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नेपाल में नमो-नमो की गूंज से क्या चीन का असर होगा कम !

– मुकुंद हरि- भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा काफी सफल बतायी जा रही है. नेपाल के राजनीतिक गलियारों के अलावा नेपाली जनता के दिल में भी मोदी की लोकप्रियता किस कदर घर कर चुकी है, इसका नज़ारा तब देखने को मिला जब मोदी अपने नेपाली समकक्ष सुशील कोइराला से सिंह-दरबार स्थित उनके […]

– मुकुंद हरि-

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा काफी सफल बतायी जा रही है. नेपाल के राजनीतिक गलियारों के अलावा नेपाली जनता के दिल में भी मोदी की लोकप्रियता किस कदर घर कर चुकी है, इसका नज़ारा तब देखने को मिला जब मोदी अपने नेपाली समकक्ष सुशील कोइराला से सिंह-दरबार स्थित उनके प्रधानमंत्री कार्यालय से द्विपक्षीय वार्ता करने के बाद संविधान सभा जा रहे थे.

रास्ते में मोदी ने अपना काफिला रुकवाया और संविधान सभा को संबोधित करने से पहले लोगों से बात की. मोदी ने अपनी सुरक्षा का प्रोटोकॉल तोड़ते हुए अपनी गाड़ी रुकवाई और नेपाली जनता का हाथ हिलाकर अभिवादन किया. बदले में वहां मोदी की एक झलक पाने को बेताब लोगों ने भी हर-हर मोदी के नारे से मोदी के प्रति अपने प्यार को जताया.

गौरतलब है कि भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ऐसे नेता हैं जो नेपाल में पिछले 17 सालों के बाद किसी द्विपक्षीय दौरे पर गये हैं. इनसे पहले इंद्र कुमार गुजराल ने नेपाल की यात्रा भारत के प्रधानमंत्री के रूप में की थी. साल 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी नेपाल गये थे मगर तब मौका द्विपक्षीय यात्रा का न होकर सार्क देशों के शिखर सम्मलेन का था.

क्या पड़ोसी देशों के लिए बदल रही है भारत की विदेश नीति !

भारत पूरी दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में स्थापित देश है मगर पिछले डेढ़-दो दशकों से भारत की अपने पड़ोसी देशों के प्रति बनी हुई विदेश नीति काफी सुस्त हो चुकी थी, जिसका नतीजा ये हुआ कि तेजी से विकसित हो रही नयी आर्थिक शक्ति वाले देश चीन ने इन देशों में अपना पंजा फैलाना शुरू कर दिया. यही वो वक्त था जब राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री थे और नेपाल के इस कदम से नाराज भारत ने नेपाल को दी जा रही अपनी मदद में सख्ती बरतनी शुरू कर दी.

भारत के मुताबिक यह खरीदारी 1959 और 1965 में की गयी भारत-नेपाल संधियों का खुला उल्लंघन थी. उस संधि में कहा गया था कि जब कभी भी नेपाल किसी अन्य देश से हथियारों की खरीद-फरोख्त करेगा तो भारत की स्वीकृति अवश्य लेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ऐसे माहौल में भारत-नेपाल संबंधों में अचानक गिरावट आयी.इससे आपसी संबधों पर प्रतिकूल असर पड़ना स्वाभाविक था. इस मौके का सबसे ज्यादा फायदा चीन ने उठाया और नेपाल में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिशें तेज कर दीं.

साल 1988 के पहले तक भारत और नेपाल के रिश्ते बहुत बेहतर माने जाते थे मगर चीन ने नेपाल की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहां अपनी चालें चलनी शुरू कीं, नतीजतन यहां माओवादी आंदोलन शुरू होने लगे और राजशाही के अंत के बाद ये माओवादी नेता समूचे नेपाल में अस्थिरता और हिंसा के साथ-साथ भारत विरोधी माहौल बनाने में जुट गए. इस बीच कभी काठमांडू में राजमहल के बाद सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले भारतीय-दूतावास की ताकत भी दिन-ब-दिन घटने लगी और नेपाल की राजनीति पर चीन का असर भारत से ज्यादा हो गया.

लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण के आयोजन में जिस तरह सार्क देशों के प्रतिनिधियों को बुलाकर एक नयी शुरुआत करके आशा की झलक दिखाई थी, लगता है वो उम्मीदें अब परवान चढ़ रही है.तभी तो प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी सबसे पहले अपने पड़ोसी देशों की यात्रा और उनके साथ दोस्ती, सद्भाव और उनके विकास में सहायता देने की नीतियों पर जोर देते दीख रहे हैं. निश्चित रूप से दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते कदम और हस्तक्षेप को साधने की ये एक असरदार पहल है.

हालांकि, राजीव गांधी की अनुभवहीनता की वजह से भारत सरकार की तरफ से देश की नेपाल-नीति के प्रति किये गए ना-वाजिब निर्णय के बाद से अब तक नेपाल को लेकर भारत की तरफ से कोई स्पष्ट नीति दिखाई नहीं पड़ रही थी. जो कुछ था वो कूटनीति के बल पर चल रहा था. हालांकि, दो-ढाई दशक का समय कम नहीं होता मगर फिर भी मोदी अगर इस नयी शुरुआत को जारी रखते हैं तो भारत के लिए उनकी ये नीतियां आने वाले समय में बहुत मददगार साबित होने वाली हैं.

क्यों है चीन की नेपाल पर नजर

दरअसल, चीन 1962 में भारत से युद्ध के बाद नेपाल को अपने सामरिक हितों के लिए महत्वपूर्ण मानने लगा. इसीलिए, 1962 युद्ध के बाद चीन ने ये कहा था कि नेपाल कई साल से विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ता रहा है इसलिए हम नेपाल के राजा को आश्वस्त करना चाहते हैं कि भविष्य में नेपाल पर किसी तरह के विदेशी आक्रमण की स्थिति में चीन सदैव नेपाल के साथ खड़ा होगा.

इस बात में निश्चित रूप से चीन का इशारा भारत की तरफ ही था. इसके बाद, नेपाल ने 1973 के सम्मेलन में नेपाल को शांति-क्षेत्र घोषित करने की वकालत शुरू कर दी. नेपाल में माओवाद का प्रसार भारत का विरोध करके ही हुआ है. माओवादी यह मानते है की नेपाल की गरीबी का मुख्य कारण भारत है. माओवादी संगठन भारत को नेपाल के पिछड़ेपन का कारण मानते हैं. इस प्रकार आज वह भारत विरोधी वातावरण जो दिख रहा है, वह नेपाल में चीन द्वारा फैलाई गई माओवादी नीति के कारण ही है.

नेपाल का दिल जीतने के लिए चीन ने बुनियादे ढांचे के विकास के नाम पर नेपाल में सड़कों, हवाई-अड्डों, पुलों को बनाने का काम किया है और चीन की नज़र नेपाल की नदियों की बदौलत पैदा की जा सकने वाली बिजली की अपार संभावनाओं पर भी है. इसके अलावा नेपाल को अपने पाले में लाकर चीन भारत तक अपनी सामरिक पहुंच आसन बना सकता है. यही वजह है कि चीन नेपाल को लेकर इतना संजीदा है.

भारत और नेपाल की समानता

नेपाल और भारत दोनों ऐसे देश हैं जो काफी हद तक अपनी संस्कृति और परंपरा में समरूपता के कारण एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. ये वो मुद्दा है जिसकी वजह से स्वाभाविक रूप से नेपाल के लोग भारत को अपने ज्यादा करीब पाते हैं. धर्म और संस्कृति की एकरूपता की वजह से ही आज भी नेपाली लोग हिंदी फिल्मों के बहुत दीवाने हैं.

मोदी भी समझदार नेता हैं और वो इन बातों को जानते हैं. इसी वजह से अपनी नेपाल यात्रा में जहां एक तरफ वो काठमांडू में भगवान पशुपतिनाथ के दर्शन करने गए वहीं दूसरी तरफ नेपाल की संविधान सभा को संबोधित अपने भाषण में बुद्ध का नाम लेकर भारत और नेपाल के रिश्तों को एक साथ जोड़ने की कोशिश की.

इन बातों का असर ये हुआ कि भारत के कट्टर विरोधी माने जानेवाले पुष्प दहल प्रचंड जैसे माओवादी नेता भी मोदी की बातों के मुरीद हो गए और उन्होंने भी मोदी की अगुआई में भारत सरकार की तरफ से द्विपक्षीय व्यापार के लिए अपनी मंजूरी देने की बात कही.

मोदी ने भारत के किसी प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार नेपाल की संविधान-सभा को संबोधित किया और इसे एक गौरव की बात माना जाना चाहिए.

नेपाल के विकास और दोनों देशों के रिश्ते बेहतर बनने के लिए मोदी ने वहां एक नया फॉर्मूला दिया जिसे उन्होंने हाईवे, इंफोवे और ट्रांसवे का नाम दिया. इसके अलावा उन्होंने नेपाल को पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने की भी बात कही ताकि भारत के ज्यादातर सैलानी वहां जा सकें ताकि नेपाल की अर्थ-व्यवस्था को मदद मिल सके. फिलहाल चीन से सालाना 60 लाख तो भारत से करीब 40 लाख लोग नेपाल में घूमने जाते हैं. मोदी चाहते हैं कि भारत के लोग चीन की तुलना में ज्यादा संख्या में नेपाल जायें ताकि नेपाल और भारत और करीब आ सकें.

नेपाल में बिजली उत्पादन की असीम संभावनाएं हैं. इसलिए, भारत चाहता है कि नेपाल में पनबिजली के क्षेत्र पर ध्यान दिया जाये ताकि वहां निवेश करके बड़े पैमाने पर बिजली पैदा की जा सके. ऐसा होने से भारत की ऊर्जा जरूरतें तो पूरी होंगी ही साथ में नेपाल जैसे कमजोर अर्थ-व्यवस्था वाले देश को भी मुफ्त बिजली देकर वहां बिजली की कमी को पूरा किया जा सकेगा.

इसके अलावा मोदी ने भारत की तरफ से नेपाल को 61 अरब रूपये की आर्थिक मदद के अतिरिक्त दस हज़ार करोड़ रुपये के न्यूनतम ब्याज वाले ऋ ण देने की बात भी कही है.

सबका साथ, सबका विकास नारे को चरितार्थ करती मोदी की ये पहल पहले भूटान और इस बार नेपाल के विकास को लेकर है, जिसका सीधा फायदा भारत के निजी हितों के साथ जुड़ा है. इस बेहतरीन पहल के साथ अब हम ये उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि नेपाल में ड्रैगन की धमक आने वाले सालों में शायद अब उतनी न रह जाये जितनी पिछले 18-20 सालों में रही है.

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