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नुमाइंदगी पर बढ़ता बोझ

यह भीड़तंत्र (क्षमा याचना के साथ) का लोकतंत्र है. लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव इसलिए करती है कि वह प्रतिनिधि उसकी परेशानियों को दूर करने के लिए कदम उठायेगा. उसका चुना हुआ प्रतिनिधि संसद में बैठकर ऐसी सुसंगत नीतियां बनायेगा जिससे उसकी जिंदगी में बहार आये. पर व्यवहार में क्या ऐसा होता है? […]

यह भीड़तंत्र (क्षमा याचना के साथ) का लोकतंत्र है. लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव इसलिए करती है कि वह प्रतिनिधि उसकी परेशानियों को दूर करने के लिए कदम उठायेगा. उसका चुना हुआ प्रतिनिधि संसद में बैठकर ऐसी सुसंगत नीतियां बनायेगा जिससे उसकी जिंदगी में बहार आये. पर व्यवहार में क्या ऐसा होता है? औसतन 21 लाख की आबादी वाले लोकसभा के एक जनप्रतिनिधि न तो लोगों से रू-ब-रू हो पाते हैं और न ही क्षेत्र में पहुंच पाते हैं. इस लिहाज से उत्तर और दक्षिण के बीच बड़ा फासला बनता जा रहा है. इसकी वजह है कि दक्षिण की आबादी उत्तर के राज्यों की तुलना में कम है. इसलिए दक्षिण के राज्यों में औसतन 12 लाख की आबादी पर एक सांसद होते हैं जबकि उत्तर में औसतन 21 लाख की आबादी पर.

क्या यह संसदीय सीटों पर असंतुलित आबादी का बोझ नहीं है? लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाने पर संसद ने 2026 तक रोक लगा दी है. पर क्या रोक लगा देने से समस्या खत्म हो जायेगी. 2026 तक तो एक सीट पर औसत आबादी का बोझ और बढ़ जायेगा. भारतीय उपमहाद्वीप सहित दुनिया के विभिन्न देशों में सीटों का पुनर्गठन इस हिसाब से किया गया है कि एक सीट पर आबादी का दबाव अत्यधिक न हो. इसके लिए जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ा दी गयी है. लेकिन भारत में तसवीर दूसरी है. ऐसे में सवाल यह भी है कि संसद के लिए निर्वाचित एक जनप्रतिनिधि उस क्षेत्र की जनता के साथ कितना न्याय कर पायेगा? जब लोकतंत्र जनता के लिए है तो उसके प्रतिनिधियों की पहुंच आसान बनाने के लिए सीटों की तादाद क्यों नहीं बढ़नी चाहिए. पढ़िए एलिस्टर मैकमिलन के अध्ययन पर आधारित यह रिपोर्ट.

हिंदुस्तान के लोकतंत्र की भी अजीब दास्तां है. संविधान में सबकी बराबरी की बात कही गई है लेकिन संसद में ही उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच की गैरबराबरी साफ दिखती है. लोकसभा में उत्तर भारत के सांसदों की संख्या दक्षिण भारत के सांसदों के मुकाबले बहुत कम है. इससे, पहले से गरीब उत्तर भारत के लोगों की आवाज, संसद में पर्याप्त संख्या नहीं होने की वजह से दब जाती है.दक्षिण भारत के चार राज्यों आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के पास देश की आबादी का 21 फीसदी से ज्यादा हिस्सा है, लेकिन संसद में इन चारों राज्यों के पास कुल 129 लोकसभा सीटें हैं. यह 543 सीटों वाली लोकसभा में 24 फीसदी से ज्यादा है. ठीक इसी तरह उत्तर भारत में दो सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य हैं उत्तर प्रदेश और बिहार. इन दोनों राज्यों के पास देश की कुल आबादी का 25.1 फीसदी हिस्सा है. लेकिन लोकसभा में प्रतिनिधित्व के मामले में इन दोनों राज्यों को मिलाकर 120 सांसद ही हैं. उत्तर प्रदेश के पास 80 और बिहार के पास 40 लोकसभा सीट. लोकसभा में यह संख्या 22 फीसदी से कुछ ज्यादा है.

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. केरल और झारखंड का आकार करीब-करीब बराबर है. जनसंख्या के मामले में असम से थोड़ा बीस पड़ता है केरल. 2011 के सेंसस के अनुसार केरल की जनसंख्या 3.3 करोड़ है, असम की 3.1 करोड़ और झारखंड की 3.2 करोड़. लेकिन लोकसभा में केरल के पास 20 सांसद हैं जबकि झारखंड और असम के पास क्रमश: 14-14 सांसद हैं. ठीक इसी तरह यूपी (19.9 करोड़) , बिहार (10.4 करोड़), झारखंड (3.2 करोड़), मध्य प्रदेश (7.2 करोड़), राजस्थान (6.8 करोड़), छत्तीसगढ़ (2.5 करोड़), उत्तराखंड (1.0 करोड़) और हरियाणा (2.5 करोड़) के पास देश की आबादी का 45 फीसदी हिस्सा है. लेकिन लोकसभा में इन राज्यों के पास सिर्फ 214 सीटें (यूपी-80, बिहार-40, राजस्थान-25, उत्तराखंड-5, छत्तीसगढ़-11,हरियाणा-10, मध्य प्रदेश-29 और झारखंड-14) ही हैं जो लोकसभा में 40 फीसदी से भी कम है. अगर जनसंख्या को मानक बनाकर सीटों का बंटवारा किया जाता है तो इन राज्यों के पास इस समय 214 की जगह कम से कम 241 सीटें होतीं. इस समय इन राज्यों के पास 27 सीटें कम हैं. आबादी के हिसाब से देश के तीन सबसे बड़े राज्य हैं यूपी, बिहार और महाराष्ट्र और तीनों राज्यों के पास आबादी के अनुपात में सांसदों की संख्या नहीं है. जनसंख्या के हिसाब से इन तीनों राज्यों के पास 19 सीटें कम है. अगर आबादी के हिसाब से सीटों का हिसाब लगाया जाये तो यूपी के पास कम से कम 90 सीटें, महाराष्ट्र के पास 50 सीटें और बिहार के पास 47 सीटें होनी चाहिए.

कैसे तय होती है सांसदों की संख्या
भारत के संविधान के अनुसार लोकसभा में सांसदों की अधिकतम संख्या 552 हो सकती है. इसमें अधिकतम 530 सांसद राज्यों से सीधे चुनकर आयेंगे, 20 केंद्र शासित प्रदेशों से और दो को भारत के राष्ट्रपति नामित करेंगे. इस समय लोकसभा में 543 सांसद हैं. इसमें 131 सीट (18.42}) सुरक्षित है. इन 131 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जाति और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. सांसदों की संख्या को इस हिसाब से बांटा गया है कि राज्य की सीटों की संख्या और उनकी जनसंख्या का अनुपात, जितना मुमकिन हो उतना सभी राज्यों के बीच बराबर हो.

2026 तक नहीं बढ़ेंगी सीटें
उत्तर भारत और दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों के बीच जनसंख्या को लेकर हमेशा से विवाद रहा है. दक्षिण भारत के सांसद यही कहते हैं कि उन्हें जनसंख्या नियंत्रण की सजा नहीं मिलनी चाहिए. उनका तर्क रहता है कि जनसंख्या के आधार पर अगर लोकसभा सीटों को बढ़ाया गया तो उत्तर भारत के राज्यों के प्रतिनिधियों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी जबकि दक्षिण के राज्यों के भारत सरकार के जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम को लागू करने की सजा मिलेगी. कानून बनाने वालों को दक्षिण के नेताओं की बात सही लगी. इसलिए सबसे पहले 1976 में 42वें संविधान संशोधन के साथ ही लोकसभा की सीटों की संख्या को 2011 तक के लिए फ्रीज कर दिया गया था. इसके बाद 2001 में संविधान का 91वां संशोधन कर सीटों की संख्या को 2026 तक नहीं बढ़ाने का फैसला किया गया. इस फैसले को इस तर्क के साथ दिया गया था: देश के विभिन्न हिस्सों में परिवार नियोजन कार्यक्रम की प्रगति को देखते हुए सरकार ने, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के तहत, राज्य सरकारों को जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाने के लिए कदम उठाने के लिए प्रेरित करने के इरादे से 2026 तक लोकसभा की सीटों को नहीं बढ़ाने का फैसला किया गया है. इसी संबंध में रामी छाबरा ने लिखा है-2001 सेंसस के बाद वैसे राज्य जिन्हें जनसंख्या वृद्धि को रोकने में सफलता नहीं मिली, वहां लोकसभा की नई सीटों का सृजन हो जाता लेकिन यह शक्ति के संतुलन को उन लोगों के पक्ष में करना होता जिन्होंने अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं किया. हालांकि इस तर्क से बहुत लोग सहमत नहीं हैं. कई विशेषज्ञों की राय में 2026 तक सीटों को नहीं बढ़ाने का वर्तमान कानून इमरजेंसी में चलाए गए जबरन नसबंदी अभियान जैसा है. विशेषज्ञों का मानना है कि लोकतंत्र में हर नागरिक के वोट की कीमत समान होती है. लेकिन इस कानून की वजह से ऐसा रह नहीं गया है.

संसदीय क्षेत्र पर बढ़ेगा दबाव
2001 में लोकसभा की सीटों को 2026 नहीं बढ़ाने का फैसला किया गया था. अगर 2001 की जनगणना को ही आधार बनाया जाये तब यूपी औसतन एक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में केरल के एक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र की तुलना में पांच लाख ज्यादा लोग होंगे. अगर 2026 तक सीटें नहीं बढ़ीं तो 2031 के सेंसस के बाद यह असमानता और बढ़ जाएगी. मौजूदा दर पर अगर जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार बनी रही जो 2001 के सेंसस के दौरान थी, तब 2031 में यूपी के निर्वाचन क्षेत्र का आकार केरल के एक निर्वाचन से आबादी के आकार से दोगुना हो जाएगा.

सत्ता संतुलन के लिए है रोक
पहले 2001 और फिर 2026 तक लोकसभा की सीटों को फ्रीज करने का फैसला वस्तुत: सत्ता संतुलन बनाए रखने से जुड़ा है. पूर्व आइएएस अधिकार और इस मामले के विशेषज्ञ केसी शिवरामाकृष्ण के अनुसार पॉपुलेशन कंट्रोल से ज्यादा पॉलिटिकल कंट्रोल के लिए लोकसभा की सीटों की सख्या बढ़ाने पर रोक लगाई गई है. कई विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले दो-तीन दशकों में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार कुछ ज्यादा हुआ है. अकेले दिल्ली में सरकार बनाना भाजपा और कांग्रेस के लिए नामुमकिन साबित हो चुका है. अगर राज्यों मे लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ा दी जाती हैं, दोनों बड़ी पार्टियों को और दिक्कत होगी. ऐसा लगता है कि सीट नहीं बढ़ाने की असली वजह सत्ता संतुलन को बनाये रखना है. मगर इसके लिए जनसंख्या को ढाल बनाया जाता रहा है.

समाधान

लोकसभा में उत्तर और दक्षिण भारत में जो असमानता है, उसको पाटने का एकमात्र उपाय सीटों की संख्या को बढ़ाना है. इसके लिए संविधान संशोधन जरूरी होगा क्योंकि अनुच्छेद 81 ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए सीटों की संख्या पहले ही तय कर दी है. लोकसभा में सीटों की संख्या को बढ़ाने से प्रतिनिधित्व में संतुलन आएगा. 2001 की जनगणना के अनुसार इस समय लोकसभा में 647 सीटें होनी चाहिए. इससे परिसीमन करने में किसी भी राज्य कोई नुकसान नहीं होगा बल्कि 104 नए सीटों का सृजन होगा. यूपी को 23, महाराष्ट्र को 12, बिहार को 11 और राजस्थान को 10 सीटों का फायदा होगा.

हालांकि, सीटों की संख्या बढ़ाने के सुझाव को पहली नजर में इसे आदर्श समाधान नहीं कहा जा सकता है, लेकिन यह सबसे आसान तरीका है जिससे किसी राज्य को सीटों का नुकसान भी नहीं होगा. तुलनात्मक रूप से देखेंगे तो एक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या इसके बाद भी बहुत ज्यादा होगी. 647 सांसदों की लोकसभा ब्रिटेन के 659 सदस्यीय हाउस ऑफ कामंस से छोटी ही होगी. ब्रिटेन में पांच करोड़ लोग पर हाउस आफ कामंस में 659 हैं जबकि भारत में एक अरब से ज्यादा लोगों पर सिर्फ 543 सांसद हैं.

राज्यसभा को मजबूत होगा तो मजबूत होगी डेमोक्रेसी

लोकसभा में उत्तर और दक्षिण के बीच जो भेद है उसे पाटने के लिए भारत के संघीय ढांचे को बरकरार रखते हुए राज्यसभा के गठन में बदलाव लाया जाये. भारत के संसद में दो सदन की व्यवस्था के पीछे तर्क था कि एक सदन जनता का प्रतिनिधित्व करेगा और एक ‘सेपरेट स्टेट’ के इंटरेस्ट का ख्याल रखेगा. लेकिन यह कैसे होगा इस पर शुरू से असमंजस की स्थिति रही है. आज राज्यसभा बहुत कमजोर है. इसमें ज्यादातर वैसे लोगों को जगह दी जाती है जो चुनाव जीतने में असमर्थ होते हैं. इसमें क्षेत्रीयता का भी ध्यान नहीं रखा जाता है.

राजनीतिक पार्टियां कई बार तो किसी बाहरी व्यक्ति को उपकृत करने के लिए किसी भी राज्य से राज्यसभा में भेज देती हैं. इससे राज्य के कोटे में एक सांसद तो जुड़ जाता है लेकिन सही मायने में इससे राज्य के हित में कोई बदलाव नहीं आता. इससे राजनीतिक दलों के हित तो पूरे हो जाते हैं, पर उस क्षेत्र की जनता के हित कभी नहीं पूरे होते. राज्यसभा के गठन में बदलाव लाने का तात्पर्य यह है कि राज्यों के प्रतिनिधियों की बातें केंद्र सरकार में सुनी जाएंगी. राष्ट्र की नीति, राज्य की नीति बनाने में उनकी बात को ज्यादा तवज्जो दी जाएगी. लेकिन इसके लिए राज्यसभा के गठन के मूल में परिवर्तन की जरूरत है. अर्जेटीना, ब्राजील, जर्मनी, कनाडा, रूस, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका और संयुक्त राज्य अमेरिका में दो संसदीय प्रणाली है. इन देशों में निचले सदन में जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व तय होता है. ऊपरी सदन के प्रतिनिधियों के चयन का आधार क्षेत्र होता है और क्षेत्रिय प्रतिनिधियों के पास राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने की शक्ति होती है. बढ़ती जनसंख्या के बावजूद लोकसभा की सीटों को नहीं बढ़ाने का फैसला एक तरह से सच्चई से भागना है और लोकसभा की ‘नुमाइंदगी’ प्रकृति को नजरअंदाज करना है.

संविधान का 91वां संशोधन एक तरह से बकवास है क्योंकि उस संशोधन के माध्यम से समस्या का समाधान तलाशने की जगह समस्या को तीस साल के लिए ठंडे बस्ते में डालने का काम किया गया है. 2026 तक जनसंख्या और प्रतिनिधियों के बीच का फासला इतना बढ़ जाएगा कि यह समस्या और गंभीर हो जाएगी. यह समस्या आने वाले वर्षो में निष्पक्ष चुनाव पर भी सवाल खड़े कर सकती है. भारत जैसे बहुभाषी-बहुधार्मिक राज्य में ऐसा असंतुलन उसकी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए भी ठीक नहीं है. लोकतंत्र की शर्त है कि उसमें सभी समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये. लेकिन लोकसभा सीटों पर आबादी का असंतुलन उसके स्वरूप को नष्ट कर देने वाला है. उत्तर या दक्षिण के राजनीतिज्ञों की अपनी राजनीतिक सीमाओं का होना एक बात है और लोकतंत्र की भावना के साथ जनसमुदाय को जोड़ना दूसरी बात.

(अनुवाद- कौशलेंद्र)


पांच बड़े लोकसभा क्षेत्रमतदाता संख्या के आधार पर
33,68,399-बाहरी दिल्ली
28,32,514-ठाणे, महाराष्ट्र
24,73,271-पूर्वी दिल्ली
24,02,692-कनकपुरा, कर्नाटक
20,41,341-उत्तरी चेन्नई
विधायकों का भी वही है हाल
भारत में कुल विधायक
4120
औसत आबादी प्रति विधायक
3 लाख
बिहार में
4,31,000
-2001 में संविधान का 91 वां संशोधन किया गया और साल 2026 तक के लिए लोक सभा के सीटों की संख्या फ्रीज कर दी गयी. इस हिसाब से 2026 तक प्रति लोकसभा आबादी का भार तकरीबन 26 लाख हो जायेगा.
-देश में औसतन एक लोकसभा क्षेत्र की आबादी 21,30.566 होती है और मतदाताओं की संख्या 13,60,540.

पांच छोटे लोकसभा क्षेत्र मतदाता संख्या के आधार पर
39,033-लक्षद्वीप
72,216-दमन-दीव
98,376-दादरा नगर हवेली
1,43,719-लद्दाख
2,47,384-अंडमान-निकोबार
दक्षिण भारत में आबादी कम, सीटें ज्यादा
2001 में एलिस्टर मैकमिलन ने एक शोध किया था जिसके मुताबिक 1991 से 2001 के बीच देश की आबादी 21 फीसदी बढ़ गयी मगर लोक सभा की सीटें ज्यों की त्यों रह गयी. उन्होंने उस वक्त सुझाव दिया था कि बढ़ती आबादी को देखते हुए लोक सभा की सीटों की संख्या 543 से बढ़ाकर 647 कर दी जानी चाहिए.
इन्हीं विसंगतियों को लेकर नीचे के कॉलम में बताया गया है कि मौजूदा आबादी के हिसाब से किस राज्य में कितनी सीटें हैं और कितनी होनी चाहिए. इसके अलावा अगर लोक सभा की सीटें 647 हो जाये तो विभिन्न राज्यों में कितनी सीटें होनी चाहिए.


दुनिया में सबसे अधिक आबादी का बोझ है हमारे लोकसभा सदस्यों पर
संयुक्त राज्य अमेरिका
यहां प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू है यानी लोग सीधे अपना राष्ट्रपति चुन सकते हैं. इसके बावजूद वहां हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के लिए 435 सदस्य चुने जाते हैं. ये चुनाव हर दूसरे साल नवंबर के पहले मंगलवार को होते हैं. यानी सदस्यों का कार्यकाल दो साल का होता है. अगर किसी सदस्य की बीच में मृत्यु हो गयी या उसने इस्तीफा दे दिया तो विशेष चुनाव होते हैं. कार्यकारिणी के लिए अलग से 100 सदस्यों का चुनाव होता है, जो सीनेट के सदस्य कहे जाते हैं. वहां पांच लाख पचहत्तर हजार लोगों पर औसतन एक प्रतिनिधि होता है.
युनाइटेड किंगडम
यहां की अप्रत्यक्ष लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही हमने अपनाया है. वहां के लोग 646 जन प्रतिनिधियों का चयन करते हैं और आज की आबादी के हिसाब से एक प्रतिनिधि तकरीबन एक लाख की आबादी का प्रतिनिधित्व करता है. वह द्विदलीय शासन व्यवस्था है.
चीन
साम्यवादी देश होने के बावजूद चीन में चुनाव होते हैं. वहां आबादी का बोझ अधिक होने के कारण 2987 प्रतिनिधियों को चुना जाता है और एक प्रतिनिध साढ़े चार लाख की आबादी का प्रतिनिधित्व करता है. वहां चुनाव में मुख्यत: कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) के सदस्य भागीदारी करते हैं, पर साथ ही आठ अन्य छोटी पार्टियां भी अस्तित्व में हैं और उनके उम्मीदवार भी चुनाव में भागीदारी करते हैं. हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सीपीसी का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ता है. इसके अलावा उम्मीदवारों की अंतिम सूची चुनाव समिति ही निर्धारित करती है.
बांग्लादेश
बांग्लादेश में द्वि-दलीय शासन प्रणाली है, मगर वह देश चुनाव प्रक्रिया को लेकर भ्रम की स्थिति में रहा है. पहले वहां अप्रत्यक्ष लोकतंत्र था, बाद में उसने राष्ट्रपति प्रणाली को अपनाया फिर से 1991 से वहां अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है. वहां 330 प्रतिनिधि चुने जाते हैं, जिनमें से 30 सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित होती हैं.
पाकिस्तान
पाकिस्तान में लोकतंत्र हमेशा फौजी शासन के चलते खतरे में रहा है. लिहाजा हम वहां की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का मजाक भी बनाते रहते हैं. मगर वहां आज भी पौने चार लाख की आबादी के लिए एक प्रतिनिधि चुना जाता है और 60 सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित होती हैं. वहां प्रत्यक्ष लोकतंत्र है और लोग प्रतिनिधि चुनने के साथ-साथ राष्ट्रपति भी सीधे चुनते हैं.
नेपाल
लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की प्रयोगशाला बन चुका नेपाल 265 प्रतिनिधियों को चुनता है और औसतन 2 लाख की आबादी पर वहां एक प्रतिनिधि चुना जाता है. वहां भारत की तरह ही बहुदलीय व्यवस्था है.
ब्राजील
यहां जनता के प्रतिनिधियों को डय़ुपिटी कहा जाता है और वहां के सदन को चैंबर ऑफ डय़ुपिटीज कहा जाता है. वहां दोनों सदन को मिलाकर 594 सदस्य होते हैं और आज की आबादी के अनुसार औसतन 3 लाख 23 हजार लोगों पर एक प्रतिनिधि का चयन होता है. ब्राजील में लोकतंत्र भले ही बाद में आया मगर यहां चेंबर ऑफ डय़ुपिटीज का संचालन 1826 से ही हो रहा है और अब तक 54 बार इसके चुनाव हो चुके हैं. वहां के इस सदन ने राजतंत्र से सैनिक शासन तक के कई रंग देखे हैं और आज भी सक्रिय है. 2015 में नये प्रतिनिधियों का चुनाव होना है.

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