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मिलिए सुनीता पाटिल से, जो करती हैं लोगों के अंतिम सफर को आसान

नासिक : जिंदगी के अंतिम सफर पर जाने वाला हर इंसान इतना खुशनसीब नहीं होता कि उसे अपनों के चार कंधों का सहारा मिल सके और अंतिम सफर में भी बेसहारा रह जाने वाले ऐसे ही बदनसीबों के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है सुनीता पाटिल जो पूरे सम्मान के साथ कफन दफन का […]

नासिक : जिंदगी के अंतिम सफर पर जाने वाला हर इंसान इतना खुशनसीब नहीं होता कि उसे अपनों के चार कंधों का सहारा मिल सके और अंतिम सफर में भी बेसहारा रह जाने वाले ऐसे ही बदनसीबों के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है सुनीता पाटिल जो पूरे सम्मान के साथ कफन दफन का इंतजाम करती हैं. जिंदगी के 35 सालों में ही बडे उतार चढाव देख चुकी सुनीता पाटिल कहती हैं, जिंदा लोग धोखा दे सकते हैं लेकिन मुर्दे कभी दगा नहीं करते यही वजह है कि मैं मुर्दो से प्यार करती हूं और उनके अंतिम सफर को इज्जत बख्शने के लिए मुर्दो की सेवा करती हूं.

सुनीता पिछले करीब एक दशक से अधिक समय से स्वैच्छिक रुप से मुर्दो के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी संभाल रही हैं और वे इसे अपना बेहद पाक फर्ज मानती हैं. नासिक में पंचवटी के अमरधाम श्मशान घाट पर रोजाना औसतन पांच शव लाए जाते हैं और सुनीता मृतक के परिजन की मदद करने को तैयार रहती हैं. सुनीता श्मशान घाट के समीप ही एक दुकान भी चलाती हैं जहां वह कुछ पर्चे बेचती हैं जिन पर अंतिम संस्कार के बारे में जानकारी लिखी होती है. वह मृतक के परिजन को ढांढस बंधाती हैं और इतना ही नहीं मुर्दे के चेहरे को साफ करने और उस पर तेल या घी और चंदन का लेप लगाने में भी वह उनकी मदद करती हैं.
सुनीता के पिता चिता के लिए लकडियां बेचने का काम करते हैं और उन्होंने उन्हीं से मुर्दो की सेवा करना सीखा है.किसी भी आम इंसान को भले ही यह सब खौफनाक लगे लेकिन सुनीता ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया, मेरे पिता चिता की लकडियां बेचने का काम करते थे और जब मैं दस साल की थी तभी से देखती आ रही हूं कि कैसे मुर्दे के परिजन अंतिम संस्कार करते हैं. मुझे पता नहीं कि कब मुर्दो से मुझे लगाव शुरु हो गया और शव को चिता पर लिटाकर मुखाग्नि दिए जाने से पहले की सभी रस्मों से मैं जुडती चली गयी.
सुनीता ने बताया, कई बार जब सडी गली हालत में किसी मुर्दे को लाया जाता है तो उसके परिजन रुमाल से अपनी नाक ढक लेते हैं लेकिन ये सब चीजें मुझे कभी अपना काम करने से नहीं रोक पायीं. जब वे मुझे पैसे देते हैं तो मैं बडी शालीनता से यह कहते हुए इंकार कर देती हूं कि इसे उन लोगों को दे दो जिन्हें इसकी ज्यादा जरुरत है. पांच भाइयों और पांच बहनों में सबसे छोटी सुनीता के दो बेटे हैं जो दुकान चलाने में उसकी मदद करते हैं.
इस निस्वार्थ सेवा के लिए सुनीता को बहुत से पुरस्कार भी मिल चुके हैं जिनमें महाराष्ट्र सरकार का हीरकानी पुरस्कार भी शामिल है. अपनी दुकान में रखे स्मृति चिह्नों, पुरस्कारों और प्रशस्ति पत्रों की ओर इशारा करती हुई आठवीं कक्षा पास सुनीता कहती है, ईमानदारी से कहूं तो मुझे पुरस्कारों की बजाय मुर्दो की सेवा करने में कहीं अधिक दिली सुकून मिलता है.
यह पूछे जाने पर कि वह अब तक अंदाजन कितने मुर्दो की सेवा कर चुकी होंगी, सुनीता ने एक रजिस्टर देखकर बताया, इस वर्ष एक जनवरी से यहां अब तक 871 मुर्दे लाए गए और मैंने उनमें से लगभग सभी की सेवा की, चाहे दिन हो या रात. इस सवाल पर कि उन्हें किस बात से सबसे अधिक पीडा या हताशा होती है, वह कहती है कि जार-जार रोते उन मां बाप को देखकर बहुत दुख होता है जिनके बच्चे दुनिया से चले जाते हैं. वह कहती है, जब जवान बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं या किसी हादसे में मारे जाते हैं तब मेरे दर्द की इंतहा नहीं रहती और मैं टूट जाती हूं.

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