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#MenstrualHygieneDay अपवित्र नहीं हैं हम

– रचना प्रियदर्शिनी- माहवारी, पीरियड्स, मेंसट्रूएशन… आधुनिकता की ओर रूख करते वैश्विक परिवेश में आज भी ये सारे शब्द एक सोशल टैबू बने हुए है, जिनके बारे में बात करना तो दूर अकसर लोग इन शब्दों के बारे में बोलने या सुनने में भी झिझक महसूस करते हैं . ऐसा नहीं कि यह स्थिति केवल […]

– रचना प्रियदर्शिनी-

माहवारी, पीरियड्स, मेंसट्रूएशन… आधुनिकता की ओर रूख करते वैश्विक परिवेश में आज भी ये सारे शब्द एक सोशल टैबू बने हुए है, जिनके बारे में बात करना तो दूर अकसर लोग इन शब्दों के बारे में बोलने या सुनने में भी झिझक महसूस करते हैं . ऐसा नहीं कि यह स्थिति केवल हमारे देश या समाज में ही है, बल्कि दुनिया के कई विकसित देशों में भी स्त्री देह से जुड़ी इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया से संबंधित अनेक सामाजिक वर्जनाएं एवं पांबदियां लागू हैं. आखिर क्यों? माहवारी या पीरियड्स एक लड़की या स्त्री के स्वस्थ्य शारीरिक विकास के लिए उतनी ही जरूरी प्रक्रिया है, जितना कि भोजन करना या सांस लेना. इसलिए जरूरत है इसके बारे में खुल कर बात करने की, ताकि महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य को सुनिश्चित किया जा सके.

पिछले दिनों देश भर में असम की एक किशोरी की मौत चर्चा का विषय रही. मौत का कारण था- उसके पेट में होनेवाला इन्फेक्शन, जिसका पता भी तब चला जब एक रोज उसके पेट में अचानक से भीषण पेट दर्द शुरू हुआ और उसका पेट असामान्य तरीके से फूल गया. डॉक्टरों को जांच के दौरान उसके पेट में खतरनाक पैरासाइट्स के विकसित होने का पता चला, लेकिन तब तक काफी देर चुकी थी और उसे बचाया न जा सका. डॉक्टरों के अनुसार लड़की के पेट वे खतरनाक पैरासाइट्स माहवारी के दौरान स्वच्छता पर ध्यान न देने की वजह से विकसित हुए थे.
महिला हो या पुरुष दोनों के लिए प्राइवेट पार्ट्स की सफाई बहुत जरूरी है, वरना कई बीमारियों का खतरा बना रहता है.

डॉक्टरों की मानें तो माहवारी के दौरान महिलाओं को अपने शरीर की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए. हर 6 से 7 घंटे में पैड बदल देना चाहिए, लेकिन ग्रामीण ही नहीं, बल्कि शहरी इलाकों में भी देखा जाता है कि महिलाएं एक ही कपड़े का कई बार इस्तेमाल करती हैं. सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि उन कपड़ों को सही से सुखाया नहीं जाता. अब जाहिर सी बात है, जिस समाज में महिलाओं के अंडरगार्मेंट्स को खुले में सुखाने की इजाजत न हो, वहां पीरियड्स के कपड़ों को खुले में सुखाना तो एक बड़ा अपराध ही माना जायेगा न! ऐसी स्थिति में धूप ना लगने से कपड़े में कीटाणु रह जाते हैं, जिससे इंफेक्शन का खतरा साठ गुना बढ़ जाता है.

– रूढियों को नहीं प्राकृतिक प्रक्रिया को समझें
माहवारी या मेंस्ट्रूएशन किशोरावस्था से नवयौवन में प्रवेश करनेवाली 9 से 13 वर्ष की लड़कियों के शरीर में होनेवाली एक सामान्य हार्मोनल प्रक्रिया है, जिसके फलस्वरूप उनके शरीर में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं. इसे ‘प्यूबर्टी’ के नाम से भी जाना जाता है. आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो यह शारीरिक प्रक्रिया प्रकृति द्वारा प्रदत किसी स्त्री का वह वरदान है, जिसकी वजह से वह किसी बच्चे को जन्म देने के लिए जैविकीय रूप से सक्षम हो जाती है, अर्थात जिसकी वजह से वह मां बन पाती है. हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें एक जिम्मेदार मां बनने के लिए जरूरी शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक परिपक्वता भी आ जाये. यह प्राकृतिक प्रक्रिया सभी लड़कियों में किशोरावस्था के अंतिम चरण से शुरू होकर (रजस्वला) उनके संपूर्ण प्रजनन काल (रजोनिवृत्ति पूर्व) तक जारी रहती है.
विडंबना यह है कि आज भी हम या हमारा समाज माहवारी को एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया के तौर पर समझने में नाकाम हैं. नतीजा आज भी महिलाएं पीढ़ियों से चली आ रही सामाजिक वर्जनओं तथा रूढ़ियों को ढोने के लिए मजबूर है. वे अपने पिता, पति या पुरुष मित्रों से इस बारे में चर्चा करना तो दूर आपस में बात करने से भी कतराती हैं, मानो यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो, जो हर महीने वे जान-बूझ कर किया करती हैं. आखिर क्यों? भूख, प्यास, श्वसन या पाचन की तरह हम क्यों नहीं इसे एक सामान्य प्रक्रिया के तौर पर स्वीकार कर पा रहे हैं?
आखिर क्यों नहीं माहवारी पर कोई चर्चा होती है? क्यों नहीं इस पर भी संवाद स्थापित किया जा सकता है? आज शुरु से ही हमने इसे एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया के तौर पर देखा होता, इस बारे में खुल करसंवाद स्थापित किया होता और इस प्रक्रिया को समझा होता, तो महिलाओं और लड़कियों को जो समस्याएं आती हैं वे निश्चित तौर से नहीं होतीं. इससे जुड़ी सामाजिक वर्जनाओं ने ही आज इसे एक ज्वलंत सामाजिक मुद्दा बना कर रख दिया है.
– समस्याएं जिनसे आमतौर पर लड़कियों /महिलाओं को जूझना पड़ता है :
– ज्यादातर लड़कियों व महिलाओं को माहवारी प्रक्रिया के बारे में उचित जानकारी न होना.
– माहवारी से पहले किशोरियों को इसके बारे में कोई जानकारी न होना.
– माहवारी के दौरान सही अवशोषकों का प्रयोग न करना, जिसकी वजह से संक्रमण का खतरा होना.
-सस्ते और सुरक्षित सेनेटरी नैपकिंस उपलब्ध न हो पाना, जिस वजह से गरीब महिलाएं पारंपरिक एवे असुरक्षित तरीके अपनाने को बाध्य होती हैं.
-स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग टॉयलेट तथा आपातकालीन स्थिति में नैपकिंस तथा दर्द निवारक दवाओं की उपलब्धता न होना, जिस वजह से स्कूल ड्रॉप आउट के मामले बढ़े हैं.
सामाजिक वर्जनाएं, जिसकी वजह से लड़कियों/महिलाओं का शारीरिक, मानसिक व भावात्मक विकास प्रभावित होता है.
इनके अलावा गंदे नैपकिंस और कपड़े को डिस्पोज करने के लिए किसी निश्चित व उपयुक्त प्रक्रिया का अभाव होने से भी पर्यावरण तथा सेहत पर बुरा असर पड़ता है. इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में 20 राज्यों के 152 जिलों में एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर ‘माहवारी स्वास्थ्य योजना (MHS)’ की शुरुआत की है. इसका उद्देश्य महिलाओं के व्यक्तिगत स्वास्थ्य के विषय में जागरूकता फैलाना है. हाल ही में असम के सिल्चर से सांसद सुष्मिता देव ने भारत सरकार के अलग-अलग विभाग में याचिका दायर करे यह मांग की है कि सेनेटरी नैपकिन को टैक्स फ़्री किया जाये, ताकि अधिक-से-अधिक महिलाएं इसे खरीदने में समर्थ हों सकें.
जर्मनी स्थित एक एनजीओ WASH द्वारा वर्ष 2014 से हर साल 28 मई को मेंस्ट्रूअल हाइजीन डे (MHD or MH Day) मनाने की शुरुआत की गयी. इसका मुख्य उद्देश्य विश्व भर में लड़कियों या स्त्रियों के स्वस्थ्य शारीरिक विकास की आवश्यक प्रक्रियाओं में से एक मेंस्ट्रूएशन या माहवारी के बारे में जागरूकता फैलाना और इससे जुड़ी सामाजिक रूढ़ियों का खात्मा करना है. वर्तमान में इस पहल से दुनिया भर के करीब 270 देश जुड़े हुए हैं. प्रतिवर्ष 15 अक्टूबर को मनाये जानेवाले ग्लोबल हैंडवॉशिंग डे और 19 नवंबर को मनाये जानेवाले वर्ल्ड टॉयलेट डे की तरह इस दिन को भी वैश्विक स्वच्छता अभियान से जोड़े जाने की कोशिश है. इसके लिए 28 म ई की तारीख निर्धारित करने के पीछे मुख्य अवधारणा यह है कि मई वर्ष का पांचवा महीना होता है, जो कि अमूमन प्रत्येक 28 दिनों के पश्चात होनेवाले स्त्री के पांच दिनों के मासिक चक्र परिचायक है.
– ‘मां’ की पूजा, फिर मातृत्व के वरदान से घिन्न क्यों?
जहां तक भारतीय समाज की बात करें, तो यह अपने आप में एक बहुत बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम देवी के रूप में ‘मां’ की पूजा करते हैं और दूसरी ओर उसी मां के मातृत्व गुण को हेय दृष्टि से देखते हैं. समाज की इस दोगली सोच का परिचय हमें आसाम के कामाख्या देवी का मंदिर में बखूबी देखने को मिलता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु ने संपूर्ण ब्रहांड को भगवान शंकर के क्रोध के प्रकोप से बचाने के लिए देवी सती के शरीर को अपने चक्र से 51 टुकड़ों में विभाजित कर दिया था. उस समय सती का योनि भाग कामगिरी क्षेत्र में गिरा, जहां आज यह मंदिर स्थापित है. हर साल अम्बुबाची मेले के दौरान मंदिर के पास स्थित ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिनों के लिए लाल हो जाता है. मान्यता है कि पानी का यह लाल रंग देवी के मासिक धर्म के कारण होता है. तीन दिन बाद श्रद्धालुओं की मंदिर में भीड़ उमड़ पड़ती है. प्रसाद के रूप में भक्तों को लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है, जिसे भक्त धन-धान्य की वृद्धि के लिए अपने घर में रखते हैं. क्या ये भक्त उस समाज का हिस्सा नहीं हैं ,जो महिला को माहवारी के दिनों में अपवित्र या अछूत मानते हैं? उल्टे इस प्रक्रिया में तो हर महीने महिलाओं के आंतरिक शरीर की एक तरीके से सफाई होती है. हर महीने उसके शरीर में बननेवाला अंडकोश निषेचन के अभाव में जब फटता है, तो उसके फलस्वरूप बहनेवाला रक्त उसके पूरे गर्भाशय की सफाई कर देता है. एक तरह से कहें, तो वह फिर से रिफ्रेश हो जाती है.
हमें इस बात को समझना होगा कि श्वसन, पाचन जैसी अन्य सामान्य शारीरिक क्रियाओं की तरह माहवारी भी प्राकृतिक रूप से होनेवाली एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है, जिसके बारे में खुल कर बात करने की जरूरत है. जरा सोचिए, जो प्रक्रिया इस संपूर्ण विश्व के सृजन का आधार हो, वह अपवित्र या घृणास्पद कैसे कर सकता है?
कितने वीमेन फेंडली हैं आंकड़ें
– एसी निलसन (एक वैश्विक मार्केटिंग रिसर्च फर्म) के 2010 के आंकड़ों की बात करें तो पता चलता है कि भारत में लगभग 35 करोड़ महिलाएं संक्रीय माहवारी के दौर से गुजर रही हैं.
– वर्तमान भारत में मात्र 12 % महिलाएं ही सैनेटरी नैपकिन का उपयोग करती हैं. 88% महिलाएं आज भी परंपरागत साधनों का यूज करती हैं, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से सही नहीं है.
– महिलाओं की कुल जनसंख्या का 75% आज भी गांवों में है और उनमें से सिर्फ दो प्रतिशत ही सैनेटेरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं.
– सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कार्यरत एक भारतीय संस्था डासरा की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 20 करोड़ लड़कियां मेंस्ट्रुअल हाइजीन और शरीर पर पड़ने वाले इसके प्रभाव से अनभिज्ञ हैं.
– जनगणना-2011 के अनुसार गांवों में स्वच्छता की व्यवस्था महिलाओं के अनुरूप नहीं है. देश के 66.3% ग्रामीण घरों शौचालय और साफ पानी की व्यवस्था नहीं है.
– इंडिया वाटर पोर्टल द्वारा वर्ष 2016 में जारी एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 62 करोड़ से अधिक लोग (राष्ट्रीय औसत 49.2 फीसदी) खुले में शौच करते हैं. विभिन्न राज्यों की स्थिति देखें, तो झारखंड में 77 फीसदी, उड़ीसा में 76.6 फीसदी और बिहार में 75.8 फीसदी घरों में शौचालय नहीं है.
सरकारी व गैर-सरकारी प्रयास
दिसम्बर 2015 में पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय,भारत सरकार द्वारा माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन दिशानिर्देश जारी किये गये. इसमें लड़कियों एवं महिलाओं को (खास कर 10-19 वर्ष की ग्रामीण किशोरियों) कम कीमत पर सेनेटरी नैपकिंस मुहैया कराने की बात की गयी है. साथ ही इस मुद्दे पर जन- जागरूकता फैलाने पर भी जोर दिया गया है. माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन दिशानिर्देश में शामिल कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार है:
– समाज के हर तबके को, चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष, यह स्पष्ट एवं सही जानकारी होनी चाहिए कि माहवारी क्या है? क्यूं होती है? किस प्रकार से इसका सुरक्षित प्रबंधन किया जा सकता है, ताकि लड़कियां और महिलाएं आत्मविश्वास तथा सम्मान भरा जीवन जी सकें.
– माहवारी के दौरान हर किशोरी तथा औरत को पर्याप्त, सस्ते और सुरक्षित शोषक मुहैया कराए जाने चाहिए.
– हर किशोरी के लिए स्कूल में एक अलग और साफ टॉयलेट की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए, जिसमें साफ-सफाई की समुचित व पर्याप्त व्यवस्था (जगह, पानी व साबुन आदि) हो.
– समुचित डिस्पोजल के लिए हर किशोरी/महिला को पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध होने चाहिए. साथ ही उन्हें उसके इस्तेमाल की जानकारी भी देनी चाहिए.
दिशानिर्देश के अंतर्गत सभी राज्यों, जिलों तथा लोकल प्राधिकारों, स्कूल, परिवार व समाज में एक ऐसा पर्यावरण बनाने पर बल दिया गया है, जहां माहवारी को एक जैविक क्रिया के रूप में समझा और अपनाया जा सके. साथ ही उसके उचित उपचार की सुविधा भी मुहैया हो सकें.
– बिहार सरकार द्वारा ‘महिला सामख्या परियोजना’ के तहत महिलाओं को सेनेटरी नैपकिन बनाने की ट्रेनिंग देने की शुरुआत की गयी है. इससे महिलाओं को रोजगार मिला, साथ ही, उन्होंने कपड़े की जगह सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करना शुरु किया.
इसी तरह, छत्तीसगढ़ में ‘सुचिता’ योजना के तहत किशोरियों को स्कूलों में वेंडिंग मशीन से सैनेट्री नैपकिन उपलब्ध करवाया जा रहा है. यहां इस्तेमाल किए गए नैपकिन को बर्न करने की भी सुविधा है. इसके चलते स्कूलों में लड़कियों के अटेंडेंस में भी वृद्धि हुई है.
इन सरकारी प्रयासों के अलावा, कई गैर सरकारी संगठनों व संस्थानों द्वारा भी इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल किये जा रहे हैं. सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर कुछ लोगों द्वारा सेनेटरी नैपकिन की सस्ती उपलब्धता को लेकर ‘लहू का लगान’ नाम से एक कैंपन भी चलाया जा रहा है. उम्मीद है कि आनेवाले कुछ वर्षों में हम निश्चित तौर से माहवारी प्रक्रिया से जुड़े सामाजिक वर्जनाओं से पूरी तरह से मुक्त हो पाने में सफल होंगे.
सोशल वर्ल्ड में क्या
इस मुद्दे को लेकर हमारी युवा पीढ़ी काफी अवेयर दिख रही है. सोशल मीडया, स्कूल-कॉलेजों के कैंपस में अवेयरनेस के क्रियेटिव और इनोवेटिव तरीके अपना रही है. वहीं कुछ सोशल ग्रुप इन दिनों काफी लोकप्रिय हैं, जो अलग-अलग नामों से कैंपेनिंग कर रहे हैं. इनमें से कुछ प्रमुख हैं :
हैप्पी टू ब्लीड (#HappyToBleed campaign) : मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पर निषेध के विरोध में दिल्ली की एक लड़की निकिता आजाद द्वारा वर्ष-2014 में शुरू किया गया यह कैंपेन आज देश-दुनिया में बेहद पॉपुलर है, जिसे पुरुषों का भी व्यापक जन समर्थन मिल रहा है.
मेंस्ट्रूपीडिया डॉट कॉम (menstrupedia.com) : इसे उन किशोरियों को ध्यान में रख कर डिजाइन किया गया है, जो पहली बार पीरियड के अनुभव से गुजरती हैं. कॉमिक कार्टून तथा वीडियो के प्रयोग से माहवारी से संबंधित तमाम जानकारियां दी गयी हैं.
बेंगलुरु की यह कॉलेज गर्ल पोस्टर के माध्यम से बिंदास अंदाज में बता रही है कि इसमें ऐसा कुछ नहीं, जिसे छिपाने की जरूरत है.
अब समय आ गया है कि लड़कियां घर के पुरुष सदस्यों से भी खुल कर बात करें. गंदे हम नहीं, बल्कि गंदे वे विचार हैं, जो हमें कमजोर साबित करना चाहते हैं.

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