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क्या नरेंद्र मोदी सरकार के लिए संसदीय राजनीति के हालात हैं बेकाबू?

नयी दिल्ली : चर्चा है कि अपने अध्यादेशों को बचाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार संसद के बजट सत्र के अवसान का एलान 20 मार्च को ही कर सकती है. परंपरागत तौर पर बजट सत्र संसद का सबसे लंबा सत्र होता है, जिसके दो चरण होते हैं और इन दोनों चरणों के बीच एक महीने […]

नयी दिल्ली : चर्चा है कि अपने अध्यादेशों को बचाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार संसद के बजट सत्र के अवसान का एलान 20 मार्च को ही कर सकती है. परंपरागत तौर पर बजट सत्र संसद का सबसे लंबा सत्र होता है, जिसके दो चरण होते हैं और इन दोनों चरणों के बीच एक महीने का अवकाश होता है. मौजूदा बजट सत्र का भी पहला चरण 20 मार्च को खत्म हो रहा है और उसके बाद 19 अप्रैल तक अवकाश रहेगा और सत्र का दूसरा चरण 20 अप्रैल से शुरू होगा.
संसदीय प्रावधानों के अनुसार, अगर कोई सरकार किसी प्रकार का अध्यादेश लाती है, तो उसे संसद की कार्यवाही शुरू होने व उसके जारी होने की स्थिति में 42 दिन यानी छह सप्ताह में पारित नहीं करवा पाती है, तो वह स्वत: रद्द हो जाता है और संसद का सत्र जारी रहने की स्थिति में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती. यानी, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सहित सरकार के कुछ अहम अध्यादेश की समाप्ति पांच अप्रैल को हो जायेगी और फिर यह संसद अवकाश का समय भी बजट सत्र माने जाने के कारण सरकार नया अध्यादेश नहीं ला सकेगी. वहीं, अगर वह बजट सत्र को 20 मार्च को ही समाप्त करने की घोषणा कर देती है, तो इसके बाद वह नये सिरे से अध्यादेश ला सकती है. और, फिर 20 अप्रैल या उसके बाद से शुरू होने वाले सत्र को गृष्म सत्र का नाम देकर नये सिरे से उसे पारित करवाने की कोशिश कर सकती है.
मौजूदा सत्र की क्या हैं तकनीकी सीमाएं
संसद के बजट सत्र की कार्यवाही फरवरी के चौथे सप्ताह में शुरू हुई है और इसके पहले चरण का समापन 20 मार्च होगा, फिर उसके बाद लगभग एक महीने के अवकाश के बाद सदन के बजट सत्र की कार्यवाही का दूसरा चरण शुरू होगा. इस पूरी अवधि को संसद का एक ही सत्र यानी बजट सत्र माना जाएगा, जिसमें मोदी सरकार को भूमि अधिग्रहण सहित अपने अन्य प्रिय अध्यादेशों को 42 दिन के अंदर पारित करवाना होगा. अगर सरकार ऐसा नहीं कर पाती है, तो वह रद्द हो जायेगा. पर, यदि संसद का मौजूदा बजट सत्र 20 मार्च को समाप्त कर सरकार अपने प्रिय अध्यादेशों को जीवन दान दे सकती है.
ऐसी दुरुह परिस्थिति में मोदी सरकार के पास दो रास्ते हैं या तो संसद के बजट सत्र के पहले चरण की कार्यअवधि 20 मार्च तक को थोडा विस्तारित करे और अध्यादेशों को कानूनी शक्ल देने के लिए उसे पारित कराये. दूसरा 20 मार्च को ही बजट सत्र के समापन का एलान कर दे और इसके बाद संसद का दूसरा फ्रेश सत्र बुलाये. यह फ्रेश सत्र संयुक्त सत्र के रूप में भी हो सकता है, जिसका मोदी सरकार बारबार संकेत देती रही है.
हंगामे की भेंट चढते मोदी के त्वरित कार्य के सपने
संसद के मौजूदा हालात नरेंद्र मोदी सरकार के लिए अनुकूल नहीं है. एक के बाद एक मुद्दे पर विपक्ष का हंगामा जारी है. भूमि अधिग्रहण, राहुल गांधी की कथित जासूसी, हरियाणा में चर्च पर हमले व पश्चिम बंगाल में नन दुष्कर्म कांड के मुद्दे पर संसद की कार्यवाही लगातार बाधित हो रही है. अब तो हालात यह हो गया है कि लगभग पूरा विपक्ष ही भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर एकजुट हो गया है और आज शाम राष्ट्रपति भवन के समक्ष प्रदर्शन करने जा रहा है. ध्यान रहे कि संसद के पिछले सत्र में भी मोदी सरकार खाली हाथ रही थी. उस समय धर्मातरण, घर वापसी जैसे मुद्दे ने सरकार के तेज फैसलों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. जिसके बाद सत्र खत्म होने के महज एक सप्ताह के अंदर सरकार सात आठ अध्यादेश ले आयी.
मोदी के चार चाणक्य की क्या है भूमिका?
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी सरकार के रणनीतिकार मौजूदा राजनीतिक हालात को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं? नरेंद्र मोदी के बाद उनकी सरकार के पांच सबसे अहम मंत्री राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू और सुषमा स्वराज का राजनीतिक कौशल क्यों काम नहीं कर पा रहा है? भारतीय संसद के लिए नरेंद्र मोदी भले ही नया हों, जैसा वे खुद बारंबार कहते रहे हैं, लेकिन राजनाथ, जेटली, वेंकैया व सुषमा के पास लंबा संसदीय अनुभव है. जेटली व सुषमा तो क्रमश: राज्यसभा व लोकसभा में पार्टी के नेता भी रहे हैं. इन चारों नेताओं के राजनीतिक रिश्ते पार्टी के दायरे से बाहर भी हैं, इनमें राजनीतिक सूझबूझ भी है, फिर इनका कौशल क्यों काम नहीं कर रहा है? क्यों नहीं ये विपक्ष के कुछ दलों को अहम विधेयकों पर समर्थन के लिए राजी कर पा रहे हैं?
क्या एनडीए वन में ऐसे हालात संभव थे?
नरेंद्र मोदी हर सार्वजनिक कार्यक्रम में अपनी पार्टी की पहली सरकार यानी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए वन की सरकार की तारीफ करते हैं. मोदी के शब्द उस सरकार के नेतृत्व को करिश्माई करार देते हैं और सोच को दूरदृष्टि वाला. अटल बिहारी वाजपेयी के पास चार, पांच दशकों का लंबा संसदीय अनुभव था. वे एक सक्रिय राजनेता के रूप में भारतीय संसद की हर जटिलता को समझते थे और उलझी गुथ्थियों को सुलझाना भी जानते थे. पार्टी के दायरे से बाहर उनके प्रशंसकों, मित्रों व यहां तक नीतियों के समर्थकों की लंबी कडी थी. शायद मोदी, वाजपेयी से इन्हीं बिंदुओं पर पिछड जाते हैं. वाजपेयी कभी भी अपने कार्यप्रदर्शन के लिए अध्यादेशों पर निर्भर नहीं रहे. उनके पास, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीज, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा सहित ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे अहम राजनीतिक सहयोगी थे.

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