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लिट फेस्ट कल्चर पर विष्ष्णु खरे ने कही खरी बात, बोले-विदेशी प्रकाशकों का षड़यंत्र है यह

जयपुर : सुप्रसिद्ध कवि विष्णु खरे ने समानांतर साहित्य उत्सव को एक बड़ा वैचारिक आंदोलन बताते हुए शनिवार को यहां कहा कि ‘लिट-फेस्ट कल्चर’ को बढ़ावा देने वाले उत्सवों में न तो बड़े और जनता के हक की आवाज उठाने वाले लेखक होते हैं और न ही उनकी किताबें वहां बिकती हैं. दरअसल, ये लिट […]

जयपुर : सुप्रसिद्ध कवि विष्णु खरे ने समानांतर साहित्य उत्सव को एक बड़ा वैचारिक आंदोलन बताते हुए शनिवार को यहां कहा कि ‘लिट-फेस्ट कल्चर’ को बढ़ावा देने वाले उत्सवों में न तो बड़े और जनता के हक की आवाज उठाने वाले लेखक होते हैं और न ही उनकी किताबें वहां बिकती हैं. दरअसल, ये लिट फेस्ट साहित्य के नाम पर विदेशी प्रकाशकों का एक षड़यंत्र है और हमारे प्रकाशक भी उनके पीछे हो गये हैं.

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खरे ने शनिवार को यहां प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में आयोजित समानांतर साहित्य उत्सव का उद्घाटन करने के बाद कहा कि लिट-फेस्ट कल्चर के आयोजक बड़े और जनपक्ष में लिखने वाले लेखकों को नहीं बुलाते. ये साहित्य के नाम पर विदेशी प्रकाशकों का एक षड़यंत्र है और हमारे प्रकाशक भी उनके पीछे हो गये हैं. उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि हमारी सभी भाषाएं मिटती जा रही हैं. इसके लिए ऐसे आयोजन बहुत महत्वपूर्ण हैं. ऐसे आयोजनों के साथ लेखकों को भी मुखर होना पड़ेगा. राजनीति में भी हिस्सा लेना पड़ेगा. उन्हें अधिकाधिक ब्लॉग लिखने होंगे.

प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना ने लिट फेस्ट के नाम पर अंग्रेजी के वर्चस्व को बढ़ाने के प्रयासों की निंदा करते हुए कहा कि स्वाधीनता पूर्व हमारी भाषाएं आजाद थी, जबकि इसके बाद के समय में वे गुलाम होती चली गयी, लेकिन हिंदी मारने से नहीं मरेगी, क्योंकि यह 60 करोड़ लोगों की भाषा है. राजस्थानी और भोजपुरी का विकास भी होने दीजिए, क्योंकि हिंदी से इसका कोई विरोध नहीं है. हमारा अंग्रेजी भाषा से भी कोई विरोध नहीं है, लेकिन ज्ञान की भाषा तो मातृ भाषा ही होगी.

ज्ञानपीठ के निदेशक और नया ज्ञानोदय से संपादक लीलाधर मंडलोई ने कहा कि यह वह दौर है, जिसमें हमसे अपने पुरखों से मिली विरासत को छीना जा रहा है. आज जल, थल, वायु, अग्नि और आकाश पर भी हमारा हक नहीं रहा. इस पर कहीं धर्म, कहीं पूंजी, कहीं कॉरपोरेट्स, कहीं मल्टीनेशनल कंपनियों का कब्जा है. हमें अपनी भाषा, संस्कृति और विरासत को बचाना होगा.

दिल्ली हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष और सुपरिचित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि पहले लेखकों की किताबों के बारे में समीक्षक बताते थे कि किताब कैसी है, पाठकों के अध्ययन से अन्य पाठकों तक बात पहुंचती थी. आज लेखक का पाठक से विश्वास उठ गया है.

प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव राजेंद्र राजन ने कहा कि सत्ता और बाजार का गठजोड़ हमारा ध्यान मूल विषयों से हटाना चाहता है. कभी गाय, कभी भोजन, कभी फिल्म के नाम पर हमारा ध्यान रोटी और महंगाई के सवाल से हटाया जा रहा है. उन्माद की राजनीति, हिंसा और घृणा की राजनीति चल रही है, जबकि हम कबीर के ढाई अक्षर प्रेम में विश्वास करते है.

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