर उद्योग नहीं खुलते, सड़कें ठीक नहीं होती, विकास के काम नहीं होते, गरीबी उन्मूलन के प्रयास में चोरी होती है…तो नुकसान में यही वर्ग है. इस वर्ग का वर्तमान और भविष्य दोनों बंधक और बुरा है.
1960 के दशक में ही प्रो गुन्नार मिर्डल ने भारत को साफ्ट स्टेट कहा था. यह साफ्ट स्टेट भ्रष्टाचार के आगे लगातार असहाय होता गया है. कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है और भ्रष्ट लोग इतने ताकतवार हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में किसी को सजा नहीं होती. बोफोर्स प्रकरण का पटाक्षेप महीने भर पहले हुआ है. बोफोर्स तोप खरीद में 64 करोड़ रुपये कमीशन के आरोप लगे. 18 वर्ष जांच चली. 250 करोड़ जांच में खर्च हुए. जांच किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची. अब कांग्रेसी तर्क दे रहे हैं कि 64 करोड़ की चोरी की जांच के लिए 250 करोड़ क्यों खर्च हो गये? कोई स्टेट पॉवर के निकम्मेपन का सवाल नहीं उठा रहा? कोई नहीं पूछ रहा कि क्वात्रोची (इस बोफोर्स प्रकरण का मूल चिंतित खलनायक) क्यों पकड़ में नहीं आया? इसी तरह सुखराम के पास से सीबीआइ को तीन करोड़ नकद मिले थे. पर वे बरी हैं. इन प्रकरणों से जुड़े अनेक सवाल हैं. हाल ही में सीबीआइ के निदेशक ने एक अखबार को इंटरव्यू देते हुए कहा कि सीबीआइ की स्वायत्तता मिथ है. उन्होंने कई ताकतवर लोगों के नाम लिये बगैर (संकेतों में पूर्व पेटोलियम मंत्री सतीश शर्मा और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नाम स्पष्ट थे) कहा कि इन महानुभवों के खिलाफ सीबीआइ के पास पर्याप्त साक्ष्य हैं, पर केंद्र सरकार अनुमति नहीं दे रही? विपक्ष ने भी यह सवाल नहीं उठाया, क्योंकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कमोबेश और सभी राजनीतिक दलों की चादरें (वामपंथियों को छोड़ कर) एक जैसी हो गयी हैं.
भ्रष्टाचार बढ़ाने में सरकारी अफसर खुलेआम लगे हैं, पर सरकार असहाय दिखती है. रिटायर होने के पहले कॉरपोरेट घरानों की खुली मदद, फिर उनके यहां नौकरी. भारत सरकार के सचिव स्तर के कई अधिकारी सेवानिवृत्ति लेकर कॉरपोरेट घरानों में काम करते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां ज्वायन कर लेते हैं. इलाहाबाद के आजादी बचाओ ग्रुप ने एक बार भारत सरकार के बड़े अफसरों के नाम छापे थे, जिनके बेटे अपने पिता के सरकारी प्रभावों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों में, देश-विदेश में बड़े पदों पर थे. आइएएस-आइपीएस अफसरों के इस्तीफे के संदर्भ में भी नियम हैं. पटना के पूर्व जिलाधिकारी गौतम गोस्वामी ने तुरंत इस्तीफा दिया और निजी कंपनी में चले गये? अब केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय (पर्सनल विभाग) जगा है, और पूछ रहा है कि यह सब कैसे हआ? गोस्वामी के इस्तीफे पर तत्काल मंजूरी और उन्हें रिलीव कैसे किया गया? भारत सरकार के कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय में बड़े पदों पर रहे लोग रिटायर होने के 2-3 वर्ष बाद ही कहीं कार्य कर सकते हैं. पर यह नहीं हो रहा. 15 मई को खबर आयी कि कर्नाटक सरकार के मंत्रिमंडल ने बेंगलुरु रेल प्रोजेक्ट के लिए (3000 करोड़ का प्रोजेक्ट) आवश्यक मापदंडों के तहत एक कंपनी समूह का चयन कर लिया है. फिर भी भारत सरकार के पूर्व कैबिनेट सचिव जफर सैफुल्ला विदेशी कंपनियों के समूह के पक्ष में ऊपर से नीचे तक खुलेआम लाबिंग कर रहे हैं. अस्पताल में भरती पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने तुरंत कर्नाटक सरकार के खिलाफ प्रधानमंत्री को एक पत्र लिख दिया है. क्या पूर्व कैबिनेट सचिवों, पूर्व प्रधानमंत्रियों का काम ठेके देना-दिलाना या पक्ष-विपक्ष में लाबिंग करना है?
दरअसल ऐसी ही कार्य संस्कृति से आज भारत दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में से एक हो गया है. टांसप्रेंसी इंटरनेशनल के अनुसार भारत दुनिया के भ्रष्ट देशों में 1995 में 35वें स्थान पर था. 2000 में 69वें स्थान पर, 2002 में 71वें स्थान पर और 2004 में 91वें स्थान पर पहुंच गया है. लगातार भ्रष्ट से भ्रष्टतर और भ्रष्टतम! क्या भ्रष्ट से भ्रष्टतर और अब भ्रष्टतम बनते समाज में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बनेगा?
भ्रष्टाचार इस देश की जनता के लिए सबसे अहम मुद्दा है. 1974 में जेपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का आवाह्न किया. लोग साथ आये. 1989 में पुन: भ्रष्टाचार, भारतीय राजनीति में मुद्दा बना. जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चलना चुना. पर नेतृत्व करनेवाले चूक गये. वे भ्रष्टाचार की लड़ाई को मुकाम तक न ले जा सके. सत्ता में बैठते ही 1977 और 1989 में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़नेवाले खुद छल, प्रपंच, कपट और भ्रष्टाचार में शामिल हो गये. पराकाष्ठा तो तब हुई, जब वीपी सिंह ने हाल में कहा कि बोफोर्स भ्रष्टाचार में उन्होंने राजीव गांधी का नाम नहीं लिया था. जो नेता अपनी बात से मुकर जाये, झूठ बोले, वे सार्वजनिक जीवन में ऐतिहासिक छाप नहीं छोड़ते. इसलिए छलनेवाले नेताओं की अगुवाई में अब भारतीय जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार नहीं दिखती, इसलिए रास्ता क्या है?
भ्रष्टाचार की पद्धति, भ्रष्टाचारियों के कारनामों का डाक्यूमेंटशन हो.
अंग्रेजों के जमाने में भारत लूट पर लोगों ने दस्तावेज लिखे. इसी पद्धति पर आसपास के भ्रष्टाचार को लिखा जाये. पुस्तकें, पुस्तिकाएं प्रकाशित हों. भ्रष्टाचारियों के नाम-काम उजागर हों, लोग उनसे नफरत करना शुरू करें, उनके कामों के बारे में लोक प्रचार करें. मौखिक ही सही. पर ऐसे मामूली प्रयासों से ही भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लड़ाई की पृष्ठभूमि तैयार होगी. भ्रष्ट, भ्रष्टतर और भ्रष्टतम होने से इस मुल्क को बचाना, अपने स्वाभिमान की रक्षा है और अपनी भावी पीढ़ी के प्रति फर्ज और धर्म भी.
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