मुंबईः जब मधुर गानों की बात होती है तो किशोर के कई गाने हमारे दिमाग में घुमने लगते है. संगीत के कई महान कलाकार और म्यूजिक डायरेक्टर आपको रुकने पर मजबूर कर दते हैं. गाने के अर्थ ऐसे जैसे किसी ने कलेजा निकाल कर रख दिया हो. एक शब्द में कई तरह की भावनाओं को परोसने की कला अब कहीं गुम होती नजर आ रही है.
फिल्मों के माध्यम से हिन्दी का प्रसार देश के लगभग हर क्षेत्र में हुआ है.हिन्दी गीतों के मधुर बोल लोगों की जुबान पर रहे हैं.लेकिन देश के सम्भ्रांत वर्ग पर पश्चिमी सभ्यता के बढते प्रभाव को भुनाने के मद्देनजर हिंदी कहीं गुम हो गई है.व्यवसायिकता एवं कमाई करने की होड में हिन्दी फिल्मों से दिल को छून जाने और सुकून पहुंचाने वाले गीतों के बोल, लोगों को जोडने वाले संवाद कहीं गुम होते जा रहे हैं.
गुजरे जमाने के अभिनेता मनोज कुमार ने ‘भाषा’ से कहा कि हिन्दी फिल्मों में आज बाजारुपन आ गया है. पटकथा, संवाद, गीतों के बोल नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. फिल्में हिन्दी में हैं लेकिन हिन्दी धीरे धीरे गायब होती जा रही है. गीतों के बोल अपनी आत्मा खो चुकी है. कुछ भी बोल दो, वह गीत हो गया.
हिन्दी फिल्म जगत के शहंशाह अभिताभ बच्चन भी इससे इत्तफाक रखते हैं. कुछ समय पहले अमिताभ ने अपने ब्लाग में लिखा था, ‘‘गीतों में मधुर बोल कितना अंतर पैदा कर देते हैं.. गीतों में मधुर बोल अब बीते दिनों की बात हो गई है. आज अधिकांश गीतों में आवाज और शोर जैसा लगता है़, मधुरता खत्म हो गई सी लगती है. मैं भारतीय फिल्म उद्योग की बात कर रहा हूं जहां मैं काम करता हूं।’’ छोटी सी बात, रजनीगंधा, चितचोर, शौकीन जैसी यादगार फिल्में बनाने वाले बासु चटर्जी ने कुछ समय पहले एक विचारगोष्ठी में कहा था, ‘‘हिन्दी का सौभाग्य है कि वह देश के कोने कोने में बोली और समझी जाती है. लेकिन यह उसका दुर्भाग्य है कि वह किसी के साथ अपनी आत्मीयता स्थापित करने में समर्थ नहीं हो पा रही है.’’