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राज्यों के पुनर्निर्माण की चुनौती

हरिवंश अब तक मुंबई या महाराष्ट्र में पांच उत्तर भारतीयों के मारे जाने की पुख्ता सूचना है. राज ठाकरे के ऐसे आंदोलनों के आरंभिक चरणों में नासिक, नागपुर से लेकर अन्य जगहों पर भी उत्तर भारतीय मारे गये. अपमानित हुए. कई इलाकों से रातोंरात उन्हें भागना पड़ा. हजारों की संख्या में उनकी टैक्सियां या ऑटो […]

हरिवंश
अब तक मुंबई या महाराष्ट्र में पांच उत्तर भारतीयों के मारे जाने की पुख्ता सूचना है. राज ठाकरे के ऐसे आंदोलनों के आरंभिक चरणों में नासिक, नागपुर से लेकर अन्य जगहों पर भी उत्तर भारतीय मारे गये. अपमानित हुए. कई इलाकों से रातोंरात उन्हें भागना पड़ा. हजारों की संख्या में उनकी टैक्सियां या ऑटो तोड़े गये. पान की दुकानों पर हमले हुए. यहां इन घटनाओं के ब्यौरा देने का मकसद, लंबी सूची देना नहीं है. हालांकि कोई युवा समूह या एनजीओ, महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों में हिंदी पट्टी के लोगों के साथ हुए भेदभाव, अपमान, अत्याचार, हत्या, मारपीट और उजड़ जाने की घटनाओं को एकजुट कराता, तो आधुनिक भारत का महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार होता. दस्तावेज इन नेताओं के लिए नहीं, शासकों के लिए नहीं, बल्कि खुद हिंदीभाषी लोगों के लिए. अतीत के इस दस्तावेज से भविष्य के लिए सबक मिलेंगे.
इन वारदातों में राहुल राज की घटना दूरगामी है. अब तक प्राप्त सूचनाओं के अनुसार राहुल, पटना के कदमकुआं का रहनेवाला था. 26 अक्तूबर को वह मुंबई गया था. काम की तलाश में. पर क्या हुआ कि राहुल राज, राज ठाकरे को ढ़ूंढ़ने निकल पड़ा? कोई अधिकारिक ब्यौरा नहीं है. सूचना है कि राहुल शांत प्रवृत्ति का लड़का था. इंट्रोवर्ट. उसके मानस पर जब बिहारियों या हिंदीभाषियों के अपमान की बात आयी होगी, तो लगता है उसके अंदर युवा आक्रोश बौखलाने लगा होगा. फिर भी उसने कहीं कोई हिंसा नहीं की. न बस में यात्रा कर रहे सहयात्रियों के साथ या न किसी अन्य मुंबईवासी के साथ. वह हिंसक होता, तो उसने किसी पर गोली चलायी होती. कहीं कोई हिंसा की होती. वह बार-बार यात्रियों से कह रहा था. मैं आपको नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा. मुंबई के जो लोग उसके साथ बस में थे, उनका विभिन्न चैनलों पर बयान था, पुलिस समझदारी से काम लेती, तो आसानी से वह पकड़ा जाता. उसे राज ठाकरे को ही मारना होता, तो वह बस हाइजैक क्यों करता? शायद उसके दिमाग में अपने गुस्से को इसी तरह सार्वजनिक बनाने की योजना रही हो. बिना किसी को कोई हानि पहुंचाये. पर महाराष्ट्र पुलिस ने उसकी हत्या की. इसके बाद वहां के गृह मंत्री आरआर पाटील का बयान आया, गोली का जवाब गोली से देंगे. लगता है, महाराष्ट्र में राज ठाकरे बनने की होड़ लग गयी है. उपमुख्यमंत्री आरआर पाटील हों या छगन भुजबल या नारायण राणे या मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख. सबके आचरण, काम और बयान देश का संकट बढ़ाने वाले हैं. हिंदीभाषी क्षेत्रों में भी जो हिंसक प्रतिक्रियाएं हुईं, विरोध के कटु शब्दवाण चले, वे देशहित में कतई नहीं. आज भारत को एक रखना सबसे बड़ा एजेंडा है. शायद यह गलत है, क्योंकि देश तो किसी के एजेंडा पर है ही नहीं. बहरहाल आरआर पाटील से गृह मंत्री शिवराज पाटील या भारत सरकार को यह अवश्य पूछना चाहिए कि जब हिंदी पट्टी के युवा पीटे जा रहे थे, उनकी हत्याएं हो रही थीं, तब महाराष्ट्र प्रशासन और पुलिस कहां थे? दाऊद इब्राहीम के गुंडे मुंबई में आतंक मचाते रहते हैं. तब आरआर पाटील की यह गोली कहां चली जाती है? मुंबई में उग्रवादी बेखौफ विस्फोट करते हैं, तब आरआर पाटील की यह बहादुरी कहां रहती है?
महाराष्ट्र के नेताओं की फब्तियां, व्यंग्यबाण या विचलित करनेवाली बातों का ब्यौरा देना उद्देश्य नहीं है. जीवन बड़ा कठोर और निर्मम है. उन लोगों से जानिए, जिनके सगे मारे गये हैं या जिनके कामकाज या रोटी कमाने के अवसर या बसी-बसायी दुनिया उजड़ गयी है. जानेमाने कवि कुंवर नारायण की कविता की पंक्ति है, जिसका आशय है, कोई दुख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, वही हारा जो लड़ा नहीं. इसलिए हर दुख, पीड़ा और शोक की घड़ी में अवसर तलाशना सबसे बड़ी चुनौती है. नयी और बची जिंदगी के लिए. भविष्य के लिए. ऐसी घटनाएं फिर नहीं होने देने के लिए भी. पुरानी कहावत है, हर संकट में एक अवसर छिपा होता है. जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक जगह लिखा है. बिना बदलाव के प्रगति असंभव है. जो अपना मस्तिष्क और मानस नहीं बदल सकते, वे कोई बदलाव नहीं ला सकते. महाराष्ट्र की इन घटनाओं और राहुल की शहादत से क्या हम हिंदी पट्टी के युवा सीखेंगे? हिंदी पट्टी के राज्यों के लिए इस संदर्भ में यह अवसर भी है. कुछ करने का, कुछ बनने का, कुछ बदलने का.
राहुल के व्यक्तित्व का एक पक्ष और है. इसे खुद राहुल भी नहीं जानता रहा होगा. उसकी शहादत में आंध्र के पोट्टी श्रीरामुलु की छवि दिखाई देती है. कौन थे पोट्टी श्रीरामुलु? गांधी के अनन्य भक्त. उन्होंने तेलुगुभाषी लोगों के लिए अलग राज्य बनाने के सवाल पर अनशन किया. 60 दिनों से अधिक. भूख हड़ताल कर अपनी जान दे दी, दिसंबर 1952 में. अंतत: उनकी शहादत की नींव पर आंध्रप्रदेश का गठन हआ. उनकी मौत ने आंध्र के घोर कम्युनिस्टों से लेकर दक्षिणपंथियों तक, सबको एकजुट कर दिया. श्रीरामुलु की मौत की लपटों से तेलुगुभाषियों की एकता और सपनों का नया अध्याय शुरू हआ. इस तरह पुराने मद्रास राज्य से आंध्रप्रदेश को अलग किया गया. अगर हिंदीभाषी क्षेत्रों के युवा एक नयी शुरुआत चाहते हैं, एक नयी पहचान चाहते हैं, एक ऐसा कदम रखना चाहते हैं, जिसके गर्भ से अनंत संभावनाओं के द्वार खुलें, तो उन्हें राहुल में आंध्र के गांधीवादी पोट्टी श्रीरामुलु को तलाशना, खोजना और ढ़ूंढ़ना होगा.
श्रीरामुलु गांधीवादी और तपे-तपाये इंसान थे. राहुल युवा लड़का. न कोई नेता, न समाजसेवी, न रामुलु जैसा व्यक्तित्व. कहीं से दोनों में तुलना असंगत है. पर राहुल की हालत को देखने पर लगता है, मुंबई में उसे हिंदीभाषियों के साथ अपमान और भेदभाव दिखा होगा, तो उसके अंदर यह समझ पैदा हई होगी कि इस मसले पर देश का ध्यान खींचा जाये. वह, यह अच्छी तरह समझ रहा होगा कि इस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन कर या बस में शोर कर वह राज ठाकरे तक नहीं पहुंचेगा. पर यही रास्ता उसे विरोध के सिंबल के रूप में दिखा होगा. अगर यह आकलन सही है, तो क्षणिक रूप में ही सही, श्रीरामुलु के दृढ़नि›श्चय की झलक राहुल में दिखाई देती है. यह स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरूरत है कि यह दोनों में तुलना का प्रसंग नहीं है.
यह मान लीजिए कि एक युवक राहुल ने आपके भविष्य के लिए अपनी शहादत दी है. इमरजेंसी में लिखे गये जॉर्ज फर्नांडीस के एक लेख का अंश याद आता है. आज जब जॉर्ज की याद आयी, तो वे दिन याद आये, जब जॉर्ज की बहादुरी, साहस और संघर्षशील व्यक्तित्व से देश और युवा चमत्कृत थे. पर समय होत बलवान. आज जॉर्ज उम्रदराज और अस्वस्थ हैं. कभी उसी जॉर्ज को मुंबई में राज ठाकरे की राजनीति के दर्शन की नींव रखनेवाले कांग्रेस महारथी सदोबा पाटील ने बाहरी कहा था. उन्हें ललकारा था. युवा जॉर्ज ने उन्हें चुनाव में हराया. उस जॉर्ज की जुबान से तब मुंबई खुलती और बंद होती थी. वह एक साथ रेल समेत 18 यूनियनों के अध्यक्ष होते थे. अत्यंत लोकप्रिय, लड़ाकू और नया इतिहास बनानेवाले. उसी जॉर्ज ने आपातकाल में लिखा था, मैं नगालैंड घूम रहा था. अंडरग्राउंड था. एक स्मारक पर गया. जिस पर कुछ पंक्तियां लिखी थीं, तुम्हारे कल के लिए हमने अपना आज कुर्बान कर दिया. जॉर्ज पढ़ कर सिहर गये. यह उन जवानों का स्मारक था, जो सुभाष बाबू की फौज, आजाद हिंद सेना के सिपाही थे. अंगरेजों से लड़ते हए शहादत दी थी. उन लोगों ने अपने संबोधन में आनेवाली पीढ़ियों के लिए कहा था, तुम्हारे कल के लिए यानी तुम्हारे भविष्य के लिए हमने, अपना आज यानी अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी है.
हिंदी पट्टी को गढ़ने का सपना रखनेवाले छात्र अगर राहुल को इस नजर से देखें, तो वे हिंदी पट्टी के राज्यों का नया भविष्य गढ़ेंगे. राहुल ने अपनी शहादत दी, बिहारी अस्मिता के लिए. बिहार के सम्मान के लिए. इस शहादत ने कम से कम राजनीतिक मंच पर लालूजी, रामविलासजी और नीतीशजी को एक जगह खड़ा तो किया. गैर हिंदी पट्टी के राज्यों में रह रहे हिंदीभाषी लोगों के मानस पर इन तीनों के एकजुट होने का बेहतर संदेश गया है. पर इससे ही बात नहीं बननेवाली. हिंदी पट्टी के युवकों को, चाहे वे उत्तर प्रदेश के हों, बिहार-झारखंड के या अन्य किसी हिंदी राज्य के, इस घटना ने एक नया अध्याय लिखने का अवसर दिया है. अगर वे फिर चूके, तो उनका इतिहास पराजय, अपमान और दुखों से भरा होगा. युवकों के लिए मत चूको चौहान वाली स्थिति है. जो पुनर्निर्माण की इस राह पर चलने का संकल्प लेना चाहते हैं, उनके लिए इतिहास कुछ सबक भी देता है. किसी भी राज्य या किसी राज्य के निवासी से घृणा न करें. वे मान कर चलें कि बिहार या हिंदी पट्टी के किसी राज्य से, देश बड़ा है. राज ठाकरे एक सड़ी राजनीति का प्रतिफल हैं. इसलिए घृणा राज ठाकरे से करें, उस राजनीति से करें, जो राज ठाकरे जैसे लोगों को, जन्म देती है. किसी अन्य से नहीं. हिंदी पट्टी के संकल्पवान युवक यह जरूर याद रखें कि हिंदी पट्टी के राज्यों को इसलिए गढ़ना और मजबूत करना जरूरी है, ताकि भारत मजबूत, सुंदर और विश्व ताकत बने. युवा यह समझें कि अपने राज्यों को उन्नत और बेहतर बना कर ही इस देश की एकता को वे बचा सकते हैं. भारत की एकता की राह, पिछड़े राज्यों के विकसित होने की गली से ही गुजर कर जाती है. हिंदी राज्यों का गरीब रहना, अविकसित रहना, देश की एकता के लिए खतरा है. पिछड़े राज्य विकसित और बेहतर हों, तो उनके यहां से माइग्रेशन (लोगों का बाहर जाना) बंद हो जायेगा. जैसे परिवार के दो भाई अपनी-अपनी दुनिया खुद गढ़ लें और स्वावलंबी हो जायें, तो वह रिश्ता टिकाऊ होता है.
हिंदी पट्टी के युवा एक ऐतिहासिक संदर्भ भी याद रखें. मशहूर गायिका शारदा सिन्हा ने एक पूर्वा गाया है. इस पूर्वा को लिखा था, जानेमाने कवि और गीतकार महेंद्र मिसिर ने. कभी बंबई में डॉ धर्मवीर भारती ने शारदा सिन्हा की गायी इस पंक्ति का उल्लेख कर हमें हिंदीभाषियों की व्यथा पर बहत कुछ सुनाया था. गाने की पंक्ति है-
लिखौलस रजमतिया, पतिया रोयी-रोयी ना ! . . . .
यह एक युवा तरुणी की व्यथा है, जिसकी तत्काल शादी हुई है. पति कमाने के लिए पानी के जहाज से रंगून चला जाता है. दशकों बाद वह लौटता है, तो प्रतीक्षारत बूढ़ी हो चली उसकी पत्नी, पहचान नहीं पाती. न वह अपनी पत्नी को पहचान पाता है. कमाने और खाने के प्रयास में उसका जीवन लुट गया है. गुजर गया है. यह असाधारण वेदना है, एक प्रतीक है. घर-घर की, जिससे पिछले कई सौ सालों से हिंदी इलाके पीड़ित और परेशान रहे हैं. गरीबी की मार ने हमें कहां-कहां पहुंचा दिया, क्या-क्या दिखा दिया? महेंद्र मिसिर की रजमतिया की सौत, बैरिन, दुश्मन तो गरीबी ही है न! गिरमिटिया मजदूर, मॉरिशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम जानेवाले लाखों-लाख हिंदी पट्टी के मजदूर उनकी व्यथा के वृतांत और दास्तान आज भी उन देशों में सुरक्षित हैं. उनकी पीढ़ियां बड़े भाव, पीड़ा से उन्हें याद करती हैं. यही मौका है, हिंदी पट्टी के राज्यों को विकास के शीर्ष पर ले जाकर उन पुरखों के ऋण से उऋण होने का. यह असाधारण काम है. इतिहास बनाने का अवसर है. वर्ड्सवर्थ की एक मशहर कविता है, ब्लिस वाज द डान टू वी एलाइव. यह कविता फ्रांस क्रांति के आसपास लिखी गयी. जिसका आशय था, इस दौर में जीवन पाना वरदान है, यानी जिस ऐतिहासिक क्षण, पल या घड़ी या दौर में फ्रांस की क्रांति हो रही है. मनुष्य नया सपना देख रहा है. समानता और बंधुत्व का, तब जीवित रहना और इसका गवाह बनना, सचमुच कितना रोमांचकारी है. कवि के अनुसार ऐसा जीवन वरदान है. हिंदी पट्टी के युवा महाराष्ट्र में हो रही इन घटनाओं को अगर इस दृष्टि से देखें, तो उन्हें संकल्प, पुनर्निर्माण और सृजन के वे अवसर दिखाई देंगे, जो इसके पहले किसी पीढ़ी को नसीब नहीं हुए? सवाल यह है कि क्या हमारी युवा पीढ़ी इसके लिए तैयार है?
युवकों की नयी पहल के लिए एक अनिवार्य शर्त है. कुछ चीजों को स्पष्टता से समझ लेना होगा. पहली चीज, आज की राजनीति, नया भारत, नया समाज और नया मानस नहीं बना सकती. यह राजनीति सड़ चुकी है. यह देश-तोड़क है. यह पैसे और भ्रष्टाचार के दो पायों पर टिकी है. इस कारण अच्छे लोग भी इस राजनीति में आकर अनुर्वर हो जाते हैं. क्रांतिकारी समाजवादी रामनंदन मिश्र ने एक बार कहा था कि यह धरती इतनी बांझ हो गयी है कि हम बेहतर से बेहतर बीज डालें, वे उगते ही नहीं. उपजते ही नहीं. राजनीति की धरती बंजर और अनुर्वर हो गयी है. आज की राजनीति सिमट गयी है, मैं, मेरा परिवार, मेरी पारिवारिक पाट और मेरा क्षेत्र. यह गरिमाहीन-श्रीहीन राजनीति है. इसलिए राजनीति में कुछ नया करना होगा. दूसरा और प्रामाणिक तथ्य यह है कि बदलाव राजनीति से ही संभव है. राजनीति में ही वह क्षमता है, जो देश को नये सिरे से गढ़ सके. पर इसके लिए भिन्न राजनीति चाहिए. राहुल गांधी ने एक अच्छी बात की है. पार्टी के अंदर लोकतंत्र की. पहले पार्टियों में अंदरूनी लोकतंत्र था. पार्टियों के वार्षिक अधिवेशन होते थे. हर प्रस्ताव पर लंबी बहस और मतदान होते थे. अर्थनीति, घरेलू नीति, विदेश नीति, कृषि नीति समेत सभी ज्वलंत समस्याओं पर खुली बहस होती थी. पार्टी संगठनों के अंदर अंदरूनी चुनाव होते थे. बड़े नेताओं की इच्छा के खिलाफ कार्यकर्ता जीतते थे. शिमला में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव में चंद्रशेखर, श्रीमती गांधी के आधिकारिक समूह के प्रत्याशी नहीं थे. पर वह सबसे अधिक मतों से जीते. इंदिराजी की इच्छा के खिलाफ. कांग्रेस में अनेक ऐसे महत्वपूर्ण अधिवेशन हुए, जिन्होंने नीतियों के सवाल पर कांग्रेस को एक नयी या खास स्थिति में ला खड़ा किया. वे लैंडमार्क अधिवेशन कहे जाते हैं. इसी तरह समाजवादी पार्टियों के अधिवेशनों का लंबा इतिहास रहा है, जिनमें जीवंत बहसें होती थीं. नीतियों के सवाल पर बड़े नेताओं के प्रस्ताव भी पराजित होते थे. कार्यकर्ताओं के प्रस्ताव पास होते थे. जनता पार्टी के गठन के बाद तक यह परंपरा डूबती-उतराती चलती रही. बाद के दिनों में पार्टियां परिवार की निजी संपत्ति बन गयीं. मसलन करुणानिधि की पार्टी को देखिए. उनके लगभग 200 स्वजन हैं, जो बड़े पदों पर हैं. बड़े अमीर हैं. और परिवार या कुनबा की पार्टी चला रहे हैं. न अंदरूनी लोकतंत्र है, न बहस की छूट है. बॉस या आलाकमान करुणानिधि अप्रसन्न, तो आपका राजनीतिक जीवन खत्म. श्रम, ईमानदारी, तप, त्याग, हुनर, कौशल, प्रतिभा, कामयाबी का कोई महत्व नहीं. ये लोकतंत्र के नये राजा, जागीरदार या शहंशाह हैं. ये अपने दरबारी, चापलूस, खजांची, नौकर, स्वजन से लेकर किसी पर प्रसन्न हो सकते हैं. और इनकी प्रसन्नता ही राजनीतिक कामयाबी की अनिवार्य शर्त है. दयानिधि मारन जैसे योग्य, युवा और होनहार राजनीतिज्ञ के साथ क्या हुआ? करुणानिधि की प्रसन्नता से ही वह राजनीति में आये. अचानक करुणानिधि की भृकुटी तनी और प्रधानमंत्री को दयानिधि मारन को हटाना पड़ा. याद रखिए, करुणानिधि के नजदीकी रिश्तेदार हैं, दयानिधि मारन. पर जब उन्हें लगा कि उनके बेटे को अपने बहन के लड़के, दयानिधि मारन से खतरा है, तो उनकी छु˜ट्टी हो गयी. करुणानिधि की बेटी भी राज्यसभा पहुंच गयी हैं. लगभग यही हाल अन्य दलों में है. लोकतंत्र को राजनीतिक दल ही जीवंत और मजबूत बनाते हैं. पर राजनीतिक दलों में अंदरूनी लोकतंत्र न हो, तो वे देश के लोकतंत्र को कैसे चला पायेंगे? विभिन्न दलों के निरंकुश आलाकमानों का समूह, सत्ता या विपक्ष में बैठ कर लोकतांत्रिक व्यवस्था में कैसे लोकतांत्रिक आचरण करेगा?
राहल गांधी ने इस जड़ को पकड़ा है. अगर हिंदुस्तान या खासतौर से हिंदी पट्टी के युवा सभी राजनीतिक दलों को अंदरूनी लोकतंत्र के रास्ते पर ले जाने के लिए विवश कर सकें, तो एक नयी शुरुआत होगी. दो तरह की राजनीति का फर्क बहुत साफ समझ लीजिए. पहली राजनीति तप की, त्याग की, विचारों की, अंदरूनी लोकतंत्र माननेवाली पार्टियों की, नया राज्य, समाज, देश गढ़ने की. चुनौतियों को कबूल करने की. गांधीजी ने देश को इस रास्ते पर डाला. परिणाम क्या हुआ. सुखों की जिंदगी को लात मार कर नेहरू राजनीति में उतरे. जर्मनी से पढ़ कर लौटे लोहिया ने देश-सृजन की आग में खुद को झोंक दिया. अमेरिका पलट जयप्रकाश राजनीति में कूद पड़े. ऐसे लोगों की लंबी सूची है. आप जानते हैं, सीआर दास को, जो सुभाष बाबू के राजनीतिक गुरु थे, जिन्होंने महर्षि अरविंद के मशहर अलीपुर ट्रॉयल के बहस में ऐतिहासिक और अमर बातें की थीं. जज को संबोधित करते हए उन्होंने कहा, जो युवक (अरविंद) आप के सामने मुजरिम के रूप में खड़ा है, वह मानवता के इतिहास में अमर रहेगा, जबकि आप (जज) और हम (सीआर दास) विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जायेंगे, आप जज को यह मान कर चलना चाहिए कि श्री अरविंद इस अदालत के सामने नहीं इतिहास के हाइकोर्ट के सामने खड़े हैं. सीआर दास की भविष्यवाणी सच हुई. श्री अरविंद रिहा हुए, मानवता के इतिहास ने सचमुच ही उन्हें अपने शिखर पर बिठा दिया. (अरविंद मेरी दृष्टि में : रामधारी सिंह दिनकर) उस बैरिस्टर सीआर दास की प्रैक्टिस (वकालत), अंगरेजों के जमाने में लाखों की थी. पर सब कुछ ठुकरा कर वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े. उनके अंतिम दिन अत्यंत आर्थिक कठिनाइयों में गुजरे. ऐसे लोगों की भी सूची बड़ी है. ये प्रतिभाएं तप, त्याग और लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली की उपज थीं.
आज जब राजनीतिक दलों में लोकतंत्र ढह गया है, आलाकमान सर्वेसर्वा बन गये हैं. पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गयी हैं. तब ऐसी प्रतिभाएं कहां से सामने आयेंगी? अब अमर सिंह जैसे लोग सामने आयेंगे. अमर सिंह एक व्यक्ति नहीं, एक विशेषण हैं. धारा के प्रतीक हैं. वे कल्ट हैं. इनकी कुल कला क्या है, मैनेज करने की. उद्योग, फिल्म से लेकर हर दल में पैठ, पैसे की ताकत. जब इस तरह की राजनीतिक धारा चलेगी, तो इससे अमर सिंह जैसे लोगों का झुंड ही हर दल में सामने आयेगा. इसलिए, इस राजनीति को बदलना, देश बदलने की अनिवार्य शर्त है. जब ऐसी धारा के लोग आयेंगे, तो लोकसभा, राज्यसभा या विधानमंडलों में पुराने दिनों की तरह स्तरीय और बेहतर बहसें होंगी? तब राज ठाकरे नहीं पैदा होंगे, होंगे भी तो किसी कोने में सड़ जायेंगे. यह देश मजबूत बनेगा. पहली धारा की राजनीति के लोग अपने बारे में बात नहीं करते थे. मुझे स्मरण है. शायद 12वीं क्लास का विद्यार्थी था. जेपी 1972 के आसपास अपने गांव आये. सिताबदियारा. एक-दो माह रहने की योजना बना कर. पर बीच में ही प्रभावती जी को कैंसर हो गया. उन्हें लौटना पड़ा. तब एचएन बहगुणा केंद्र में संचार मंत्री थे. जेपी का गांव, दो नदियों के बीच में है. तब रास्ता बड़ा दुरूह था. 10-12 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था. बहगुणा के विभाग के लोग जेपी के घर टेलीफोन लगाने के लिए आये. उन्होंने मना कर दिया. एक दिन जेपी के गांव के लोगों ने उनसे कहा, आप इतने बड़े आदमी हैं, पर हमारे यहां आने-जाने के लिए सड़क तक नहीं है. हम जानते हैं आप किसी को कह भर देंगे, तो सड़क बन जायेगी. आप खुद ही गांव पैदल और नदी पार कर आते हैं. आपसे अधिक हमारी कठिनाई कौन जानता है. जेपी का जवाब था, हिंदुस्तान में साढ़े पांच लाख गांव हैं. उन सबकी स्थिति खराब रहे और मेरे गांव की स्थिति बेहतर हो जाये, तो लोग मुझे क्या कहेंगे? इस एक जवाब में तत्कालीन राजनीति का पूरा दर्शन छिपा है. राजनीति दूसरों के लिए, अपने लिए नहीं. यही स्थिति उत्तरप्रदेश की है. देश के सर्वाधिक प्रधानमंत्री यूपी से हुए. जवाहर लाल जी, लाल बहादुर शास्त्री जी, इंदिरा जी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी. पर आज भी यूपी, बीमारू राज्य ही बना रहा. ऐसा नहीं कि ये नेता चाहते तो यूपी में कुछ कर नहीं सकते थे. पर इनके सामने पुरानी राजनीति की मर्यादा, नैतिकता, लक्ष्मण रेखा और बंधन थे. पूरा देश हमारा है. पहले प्राथमिकता अन्य राज्यों को, तब गृह राज्य को. यह सिद्धांत और आचरण जन्मा पुरानी राजनीति से. आज की राजनीति खुदगर्ज के लिए हो गयी है. अपने लिए हो गयी है (हालांकि इसके अपवाद भी देश में हैं और हर दल में हैं). यह स्वार्थ की राजनीति उपभोक्तावादी राजनीतिक दर्शन के पेट से निकली है. इसलिए इस राजनीति का व्याकरण बदलना सबसे बड़ी चुनौती है. इस बदलाव से ही हिंदी इलाकों का भाग्य पलटेगा. देश का नसीब बदलेगा. और यह युवा ही बदल सकते हैं. लगभग तीन वर्ष पहले जब तमिलनाडु में चुनाव हुए, तो आइआइटी के प्रतिभाशाली छात्रों ने दल बनाया. चुनाव लड़ा. अपना घोषणा पत्र तैयार किया. एक नयी राजनीति के लिए. एक नये समाज के लिए. एक नये देश के लिए. पर वे छात्र राजनीति के बीहड़ में अधिक दिनों तक टिक नहीं सके. उनके आदर्श और सपने, लगता है चुनौतियों के थपेड़े में बह गये. पर हिंदी पट्टी के युवाओं को यह करना ही पड़ेगा. इस अर्थ में उन्हें गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, मधु लिमये, किशन पटनायक जैसे लोगों से प्रेरणा लेनी होगी. 2-3 वर्ष का समय देश के लिए निकालिए. गांव-गांव जाइए. लोगों को देश के हालात समझाइए. दलों के अंदरूनी हालात बतलाइए. देश के दिशाहीन होने की बातें बताइए और आग्रह कीजिए कि उदासीन, चुप और तटस्थ करो़ंड़ों-करोड़ लोग फिर नये सिरे से राजनीति को गढ़ने के लिए, भारत बचाने के लिए, हिंदी पट्टी के राज्यों के विकास के लिए उतरें. सक्रिय हों.
मुंबई में मारे गये उत्तर भारतीय (जिनकी सूचनाएं सार्वजनिक हई हैं)
दिन 19 अक्तूबर – रामू दास- चलती ट्रेन से फेंका था, अब तक नहीं मिला-झारखंड के खूंटी का रहनेवाला – मजदूरी करता था.
दिन 19 अक्तूबर – सकलदेव रजक – ट्रेन से फेंका, मौत – झारखंड के सिंदरी का- नौकरी की तलाश में था.
दिन 19 अक्तूबर – पवन कुमार – पिटाई से हई मौत – नालंदा का रहनेवाला – परीक्षा देने गया था.
दिन 27 अक्तूबर – राहुल राज – इनकाउंटर में मरा – पटना का था – राज ठाकरे की तलाश में गया था.
दिन 29 अक्तूबर – धर्मदेव राय – पिटाई से हुई मौत – उत्तर प्रदेश का था – मजदूरी करता था, छठ में घर लौट रहा था.
गंभीर घायल
दिन 30 अक्तूबर – दीनानाथ तिवारी, पत्रकार – भगवती अस्पताल में भरती – हिंदी पट्टी के – रिपोर्टिंग के दौरान गंभीर पिटाई.

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