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अपमान की राजनीति
-हरिवंश- लालू प्रसाद ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से शिकायत की है कि छुटभैये कांग्रेसी उन्हें अपमानित कर रहे हैं. उनकी पीड़ा सही है. वह स्थापित नेता हैं. बड़े नेता हैं. अत: जब जूनियर कांग्रेसी उन्हें अहंकार की भाषा में कुछ कहते हैं, तो उन्हें चोट लगनी स्वाभाविक है. कांग्रेसी नेता इकबाल सिंह ने शायद उन्हें […]
-हरिवंश-
लालू प्रसाद ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से शिकायत की है कि छुटभैये कांग्रेसी उन्हें अपमानित कर रहे हैं. उनकी पीड़ा सही है. वह स्थापित नेता हैं. बड़े नेता हैं. अत: जब जूनियर कांग्रेसी उन्हें अहंकार की भाषा में कुछ कहते हैं, तो उन्हें चोट लगनी स्वाभाविक है. कांग्रेसी नेता इकबाल सिंह ने शायद उन्हें गद्दार कहा. अनेक कांग्रेसी नहीं चाहते कि लालू प्रसाद नयी सरकार में बतौर मंत्री शामिल हों. बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अनिल शर्मा को भी उनसे गुरेज है. कांग्रेसी नेता शकील अहमद तो कह ही रहे हैं कि कांग्रेस अगर लालूजी को साथ लेती है, तो कांग्रेस का भारी नुकसान होगा. प्रमुख कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी, प्रवक्ता राजीव शुक्ला भी उनके खिलाफ बोल चुके हैं. महाराष्ट्र के प्रमुख कांग्रेसी नेताओं ने भी लालू के खिलाफ आवाज बुलंद की है. स्वाभाविक है, लालू प्रसाद को ठेस पहंची है. उनके स्वाभिमान को धक्का लगा है.
लालू देश के बड़े नेता हैं. बड़े नेता ही छोटे नताओं के आदर्श होते हैं. बड़े नेताओं को देख कर ही आनेवाली पीढ़ियां राजनीति में प्रेरित होती हैं. उनसे कुछ सीखती हैं. महाभारत का प्रसंग है.
महाजनो येन गता स पंथा:
जिस रास्ते से महान लोग गये हों, वही रास्ता सही है.
तो आज हमारे बड़े नेता या राजनीति क्या आदर्श दिखा रहे हैं. राजनीति, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण विधा है. यह महज सत्ता भोगने का साधन नहीं है. इसे सेवा का हथियार माना गया है. माना गया कि राजनीति समाज के चिंतन, स्तर, सोच को आगे ले जाने की कला है. फूहड़ और क्रूर बनाने की विधा नहीं. पर, भारतीय राजनीति किस हाल में है. लालू प्रसाद जैसे बड़े नेता, अगर आज आत्ममंथन करें, अपमान की राजनीति के प्रकरण के बारे में गहराई से सोचें, तो वे राजनीति को बेहतर, शालीन और मर्यादित बनाने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.
इन्हीं चुनावों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर जिस अभद्र भाषा में हमला हुआ, क्या इसके गर्भ से मर्यादित राजनीति निकलेगी? लालूजी भूले नहीं होंगे. सुंदर सिंह भंडारी बिहार में राज्यपाल हुआ करते थे. वह संघ की जिस पृष्ठभूमि से आते थे, उससे लालू प्रसादजी का गहरा मतभेद था. दोनों दो ध्रुव थे. फिर भी वह एक संवैधानिक पद पर थे. जिस संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देकर लालूजी सर्वोच्च पदों पर गये, उसी संविधान के तहत वह राज्यपाल थे. पर, उन्हें लंगड़ा कहा गया. प्रकृति ने जिसको जैसा बनाया है, वह वैसा है. क्या उस पर टिप्पणी होनी चाहिए? अगर राजनीति में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग, लालू प्रसाद आगे बढ़ कर रोके होते, तो उनका कद और बड़ा होता. इसी तरह विधानसभा का वह प्रकरण याद करिए, जब लालूजी मुख्यमंत्री थे, विधायक श्रीमती ज्योति पर विधानसभा में क्या टिप्पणी हुई? क्या मर्यादा सिर्फ एक के लिए होती है? जब समाज मर्यादित होता है, तो वहां हर एक को स्वत: सम्मान मिलता है. वहां अपमान की गुंजाइश नहीं होती. वहां अपमान की राजनीति नहीं होती. लेकिन जिस राजनीति में अपशब्द, अहंकार, लांछन, शाब्दिक हिंसा, अमर्यादा प्रबल होगी, तो वह धीरे-धीरे सबको प्रभावित करेगी. सब उसके शिकार होंगे. फिर कौन, किसकी शिकायत सुनेगा.
क्या राजद के बड़े नेताओं को याद है. 2005 के विधानसभा चुनाव में पत्रकारों को कुत्ता, एक बड़े नेता को लंगड़ा बिलाड़ कहा गया, क्या ये शब्द इस्तेमाल करने योग्य थे? इस बार के लोकसभा चुनावों में भी किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल हुआ है. नीतीश के पेट में दांत है. फलां नीच है, कीचड़ का आदमी है. फलां को खवराहा रोग हो गया है. क्या यही प्रवृति राजनीति समाज का आदर्श स्थापित करेगी? समाज को बड़ा बना पायेगी? न्यूक्लीयर डील पर लोकसभा में बहस हो रही थी. जॉर्ज फर्नांडीस लोकसभा में चुप बैठे थे. उल्लेखनीय है कि जॉर्ज अस्वस्थ हैं. रुग्ण हैं. उनको संकेत करके लोकसभा में लालूजी ने क्या टिप्पणी की थी. जॉर्ज कितने बड़े नेता रहे हैं और उनका क्या असर रहा है, यह सामयिक राजनीति के इतिहास के पन्नों पर दर्ज है. जब वह स्वस्थ थे, तो वैसा प्रखर वक्ता कौन था? कौन उनके आगे टिकता था? पर, बीमार पर क्या टिप्पणी? यह मर्यादा और मान-सम्मान की राजनीति नहीं है. सहमति-असहमति अपनी जगह है. पर, क्या व्यक्ति को इसके कद के अनुसार सम्मान नहीं मिलना चाहिए? आज लालूजी की पीड़ा यही है कि उनके कद के अनुसार उन्हें सम्मान नहीं मिल रहा. उनकी यह पीड़ा जायज है. पर, ऐसी ही पीड़ा दूसरों को भी होती है, जब उनके बारे में अमर्यादित टिप्पणियां बड़े नेता करते हैं. कम से कम यह तथ्य अगर लालूजी समझ लें, तो वह खुद राजनीति को शालीन और मर्यादित बनाने में बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं.
विधानसभा या संसद में लगातार आक्रामक रहने, विरोधियों पर हमला बोलने के लिए तैयार रहने और कनफ्रंटेशन की राजनीति करने से कौन से रत्न निकलेंगे? अगर देश में यह राजनीति है, तो इसका श्रेय देश के बड़े नेताओं को है और लालू प्रसाद इन बड़े नेताओं में से हैं, जो इस राजनीति के लिए दोषी हैं? इन चुनावों में ही लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता ने मनमोहन सिंह जैसे शालीन व्यक्ति के लिए कौन सा शब्द इस्तेमाल किया? निकम्मा. क्या यही राजनीति का स्तर है? इससे आडवाणीजी का कद गिरा. मनमोहन सिंह ने शालीनता से इसका उत्तर दिया. भाजपा ने इन चुनावों में इसकी बड़ी कीमत चुकायी. जनता ने शालीन मनमोहन सिंह को पसंद किया. राजद खेमे से जिस स्तर पर शब्दों का वार नीतीश कुमार पर हुआ, उसका प्रत्युत्तर उन्होंने शालीनता से दिया. इसका भी लाभ नीतीश कुमार को मिला. आम जनता, गरीब या अमीर कोई भी सार्वजनिक जीवन में अभद्र टिप्पणी या अमर्यादित शब्द पसंद नहीं करता. लालूजी को याद होगा, 2004 में यूपीए की सरकार बनी. इसके बाद की यह घटना है. आडवाणी की पतोहू का संबंध विच्छेद आडवाणी के बेटे से हो गया था. अचानक उनकी पतोहू को कुछ लोग प्रायोजित कर लंदन से दिल्ली लाये. आनन-फानन में प्रेस कांफ्रेंस बुलायी गयी. वह तो नहीं बोलीं. पर एक परचा बांटा गया. जिसमें आडवाणी के ऊपर अत्यंत अशालीन और निराधार आरोप थे. पत्रकारों ने जिरह करना शुरू किया, तो वह तुरत निकल कर चली गयीं. कुछ बोल न सकीं. पर, इस मामले को राजद के लोगों ने लोकसभा में उछाला. आरोप निराधार थे. बात आगे नहीं बढ़ सकी. दरअसल यह राजनीतिक प्रतिशोध का मामला था.
इसके लगभग साल-डेढ़ साल बाद रांची के बीआइटी मेसरा के एक छात्र का दशम में तैरने के क्रम में मौत हो गयी. लालूजी के परिवार के एक सदस्य की उपस्थिति वहां थी. यह मौत स्वाभाविक थी. पर, विपक्ष इस बात को लेकर उछालने लगा. दिल्ली में सीबीआइ जांच की मांग होने लगी.
आडवाणी की पतोहू के प्रसंग में भी हमने सवाल उठाया कि व्यक्तिगत प्रतिशोध और अहंकार की राजनीति को उस सीमा तक न ले जाइए, जहां यह राजनीति की मुख्यधारा का अंग बन जाये. बीआइटी मेसरावाले प्रसंग में भी हमने लिख कर कहा, हम प्रतिशोध में अंधे न बनें. इस मामले का दूर-दूर तक लेना-देना लालू परिवार से नहीं है. इसलिए यह मामला सार्वजनिक नहीं बने. हर घर-परिवार की अपनी निजी जिंदगी है. सड़क पर या संसद में उस पर बहस न हो. सार्वजनिक जीवन की अपनी अलग मर्यादा होती है. जब आप प्रतिशोध की, बदले की, अहंकार की और गाली-गलौज की राजनीति करेंगे, तो लोग दूसरों का सम्मान करना कैसे सीखेंगे? आज के राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का यही प्रशिक्षण हो रहा है. एक दूसरे की फजीहत करो. बेइज्जती करो. हालांकि जो लोग ऐसा करते हैं, वही अपना सम्मान खोते हैं. पर, यह कोई सोचने को तैयार नहीं है कि कैसे इस तरह की राजनीति से देश को निकाला जाये. भाजपा के स्टार प्रचारक माने गये नरेंद्र मोदी, उन्होंने प्रियंका और राहुल के लिए गुड्डा, गुड़िया तथा बुढ़िया जैसे प्रतीक शब्दों का इस्तेमाल मिया. इससे किसकी फजीहत हुई?
जीतना या हारना लोकतंत्र में स्वाभाविक प्रक्रिया है. पर, जीतने पर अहंकार और हारने पर अधैर्य. जीतने पर पग-पग अहं छलके और हारने पर कटुता, द्वेष, ईर्ष्या और क्रोध भभकता फिरे. अगर यही और ऐसी ही राजनीति है, तो यह राजनीति क्या देश संवार या बना सकती है?
आजादी की पीड़ा को छोड़ दें. इसका तो पूरा जीवन ही मर्यादा की राजनीति पर निर्भर था. एक दूसरे के खिलाफ तीखे वैचारिक मतभेद रखनेवालों में भी सौहार्दपूर्ण रिश्ता था. आत्मीय संबंध था. जान लेने और जान देने की राजनीति नहीं थी. आज के कई बड़े नेताओं के आदर्श जयप्रकाश नारायण हैं. कम से कम उनसे भी इन लोगों ने सीखा होता. बिहार आंदोलन की ही घटना है. जेपी, इंदिराजी के मतभेद चरम पर थे. इंदिराजी ने खुद उन पर कई गंभीर आरोप लगाये थे. उन्हें उनके गुर्गों ने तो क्या कुछ नहीं कहा. जेपी पर सीआइए से जुड़े होने के आरोप, बड़े पूंजीपतियों के साथ होने के आरोप, अनेक गंभीर और अश्लील आरोप. उस जेपी पर, जिसका चरित्र ऋषितुल्य रहा. आजीवन धवल. पर, इंदिराजी के व्यक्तिगत आरोपों से खिन्न और आहत जेपी ने क्या किया? जेपी के पास कमला नेहरू (पं जवाहरलाल नेहरू की पत्नी) के कुछ दुर्लभ पत्र थे. ये पत्र कमलाजी ने जेपी की पत्नी प्रभावतीजी को लिखे थे. इन पत्रों में नेहरू परिवार के बारे में कई अंदरूनी बातें थीं, जो नेहरू परिवार की शालीनता से जुड़ी थीं. बिहार आंदोलन जब सबसे मुखर था, जेपी-इंदिराजी में जब सबसे अधिक तनाव था, जब जेपी इंदिराजी के व्यक्तिगत आरोपों से अत्यंत आहत थे, तब उन्होंने वे विस्फोटक पत्र ले जाकर इंदिराजी को सौंप दिये. इस काम के लिए चुपचाप इंदिराजी से मिलने का समय मांगा. पूरे देश को आश्चर्य. जेपी इंदिराजी से उस वक्त क्यों मिलने गये? जेपी ने किसी को भनक नहीं लगने दी. आज भी पटना गांधी संग्रहालय के रजी साहब इसके गवाह के रूप में मौजूद हैं. रजी साहब खुद अद्भुत गांधीवादी हैं. वह बतायेंगे कि तब राजनीति में क्या मर्यादा थी.
जेपी की जेल डायरी पढ़िए. किस पीड़ा और बेचैनी से उन्होंने लिखा है कि इंदु (प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी) का शासन उन्हें जीवित देखना नहीं चाहता. उनकी किडनी खराब हुई. उसे लेकर अत्यंत विवाद हुआ. फिर भी वही जेपी, जब इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं, तो सबसे पहले उनके घर गये. खैर जेपी तो आजादी के सिपाही थे. पर चंद्रशेखरजी, जो इंदिराजी के साथ थे, जिन्हें इंदिराजी की सरकार ने तनहाई में बंद रखा. हर तरह से प्रताड़ित किया. जब इंदिरा जी हारीं, तो वह भी उनके घर गये. जनता दल के कुछ तीव्र उत्साही लोग, इंदिराजी से घर खाली कराना चाहते थे, उसका उन्होंने पुरजोर विरोध किया.
राजनीति अगर शत्रुता में बदल जाये, तो मान-अपमान का खेल शुरू हो जाता है. आज का राजनीतिक समुद्र ही प्रतिशोध से भरा है. इसलिए इस राजनीतिक समुद्र का महत्व घट गया है. प्रतिशोध, ईर्ष्या, द्वेष, उग्र भाषा, राजनीति के रावण हैं. रामायण की मशहूर पंक्ति है.
महिमा घटी समुद्रकारावण बसा पड़ोस
इसी माहौल के कारण आज की राजनीति में मान-अपमान का खेल चल रहा है. बड़े नेताओं को चाहिए कि वे राजनीति की गरिमा वापस लौटायें, उसे शालीन बनायें और राजनीति के रावण (द्वेष, ईर्ष्या, कटुबोल वगैरह) को दफन कर दें.
डॉ धर्मवीर भारती की मशहर कृति है, अंधायुग. उसकी एक पंक्ति है-
यह अजब युद्ध है, नहीं किसी की जय, दोनों पक्षों को खोना ही खोना है.
स्पष्ट है कि इससे कोई राजनीतिक दल मुक्त नहीं है. कमोबेस सब समान दोषी हैं. कोई अधिक, कोई कम. इसलिए इसे बेहतर बनाने का दायित्व भी इन्हीं पक्षों (राजनीतिक दलों) को है, इन्हीं नेताओं का है.
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