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””हम परदेसी पंछी””

– हरिवंश – गुरुवार देर रात रांची लौटा. बाहर से. दफ्तर आया. कुछेक लोगों को पत्र लिखा. उनमें प्रभाषजी भी थे. फिर घर लौटा. सो गया. तड़के नींद खुली. सूचना मिली. प्रभाषजी नहीं रहे. गहरा झटका और आघात. जिनकी सोहबत ने मांजा, ताकत दी, दृष्टि दी. वह नहीं रहे. अचानक गये. याद आया इसी तरह […]

– हरिवंश –
गुरुवार देर रात रांची लौटा. बाहर से. दफ्तर आया. कुछेक लोगों को पत्र लिखा. उनमें प्रभाषजी भी थे. फिर घर लौटा. सो गया. तड़के नींद खुली. सूचना मिली. प्रभाषजी नहीं रहे. गहरा झटका और आघात. जिनकी सोहबत ने मांजा, ताकत दी, दृष्टि दी. वह नहीं रहे. अचानक गये. याद आया इसी तरह धर्मवीर भारती गये. गणेश मंत्री गये. जिनके सानिध्य में काम करना सीखा. जहां पत्रकारिता, जीवन के संस्कार व मूल्य बने- विकसित हुए. भाई सुरेंद्र प्रताप सिंह और उदयन जी भी अचानक नहीं रहे. ये सभी एक पल में याद आये. इन सबके सानिध्य में ही पत्रकारिता का संसार समझा-बूझा.
प्रभाषजी व्यक्ति नहीं, प्रतीक बन गये थे. श्रेष्ठ मूल्यों के. जीने के मकसद के. पत्रकारिता के उच्च प्रतिमानों के. तीन दिनों पहले पटना से उनका फोन आया था. वह प्रभात खबर के पथ प्रदर्शक थे. निजी जीवन में भी अभिभावक. डूमस (सूरत), इंदौर, भोपाल, जबलपुर, दिल्ली, पटना, रांची, जयप्रकाशनगर, देवघर, हजारीबाग, वगैरह कई जगहों पर उनके साथ रहना हुआ. कई बार.
अत्यंत संवेदनशील. गांधी और विनोबा के जीवन मूल्यों का उन पर गहरा असर था. साधन और साध्य उनके जीवन के मापदंड थे. उनकी रुचि बहुआयामी थी. लेखन, खेल, संगीत, इतिहास, पाककला सबमें निपुणता. 1983 में उनके नेतृत्व में निकला जनसत्ता हिंदी अखबारों में मानक है. श्रेष्ठ टीम. और ऐसा अखबार, जो लीक से हट कर था. कहें, एक नयी राह बनायी. वह सिर्फ अखबारनवीस ही नहीं थे, देश के गंभीर सवालों से जुड़े थे. जिन मूल सवालों को आज कोई नहीं उठाना चाहता, वह उन्हें उठाते थे. लिख कर. बोल कर. देश के कोने-कोने में जाकर. कार्यक्रम आयोजित करा कर.
अक्सर बातचीत में वह शास्त्रीय संगीत उद्धृत करते थे. मार्मिक गायन सुन कर उनका मन भर आता था. वह भावुक इंसान थे. महानगर में रहते हुए, एक गांव के सहज आदमी के गुणों से भरपूर. वह अक्सर कुमार गंधर्व को याद करते थे. उनके गायन को उद्धृत करते थे. उनके न रहने की खबर पढ़ कर उनकी सुनायी यह पंक्ति सुबह-सुबह याद आयी- निरभय निरगुन गुन रे गाऊंगा.
वह लेखन, कर्म और जीवन में निर्भय ही रहे. उनका एक लेख याद आता है. ‘ हम परदेसी पंक्षी बाबा’. इस लेख में वह एक शीलनाथ बाबा का उल्लेख करते हैं. इसे खुद पढ़ें.
तो शीलनाथ बाबा जो भजन गाते थे-वे मालवी में थे और मालवी धुनों में बांधे गये थे. हम परदेसी पंछी बाबा अणी देस रा नाहीं-उनका बहुत प्रिय भजन था. उनकी इच्छा थी कि जब वे इस देश से अपने देश की ओर उड़ें, तो उनके शिष्य यह भजन गा रहे हों और इसे सुनते-सुनते उनके प्राण पखेरू उड़ जाएं-मुख बिन गाना. पग बिन चलना. बिना पंख उड़ जाई. बिना मोह की सूरत हमारी, अनहद में रम जाई. भाई संतों अणी देस रा नाहीं? हम परदेसी पंछी बाबा.
प्रभाषजी भी परदेसी पंछी की तरह ही गये. अचानक. उनसे जुड़ी स्मृतियों का समुद्र उमड़ता है. भावी योजनाओं की बातें भी. पर अब तो यह सब अतीत बन गया. उनकी स्मृति को सादर प्रणाम.
दिनांक : 07-11-2009

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