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तिहरे तलाक को अदालत से मिला ””तलाक””…जानिए पाक के अलावा किन देशों में नहीं है यह प्रथा

एक बार में तीन तलाक कह कर संबंध-विच्छेद के रिवाज को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध और असंवैधानिक करार दिया है, साथ ही केंद्र सरकार को छह माह में इस संबंध में कानून बनाने का निर्देश दिया है.पहली बार इस अदालत ने तिहरे तलाक की समीक्षा इस आधार पर की है कि क्या यह इस्लाम का […]

एक बार में तीन तलाक कह कर संबंध-विच्छेद के रिवाज को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध और असंवैधानिक करार दिया है, साथ ही केंद्र सरकार को छह माह में इस संबंध में कानून बनाने का निर्देश दिया है.पहली बार इस अदालत ने तिहरे तलाक की समीक्षा इस आधार पर की है कि क्या यह इस्लाम का बुनियादी नियम है. खंडपीठ के बहुमत ने माना कि यह रिवाज कुरान के आदर्शों की भी अवहेलना करता है. इस फैसले का आम तौर पर स्वागत हुआ है और उम्मीद जतायी जा रही है कि इससे विभिन्न पर्सनल लॉ के प्रगतिशीलता की ओर बढ़ने की प्रक्रिया तेज होगी. इस मुद्दे के विभिन्न आयामों पर विश्लेषण के साथ आज की विशेष प्रस्तुति…
कैसे मुस्लिम महिलाओं ने जीती जंग?
सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम समुदाय में एक बार में ही दिये जानेवाले तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है. महिला अधिकारों के लिए लड़ रही अनेक कार्यकर्ताओं के लिए यह बड़ी जीत है. सर्वोच्च अदालत में इस कानूनी लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में सबसे अहम नाम उत्तराखंड की सायरा बानो का है. आफरीन रहमान, गुलशन परवीन, अतिया साबरी और इशरत समेत हजारों महिलाओं ने फोन पर, स्पीड पोस्ट या कागज टुकड़े पर एक झटके में तलाक दिये जाने के खिलाफ अावाज उठायी.
वर्षों से मुखर हो रही आवाज
तीन तलाक की प्रथा पर लंबे समय से बहस चल रही है. हाल के वर्षों में स्काइप, व्हॉट्सअप, फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से दिये जानेवाले तलाक के मामलों में बढ़ोतरी हुई है. इसके खिलाफ मुस्लिम महिलाओं ने अदालत में जाकर न्याय की मांग की है. लेकिन सायरा बानो ने एक बार में दिये जानेवाले तीन तलाक को मौलिक अधिकारों और लैंगिक समानता के खिलाफ बताया.
हालिया घटनाक्रम
5 फरवरी, 2016 : पिछले वर्ष फरवरी माह में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु विवाह के चलन की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी. सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले पर तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से राय मांगी थी. इसके एक माह बाद न्यायालय ने केंद्र सरकार से ‘महिला और कानून :ं पारिवारिक कानूनों के आकलन, विवाह, तलाक, हिरासत, उत्तराधिकार आदि पर आधारित’ रिपोर्ट की कॉपी मांगी थी.
29 जून, 2016 : सर्वोच्च न्यायालयने कहा कि मुस्लिम समुदाय में जारी ‘तीन तलाक’ प्रथा की संवैधानिक मानकों पर जांचा जायेगा.
7 अक्तूबर, 2016 : केंद्र सरकार ने पहली बार सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक प्रथा का विरोध किया. केंद्र ने कहा कि इस प्रथा पर लैंगिक समानता और धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांतों के तहत पुनर्विचार करना चाहिए.
16 फरवरी, 2017 : तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा की चुनौतियों पर सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने पांच जजों की संवैधानिक पीठ के गठन की घोषणा की.
27 मार्च, 2017 : मार्च माह में इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देने की कोशिश हुई और देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिक्रियाएं आने लगीं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 27 मार्च को उच्चतम न्यायालय में बताया कि तीन तलाक का मामला न्यायिक क्षेत्र में नहीं आता.
अप्रैल, 2017 : केंद्र सरकार ने 11 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में बताया कि यह प्रथा संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है. इसके बाद 14 अप्रैल को बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करे.
इसके दो दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे को उठाया और कहा कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की जायेगी. उसी दिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने आचार संहिता जारी कर चेतावनी दी कि यदि कोई शरिया नियमों का उल्लंघन करता है, तो उसका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा.
21 अप्रैल, 2017 : मुस्लिम पुरुष से शादी करनेवाली एक हिंदू महिला द्वारा तीन तलाक को खत्म करने के लिए दाखिल याचिका को दिल्ली हाइकोर्ट ने खारिज कर दी.
29 अप्रैल, 2017 : विपक्ष ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री मोदी चुनावी फायदे के लिए इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर रहे हैं. भाजपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा मुस्लिम पुरुष अपनी वासनाओं के लिए इस प्रथा का इस्तेमाल करते हैं.
3 मई, 2017 : तीन तलाक के चलन की संवैधानिकता पर सुनवाई के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ वकील सलमान खुर्शीद को अमीकश क्यूरी नियुक्त किया गया.
11 मई-17 मई 2017 : मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने तीन तलाक पर सुनवाई शुरू की. इस दौरान माना गया कि तीन तलाक विवाह खत्म करने का सबसे गलत तरीका है.
रोहतगी ने 15 मई को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि मुस्लिमों में विवाह और तलाक के लिए केंद्र नया कानून लायेगा. 16 मई को एआइएमपीएलबी ने इसे धर्म से जुड़ा मामला बताया और कहा इसकी संवैधानिकता पर सवाल नहीं करना चाहिए.
18 मई, 2017 : एक बार में दिये जानेवाले तीन तलाक पर दाखिल अर्जियों पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित कर लिया.
22 अगस्त, 2017 : अलग-अलग फैसले जारी किये गये. इस आधार पर 3-2 से तीन तलाक को अवैध करार दिया गया. न्यायालय ने इस प्रथा को खत्म करने और केंद्र सरकार को तीन तलाक के लिए नया कानून बनाने को कहा.
बीएमएमए समेत कई संगठन सक्रिय
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) पिछले कुछ वर्षों से तलाकशुदा महिलाओं के पक्ष में आवाज मुखर कर रहा है. संस्था की संस्थापक सदस्य जाकिया सोमन के मुताबिक अल्लाह द्वारा दिये गये अधिकारों को छीनने का हक किसी भी लॉ बोर्ड को नहीं है. संस्था 2007 से एक बार में तीन तलाक और बहु विवाह से पीड़ित महिलाओं पर रिपोर्ट तैयार कर रही है.
दिसंबर, 2012 में देशभर से इकट्ठा होकर महिलाओं ने प्रधानमंत्री, कानून मंंत्री, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री और महिला एवं बाल विकास मंत्री को पत्र लिखा और 50,000 हस्ताक्षर भेज कर तीन तलाक पर पाबंदी की मांग की. सर्वोच्च न्यायालय में सायरा बानो की अर्जी दाखिल करने के बाद बीएमएमए ने अर्जी दाखिल कर इस प्रथा पर कानूनी पाबंदी की मांग की.
सायरा बानो ने चलन की संवैधानिकता को दी चुनौती
फरवरी, 2016 में उत्तराखंड की सायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल कर तीन तलाक, निकाह हलाला को खत्म करने की मांग की. अर्जी में तलाक को संविधान की धारा-14 और 15 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया. सायरा के मुताबिक वह इलाज के लिए मायके में थीं, इसी दौरान पति ने पत्र भेज कर उन्हें तलाक दे दिया. वह बच्चों के साथ पति से पिछले 15 वर्षों से मिलने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन कामयाब नहीं हो सकीं. सायरा ने तलाक, निकाह, हलाला, बहु विवाह आदि प्रथाओं को अवैधानिक, असंवैधानिक, भेदभावपूर्ण और लैंगिक समानता के सिद्धांतों के खिलाफ बताया.
औरतों को हिम्मत देनेवाला फैसला
नूर जहीर
सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखिका
इसमें कोई शक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का यह एक एेतिहासिक फैसला है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन तलाक को असंवैधानिक करार देना अपने आप में एक लंबे अरसे से चली आ रही लड़ाई में मिली जीत की तरह है. मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं, क्योंकि इस कूरीति से पीड़ित जिन-जिन भी औरतों से मैं मिली हूं, उनकी हालत बहुत ही खराब देखी है मैंने. बहुत तकलीफ में रह रही हैं और उनकी सामाजिक स्थिति एक उलझन में फंसी रहती है.
दूसरी बात यह भी है कि बहुत सी पीड़ित औरतें आर्थिक रूप से अपने भाई या बाप पर निर्भर हो जाती हैं. इस ऐतबार से इस फैसले में यह बात साफ नहीं होती कि जो पहले से ही तीन तलाक से पीड़ित हो चुकी हैं, उनके भरण-पोषण का क्या होगा, अगर बच्चे हैं, तो उनका क्या होगा, वगैरह. सही तरीके से हुए तलाक के बाद औरत के लिए मेंटेनेंस का कानून तो है, लेकिन तीन तलाक की स्थिति कुछ अलग है, जिसमें औरतों की हालत बदतर हो जाती है. इसलिए अब यहां से एक दूसरी लड़ाई शुरू होती है कि जो पहले से ही पीड़ित हैं, वे कोर्ट में अपील करके अपने मेंटेनेंस का हक लें.
यह बहुत ही अच्छी बात है कि अब से फौरन तीन तलाक पर बंदिश लग गयी है, इसलिए अब अगर ऐसा कोई करता है, तो उसके लिए कानून अपना काम करेगा. इसलिए मुसलिम औरतों के लिए यह बहुत ही खुशी का मौका है और हिम्मत देने वाला फैसला है. हालांकि, यह जीत अभी आखिरी जीत नहीं है, अभी इसके आगे भी कई लड़ाईयां हमें लड़नी हैं. और वे लड़ाईयां लंबी हैं, ज्यादा वक्त तक खिंचनेवाली हैं और इसके लिए हर मुमकिन हिम्मत के लिए तैयार रहना चाहिए.
दूसरी बात यह है कि फौरन तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने बंदिश तो लगा दी है, लेकिन यह राय अभी नहीं दी कि मुसलिम महिला के लिए भी उसी प्रक्रिया से तलाक देना तय माना जाये, जिस प्रक्रिया के तहत मुसलिम मर्द तलाक देते हैं. मुसलिम औरतों को भी यह कहने का हक होना चाहिए कि वह अभी तलाक देती है और फिर एक महीने बाद दोबारा तलाक कहे और उसके एक महीने बाद फिर तीबारा कहे. इसके बाद तलाक हो जाये. हालांकि, मुसलिम औरतों के लिए फिलहाल जो खुला का तरीका है, वह बहुत ही लंबा है और पेचीदा भी है.
इतना पेचीदा कि बहुत सी औरतों को तो इसे बीच में छोड़ देना पड़ता है. तलाक से ही जुड़ा एक मसला हलाला का है. इसके लिए भी ऐसी ही लड़ाई की जरूरत है कि अगर तलाकशुदा शौहर-बीवी फिर से एक होना चाहते हैं, तो उसमें हलाला को न घुसने दिया जाये.
मुगल काल में तलाक के नियम
– प्रोफेसर शिरीन मूस्वी, इतिहासकार
इस्लामी कानून में तलाक शौहर का विशेषाधिकार होता है, अगर निकाहनामा में कुछ अलग बात न जोड़ी गयी हो. चलन के लिहाज से देखें तो मुगलकालीन भारत में मुसलमानों में तलाक के बहुत इक्का दुक्का वाकये हुआ करते थे. वर्ष 1595 में इतिहासकार और अकबर के आलोचक तथा उनके समकालीन अब्दुल कादिर बदायूनी ने लिखा था- ‘चूंकि तमाम स्वीकृत रिवाजों में तलाक ही सबसे बुरा चलन है, इसलिए इसका इस्तेमाल करना इंसानियत के खिलाफ है.
भारत में मुसलमान लोगों के बीच सबसे अच्छी परंपरा ये है कि वो इस चलन से नफरत करते हैं और इसे सबसे बुरा मानते हैं. यहां तक कि कुछ लोग तो मरने मारने को उतारू हो जाएंगे अगर कोई उन्हें तलाकशुदा कह दे.” ये बातें उन्होंने मुस्लिम देशों के रिवाजों को ध्यान में रखते हुए कही थीं.
‘मजलिस-ए-जहांगीरी’ के मुताबिक बादशाह जहांगीर ने 20 जून 1611 को जहांगीर ने बीवी की गैर जानकारी में शौहर द्वारा तलाक की घोषणा को अवैध करार दिया और वहां मौजूद काजी ने इसकी अनुमति दी. उस दौर में पत्नी की ओर से ‘खुला’ या तलाक का भी चलन था.
ऐसा लगता है कि उस दौर में प्रचलित ऐसे चार नियम रहे थे जिनका निकाहनामों में जिक्र किया गया था या उनका हवाला दिया गया था. ये नियम थे-
– मौजूदा बीवी के रहते शौहर दूसरी शादी नहीं करेगा.
– वो बीवी को नहीं पीटेगा.
– वो अपनी बीवी से लंबे समय तक दूर नहीं रहेगा और इस दौरान उसे बीवी के गुजर बसर का इंतजाम करना होगा.
– शौहर को पत्नी के रूप में किसी दासी को रखने का अधिकार नहीं होगा.
ये चार नियम या शर्तें अकबर के समय से लेकर औरंगजेब के जमाने तक की किताबों और दस्तावेजों में मिलते हैं और इसलिए उस दौर में ये पूरी तरह स्थापित थे. लेकिन निकाहनामा या लिखित समझौता संपन्न और शिक्षित वर्ग का विशेषाधिकार होता था या ये चलन इनमें ज्यादा था. गरीबों में शौहर द्वारा शादी के दौरान सबके सामने किए गए जुबानी वादे ही आम तौर पर चलन में थे.
(बीबीसी हिंदी में प्रकाशित लेख के संपादित अंश. साभार)
अभी तो यह पहली मंजिल है
शीबा असलम फहमी इस्लामिक फेमिनिस्ट एवं पत्रकार
भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने देश के सामने यह नजीर पेश की है कि कैसे वे खुद अपनी लड़ाई लड़ भी सकती हैं और जीत भी सकती हैं. न्यायिक सुधार के जरिये समाज सुधार का रास्ता इस देश में पहले भी अपनाया गया है, लेकिन हमारी सरकारें जिस तरह मर्दवाद के आगे घुटने टेकती रही हैं, उससे यह भ्रम बन चुका था की महिलाओं की लड़ाई अनंत काल तक चलेगी. शाहबानो से शायरा बनो तक, सिर्फ 30 साल की अवधि में मुस्लिम महिलाओं ने अपनी कमान संभाल ली है. वे पितृसत्ता को धार्मिक और कानूनी, दोनों स्तरों पर चुनौती देने में सफल रही हैं.
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के लगभग 400 पन्नों का जो फैसला आया है, जिसमें फैसले को त्रुटिरहित और सर्वमान्य बनाते हुए न सिर्फ पवित्र कुरआन को ठीक से उद्धृत किया गया है, बल्कि साथ ही भारत के न्यायालयों के फैसले, दूसरे मुस्लिम मुल्कों के तीन तलाक पर फैसले, अरब मुल्कों के कानून, दक्षिण एशियाई मुस्लिम मुल्कों के कानून और संवैधानिक प्रावधान उद्धृत किये गये हैं.
न्यायिक और संवैधानिक नैतिकता का हवाला भी कई जगह दिया गया है कि कहीं कोई पहलू ढीला न छूट जाये. इतनी सतर्कता इसलिए कि कठमुल्लावादी तत्व भारत में इस्लाम को खतरे में न घोषित कर दें. खुशी की बात यह है कि यह जजमेंट कहता है कि तीन तलाक इस्लाम के विरुद्ध है, लेहाजा यह मुस्लिम महिलाओं के धार्मिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है. यानी बजाय इसके कि मर्दवादी यह कह पाते कि यह उनके धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है, फैसला यह कहता है कि तीन तलाक की परंपरा तो ‘मुस्लिम महिलाओं के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है’. हमारी जंग का यह अभी पहला पड़ाव है, अभी कई मोर्चे जीतने हैं और हम तैयार हैं. मर्दवादी तबका फिलहाल बगले झांक रहा है और फैसले का विस्तृत अध्ययन करने के बाद ही प्रतिक्रिया देने की बात कर रहा है, लेकिन आम मुसलमान औरत और मर्द इसका स्वागत कर रहे हैं.
पिछले कई सालों से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक बेरहम मालिक की भूमिका में मुस्लिम महिलाओं को घर बैठने, चुप रहने, हुक्म मानने, पर्दा करने, और जुल्म सहने को उनका इस्लाम बताता रहा है. दुनिया का कोई तर्क बोर्ड की हठधर्मी तोड़ नहीं पाया. फंडामेंटल राइट्स, ह्यूमन राइट्स, जेंडर राइट्स, माइनॉरिटी राइट्स के सभी तर्क बोर्ड के दरवाजे पर दम तोड़ते रहे. आखिरकार मुस्लिम महिलाओं के ‘इस्लामी अधिकारों’ को सीढ़ी बना कर इस फैसले ने उन्हें गुलाम से इंसान बनने की चढ़ाई पर पहला कदम रखवा दिया. तीन तलाक के खत्म होने से हलाला जैसी आपराधिक और व्यभिचारी व्यवस्था अपने आप दम तोड़ देगी. रही बात बहुविवाह की, तो अब हमारी नजर उसी पर है. अगली मुहिम बहुविवाह को नियंत्रित करने की है और मौलाना यह जानते हैं कि एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ, तो रुकने का नाम नहीं लेगा.
इन देशों में नहीं है तीन तलाक की प्रथा
भारत में उच्चतम न्यायालय द्वारा तीन तलाक को अमान्य घोषित किया जा चुका है. अपनेदेश से पहले भी 22 देश तीन तलाक को अमान्य घोषित कर चुके हैं. जानते हैं किन-किन प्रमुख देशों में इस प्रथा को कानूनी मान्यता नहीं है.
– पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, तुर्की, साइप्रस, सीरिया, जॉर्डन, मिस्र, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, इरान, इराक मलेशिया, ब्रूनेई, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, इराक आदि देशों में तीन तलाक अमान्य घोषित किया जा चुका है.
– पाकिस्तान – यहां मुस्लिम फैमिली लॉ ऑर्डिनेंस (1961) के जरिये पारंपरिक तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया गया और मुस्लिम पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध किया गया. इस ऑर्डिनेंस के तहत तलाक देने के लिए पति को स्थानीय परिषद के अध्यक्ष को इस संबंध में सूचना देने के लिए लिखित नोटिस देना होगा और इसकी एक प्रति अपनी पत्नी को भी देना होगा.
इसके बाद ही आगे की कार्रवाई होगी. यह कानून तब अस्तित्व में आया जब पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने 1955 में अपनी पहली पत्नी की अनुमति के बिना दूसरी शादी कर ली.
– बांग्लादेश – 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना तो इस देश ने भी शादी और तलाक के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ ऑर्डिनेंस को अपना लिया.
– तुर्की व साइप्रस – मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में वर्ष 1926 में कुरान वर्णित तीन तलाक की प्रथा को समाप्त कर दिया गया और उसकी जगह आधुनिक स्विस सिविल कोड को लागू कर दिया गया. यह कानून यूरोप का बेहद प्रगतिशील कानून है. तुर्की के बाद साइप्रस ने भी इस सिविल कोड को अपना लिया.
– मिस्र – 1929 में मिस्र के इस्लामी विद्वानों ने तीन तलाक के पारंपरिक तरीके में बदलाव किया और घोषणा की कि एक साथ तीन तलाक कहने पर भी वह उसका पहला चरण ही माना जायेगा. मिस्र के इस कानून को बाद में सीरिया, जॉर्डन, इराक, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, सूडान और इंडोनेशिया ने भी अपनाया.
– ट्यूनीशिया – इस देश में अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है. अदालत के जरिये ही तलाक की प्रक्रिया आगे बढ़ती है. ट्यूनीशिया की तरह अल्जीरिया में भी अदालत के जरिये दिये जानेवाला तलाक ही मान्य है.
– श्रीलंका – इस देश में तलाक देने के लिए पति को काजी के पास इस बाबत एक नोटिस देना होता है. इसके बाद ही तलाक की प्रक्रिया आगे बढ़ती है.

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