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अछूत

राजेश पाठक गांव के कुछ लोग हमेशा रमेश के पिता के बारे में जानने के इच्छुक रहते थे. उन्हें पता था कि जब से वे गांव के स्कूल से स्थानांतरित हो, दूर शहर के स्कूल में चले गये हैं, तब से ही गांव के स्कूलों में शिक्षा की स्थिति उतनी अच्छी नहीं रह गयी थी. […]

राजेश पाठक

गांव के कुछ लोग हमेशा रमेश के पिता के बारे में जानने के इच्छुक रहते थे. उन्हें पता था कि जब से वे गांव के स्कूल से स्थानांतरित हो, दूर शहर के स्कूल में चले गये हैं, तब से ही गांव के स्कूलों में शिक्षा की स्थिति उतनी अच्छी नहीं रह गयी थी. उनलोगों की अब भी चाहत थी कि वे शहर से स्थानांतरित हो, अपने गांव के स्कूल में आ जाते.

लेकिन, सच्चाई यह थी कि सरकारी नियमों के अनुसार वे अपने गांव के स्कूल में शिक्षक बन कार्य नहीं कर सकते थे. गांव के लोग सोचते थे कि उनके जाने के बाद एक निम्न जाति का शिक्षक इस गांव के इकलौते स्कूल का जब से प्रधानाध्यापक बन कर आया है, तब से मानो स्कूल की शिक्षा व्यवस्था ही चौपट हो गयी हो. परंतु, सच्चाई ऐसी नहीं थी.

उस नये प्रधानाध्यापक सुरेश के आने से बच्चे स्कूल में और भी अनुशासित हो विद्या अध्ययन करते और सुसंस्कारित हो रहे थे. सभी बच्चे ज्योंही विद्यालय के मुख्य द्वार पर पहुंचते, उस मुख्य द्वार को विद्या का मंदिर समझ अपना मस्तक टेक कर प्रवेश करते और फिर अपनी-अपनी कक्षाओं में स्थान ग्रहण कर लेते.

प्रत्येक दिन प्रधानाध्यापक इस एक शिक्षकीय विद्यालय में विषय से संबंधित पाठ्य सामग्रियों की पढ़ाई के दौरान थोड़ा वक्त निकाल कर व्यवहार कुशलता एवं नैतिकता का पाठ बच्चों को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. बच्चे भी सर्वस्व न्योछावर कर गुरु भक्ति में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते. उन्हें मां-बाप का प्यार भी मानो शिक्षकों से सहजता से मिल जाता था. सभी बच्चे ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, जाति-धर्म जैसे भेदभावों से बहुत ही ऊपर उठ कर मानव धर्म के गुणों का वरण कर रहे थे. उन्हें विद्यालय में रह कर स्वर्गिक और दैविक अनुभूति प्राप्त हो रही थी.

गांव के कुछ संकीर्ण व जमींदार मानसिकतावाले घराने के लोगों को विद्यालय के अछूत प्रधानाध्यापक की लोकप्रियता एवं स्कूली बच्चों का उसके प्रति समर्पण भाव रास नहीं आ रहा था. उन्हें निम्न जाति के प्रधानाध्यापक के प्रति बच्चों में विकसित होते जा रही गुरु भक्ति सर्वदा सालती रहती. वे स्कूल के प्रधानाध्यापक के विरुद्ध गांव के अन्य लोगों को भड़काने एवं जलील करने की मोहलत की तलाश में रहते. परंतु, प्रधानाध्यापक पूरी तन्मयता से बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगाते, अंदर ही अंदर आत्मिक सुखों के सागर में बिना डगमगाये, अपनी नैया को खेते जा रहे थे.

विद्यालय के सभी बच्चे प्रधानाध्यापक द्वारा दी गयी शिक्षा के अनुसार सुबह उठते अपने मां-बाप के चरण स्पर्श कर पूरे आत्मविश्वास के साथ दिनचर्या शुरू करते. बच्चों में आये इस परिवर्तन को कुछ अभिभावक अपना सौभाग्य, तो कुछ संकीर्ण विचारधारा के उच्च जाति के लोग नये शिक्षक अछूत प्रधानाध्यापक की सोची-समझी दूरगामी रणनीति का हिस्सा समझते. उन्हें अपने बच्चों में आ रहे सुसंस्कृत परिवर्तन के बजाय प्रधानाध्यापक के प्रति बच्चों की अतिशय गुरु भक्ति एवं गुरु वचनों के सम्मान की चिंता सताती. उस गांव के कुछ प्रबुद्ध लोग, सुरेश के अछूत जाति का होने पर भी उसके अंदर की विलक्षण प्रतिभा के प्रति यह सोच, मन ही मन प्रसन्न होते कि उनके बच्चे सुसंस्कृत हो, जीवन के असली मूल्यों के करीब होते जा रहे थे.

परंतु, ऐसे अभिभावकों की संख्या नगण्य थी. वे भी गांव के बाहुबली व उच्च जाति के घरानों के बीच अछूत प्रधानाध्यापक के गुणों का बखान खुलेआम करने में जी चुराते थे. उन्हें अंदर ही अंदर डर रहता था कि कहीं वे अपने रसूख के बल पर उन्हें समाज से बहिष्कृत न कर दें. गांव के रसूखदार माने जानेवाले उच्च जाति के कुछ लोगों ने मिल कर एक योजना बनायी कि क्यों नहीं प्रधानाध्यापक को इतना जलील किया जाये कि वह स्वयं इस गांव के विद्यालय से अपना स्थानांतरण कहीं अन्यत्र करा ले.

इन दिनों सरकार द्वारा भी स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा था. सरकारी कार्यालयों, सार्वजनिक स्थानों, गली-मुहल्लों आदि में पसरे कूड़े-करकट, गंदगी आदि की साफ-सफाई करना मानो एक प्रचलन-सा बन गया था. प्रधानाध्यापक ने भी सभी स्कूली बच्चों को अगले रविवार की छुट्टी के दिन टीम बना कर अपने नेतृत्व में स्कूल और गांव की बजबजाती, गंदी नालियों को साफ करने का ठान रखा था. इसके लिए उसने सभी आवश्यक तैयारियां कर रखी थी. योजनानुसार, रविवार को स्वच्छता अभियान में सारे बच्चे जुट गये.

इस अभियान में कुछ वरिष्ठ बच्चों को टीम का लीडर बनाया गया था, परंतु उस संपूर्ण अभियान की पूरी देख-रेख स्वयं प्रधानाध्यापक कर रहे थे. सुबह से लेकर शाम तक पूरे गांव-मुहल्लों की गलियां गंदगी से मुक्त हो गयी थीं. प्रधानाध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ जब गांव के एक रसूखदार के घर की ओर जाती गलियों की गंदगी को साफ कर रहे थे, उसी समय एक व्यक्ति की घमंड से युक्त वाणी को सुन कर ठिठक गये. ‘‘बच्चों थोड़ा रुक जाओ.

अपने कोमल हाथों से इस तरह गंदगी उठाना शोभा नहीं देता. और तो और, तुम्हें तो गंदगी साफ करने की न तो आदत है, न ही अनुभव. तुम्हें नहीं मालूम कि तेरा गुरु उस जाति से ताल्लुक रखता है, जो समाज में हमारे-तुम्हारे द्वारा त्याज्य गंदगियां चिरकाल से साफ करते आया है. इनके रहते तुम जैसे अनुभवहीन बच्चों से इस तरह गंदगी बिल्कुल ही साफ नहीं हो सकती.’’ यह कहते हुए उस व्यक्ति ने अपने घर की कुदाल प्रधानाध्यापक को थमा दी. प्रधानाध्यापक स्थिर चित्त एवं गंभीर स्वभाव के थे.

उन्होंने उस व्यक्ति के जातिगत अहंकार एवं कुंठा को सहजता से भांप लिया. बच्चों को उस व्यक्ति के वचनों का भावार्थ समझाना उन्होंने उचित नहीं समझा. उधर, सफाई अभियान सफलतापूर्वक पूरा करने का भी दायित्व प्रधानाध्यापक पर ही था. परंतु, प्रधानाध्यापक के मन का समुद्र सदा उस व्यक्ति के वचनों से हिचकोले मारता रहा कि ज्ञान-विज्ञान इतना ऊंचा है, विश्व के सभी प्राणी वैज्ञानिक चमत्कार से एक-दूसरे के इतने करीब एवं परस्पर निर्भर हैं, फिर भी लोग संकीर्ण जातिगत हितों एवं उसकी श्रेष्ठता का राग अलापना क्यों नहीं छोड़ते? जीवन क्षणभंगुर है, यह तो सब जानते हैं पर अपने हितों की बात पूरी करनी हो, तो उन्हें अपना जीवन अनंतकाल तक टिकनेवाला अनुभव क्यों लगता है.

माना कि मैं अछूत हूं. त्याज्य हूं, पर मुझे अछूत बनाया किसने? यह कितना आश्चर्य भरा है कि गंदगी तो सभी पैदा करनेवाले होते हैं, पर कुछ ही होते हैं, जो उस पैदा की गयी गंदगी को स्वयं साफ करते हैं और बहुसंख्यक ऐसे होते हैं, जो उन मजबूर लोगों की तलाश में जुट जाते हैं, जो अपने जीवन अस्तित्व को रखने के लिए उनके द्वारा पैदा की गयी गंदगी को साफ कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता हो.

यह सच है कि प्रधानाध्यापक सोचे जा रहे थे, कि मजबूरियां इनसान को कर्म करने की ओर प्रेरित करती हैं. मेरा तो मानना है कि मजबूरियों से उपजी कर्म की दिशा और दशा चिरकाल तक स्थायी नहीं हो सकती, क्योंकि मजबूरियां मिटते ही कर्म की दिशा बदल जाती है.

मजबूरियां समाज में उच्च जाति एवं वर्ण माने जानेवाले लोगों को भी जूते साफ कर भी धन अर्जन को मजबूर कर देती हैं, तब उस व्यक्ति या परिवार को हम मोची का स्थायी नाम क्यों नहीं दे पाते? क्यों नहीं उनकी जातिगत श्रेष्ठता कर्मगत श्रेष्ठता या निकृष्टता में विलीन हो पाती है? आज मुझे क्यों लोग अछूत कह कर अछूत मान लेना चाहते हैं, जबकि मैं ज्ञान अनुभवों से लोगों के बीच सुसंस्कार बांटता हूं? सच कहूं, तो जाति तो कर्म की दासी है.

कर्म स्थायी हो, तो जाति स्थायी हो सकती है. परंतु, सच यह है कि कर्म स्थायी या समरूप स्वरूपवाला हो ही नहीं सकता. परिस्थितियों का दास बना व्यक्ति एक कर्म से दूसरे कर्म को सदा स्थानांतरित होता रहता है. मुझे नियत कर्म से उपजी वर्ण व्यवस्था को मान लेने में कोई अचरज नहीं, पर तब उनलोगों की जाति, जो अपनी मूल जातिगत कर्मों से विलग हो कर अन्य जातिगत कर्मों में स्वयं को आत्मसात कर अपने जीवन का आधार बना लेते हैं, को धर्म परिवर्तन की तरह जाति परिवर्तन के अधिकारों को क्यों नहीं मान्यता मिली?

सच तो यह है कि कर्म के स्वरूप का वर्गीकरण काल, समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप सदा अस्थायी एवं परिवर्तनशील होता है.

प्रधानाध्यापक के मन में खुद तरह-तरह के सवाल पैदा होते जाते, उनका मस्तिष्क स्वयं उनका हल ढूंढ़ता जा रहा था. बस आवश्यकता इस बात की रह गयी थी कि उसके मस्तिष्क द्वारा ढूंढ़े जा रहे हल को समाज सहजता से मान्यता प्रदान करने में असहज महसूस नहीं करता, परंतु समाज को इस पारंपरिक मान्यताओं की वर्जनाओं से मुक्ति प्रदान करना उतना भी सहज नहीं था और यह भी सच था कि प्रधानाध्यापक भी हार माननेवालों में से नहीं थे. वह उस व्यक्ति के दंभ, अहंकार, कुंठाधारित अस्त्रों से उसे ही घायल कर उस पर अपने विवेक एवं चातुर्य का मरहम लगा कर सदा के लिए उसे इस रोग से मुक्त कर देना चाहते थे.

वह बच्चों में घर करते जा रहे सुसंस्कारों के हथियार से उसके ही अभिभावकों में जातिगत दंभ और अहंकार के शत्रु का विनाश कर देना चाहते थे, जो किसी न किसी रूप में बच्चों के व्यक्तित्व के समुचित विकास को बंधक बना रखा हो.

धीरे-धीरे सभी बच्चों ने प्रधानाध्यापक से प्राप्त शिक्षा को व्यावहारिक जीवन में उतारना शुरू कर दिया था. अपने ही माता-पिता व वरिष्ठ लोगों द्वारा समाज-परिवार में बरती जानेवाली विसंगतियों के प्रति विरोध जताना शुरू कर दिया था. उच्च जाति के बच्चे निडर हो अपने से निम्न जाति के बच्चों के साथ खुल कर मिलना, उनके घर आना-जाना बेरोकटोक शुरू कर दिया था. निम्न जाति के टोलों में बसे बच्चों के साथ हृदयंगम होने लगे थे. ऊंच-नीच के भेदभाव की दीवार बच्चों के बीच बालू की भीत की तरह ढहते जा रहे थे.

यह सब उच्च जाति के अधिकतर लोगों को नागवार लग रहा था. उन लोगों ने अपने बच्चों को गांव के इस स्कूल में नहीं पढ़ाने की योजना बनानी शुरू कर दी थी. इसी योजना के तहत सर्वप्रथम उनलोगों ने यह तय किया कि इस गांव के प्रीतम सिंह, जिसे जाति एवं धन दोनों ही दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता था, अपने बच्चे सागर को स्कूल भेजना बंद करें. प्रीतम सिंह ने लोगों की बात मान कर सागर को स्कूल जाने से मना कर दिया. सागर के स्कूल नहीं गये कुछ दिन गुजर चुके थे. तब अछूत प्रधानाध्यापक सुरेश ने फैसला किया कि क्यों नहीं सागर के इस तरह अचानक स्कूल न आने की सुधि लें.

उस पर सागर जैसा लड़का, जो धीर-गंभीर स्वभाव का होने के साथ-साथ कम उम्र में ही जीवन-दर्शन को आत्मसात कर लेनेवाला था. प्रधानाध्यापक को रहा नहीं गया. वह प्रत्येक शनिवार की शाम स्कूल बंद होने पर अपने घर जाया करते थे, पर इस शनिवार को उन्होंने अपने घर न जा कर सागर के घर उसकी खोज-खबर लेने का मन बना लिया. एक राहगीर की मदद से प्रधानाध्यापक सागर का घर आसानी से ढूंढ़ कर पहुंच गये. उसके घर से सटा एक दालान था, जिसमें से कुछ लोगों की बातचीत की आवाज आ रही थी. प्रधानाध्यापक ने दालान पर पहुंच कर दोनों हाथ जोड़े अपना परिचय देते हुए सागर से मिलने की बात कही.

‘क्या तुम सागर से ही मिलना चाहते हो? मुझसे नहीं मिलोगे? मैं सागर का बाप हूं, प्रीतम सिंह ने बड़े ही रौब में आ कर कहा- अहो भाग्य! आपके दर्शन हुए, प्रधानाध्यापक सुरेश ने कहा- क्या मुझे बैठने को नहीं कहेंगे? प्रधानाध्यापक ने आत्मविश्वास के साथ पूछा. कोई कुरसी अगर खाली पड़ी हो, तो बैठ जाओ, वरना तुम्हारी दो-चार फिजुल बातों को भी सुनने का वक्त फिलहाल मेरे पास नहीं है, प्रीतम सिंह ने घमंड के साथ कहा. प्रीतम सिंह तो ऐसे अवसर की तलाश में था ही, जबकि वह अछूत शिक्षक का मान-मर्दन करे.

उसे लगा मानो वह अवसर उसे आज मिल ही गया. वह इस आये अवसर को गंवाना नहीं चाहता था. कुरसियां खाली न होने से प्रधानाध्यापक ने खड़े-खड़े ही बिना देर किये सागर के कुछ दिनों से स्कूल नहीं आने की वजह जाननी चाही. सागर मेरा बेटा है. उसे स्कूल भेजूं या ना भेजूं, तुझे तकलीफ क्यों? प्रीतम सिंह ने बड़ी हेकड़ी के साथ कहा. सागर सिर्फ और सिर्फ आपका बेटा है, यह आपने कैसे मान लिया? प्रधानाध्यापक सुरेश ने प्रत्युत्तर में कहा.

और नहीं तो क्या, वह तुझ जैसे अछूत का बेटा है? प्रीतम सिंह ने अकड़ कर अपनी बात कह डाली. बस बाबूजी बस! बहुत हो गया. आप भ्रम में थे कि मैं सागर से मिलने आया था.

मुझे तो सागर पहले ही आपके बारे में, आपकी सोच के बारे में बता चुका था. सच तो यह है कि मैं आपसे ही मिलना चाह रहा था. मैं जानता हूं, मुझे सागर ने स्कूल नहीं आने की वजह पहले ही बता दी थी. उसकी गुरु भक्ति आपको इसलिए रास नहीं आयी कि मैं अछूत हूं. सच कहा आपने. भला एक अछूत जाति का आदमी उच्च संस्कारों की बात सोच भी कैसे सकता है? जो चीथड़ों और गुदड़ियों में पलता हो, भला मखमलों का एहसास उसे कैसे हो? पर, यह मत भूलिए कि कोई व्यक्ति महान तब होता है, जब दूसरों का अपमान न कर, उसके स्वाभिमान की रक्षा करता है और यह सब आपमें दिखायी देता है. मैं आपमें वह सब देख पा रहा हूं, जिसे आप चाह कर भी नहीं देख पा रहे. आखिर ऐसा क्यों? नजर में असर होता है. नजर टेढ़ी हो, तो उसके अलग और सीधी हो, तो अलग मायने निकल आते हैं.

आपकी टेढ़ी नजरें मुझे भले अछूत मानती हों, पर नजरें सीधी कर दें, तो वहीं मेरा सौम्य चेहरा बरबस आपको अपना ही पुत्र मान लेने का विस्मयकारी एहसास करा जायेगा. जिन सवालों के जवाब खोजे भी नहीं मिलते, अगर उनके जवाब कूड़े-करकटों पर बिखरे पन्नों में मिल जायें, तो उसे लोग छोड़ा नहीं करते. उन्हें यूं सहेज कर रख लेने में कोई परहेज नहीं करते. जो कूड़ों-करकट की परवाह करते हैं, वे अपनी जिंदगी खुद ही तबाह करते हैं. बच्चे को स्कूल आने से मत रोकिये, वह बहुत कोमल है. उस पर अपने विचार मत थोपिए. रूंधे स्वर में प्रधानाध्यापक सुरेश ने कहा.

आपका क्या? प्रधानाध्यापक एक लय में कहे जा रहे थे, आप तो इतने रसूखदार हैं कि सरकार के सहारे मेरा स्थानांतरण इस स्कूल से किसी दूसरे स्कूल जब चाहें करा दें. पर, क्या बच्चों में मेरे प्रति स्वाभाविक रूप से उपजी गुरु भक्ति, अपने शिष्यों के प्रति पैदा हुई मेरी उस आसक्ति को किसी के सहारे मिटा पायेंगे?

शायद नहीं, क्योंकि गुरु भक्ति हो या गुरुओं की शिष्यों के प्रति आसक्ति, इसे कानूनों के मोहताज नहीं बनाये जा सकते. क्या सोचते हैं, प्रधानाध्यापक सुरेश कहे जा रहे थे कि एक अछूत, जो पाठ अपने शिष्यों को पढ़ाते आया है, आपके ही दरवाजे पर आ कर आपको ही पढ़ा गया. नहीं, कदापि नहीं. यह तो वह पाठ है, जिसे आप, हम, हर कोई अपने-अपने बालपन में पढ़ा होता है. कालचक्र के वक्र होते बहुसंख्यक इसे भूल जाते हैं. मैं उसी कालचक्र की वक्रता को सीधा करना चाहता हूं.

बाबूजी! मैं सोचता हूं कि कोई अपने में ही समायी अज्ञानता, अशिक्षा एवं दंभ को अछूत क्यों नहीं मानता? काश! कोई इसे ही अछूत मानता और इस अछूत को भी अपना ही पुत्र जानता. प्रीतम सिंह अछूत प्रधानाध्यापक सुरेश की बातें इस तरह अवाक् हो सुनता जा रहा था, मानो उसके मुंह से निकली अमृतवाणी उसे आत्मग्लानि का बरबस एहसास करा रही हो.

वह प्रधानाध्यापक के आत्मविश्वास एवं निर्भीकता को देख हतप्रभ था. जब प्रधानाध्यापक ने अचानक बोलना बंद कर दिया, तो प्रीतम सिंह हठात बोल पड़ा- बोलते जाओ. पता नहीं आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मेरा अंतर्मन जाग रहा है. इस जग रहे अंतर्मन को पूरी तरह जगा देना चाहता हूं. कोई इसे भले ठगना कहता हो, तब भी मैं ठगा जाना चाहता हूं. आज मुझे एहसास हो रहा है कि संस्कार किसी जाति का मोहताज नहीं. संस्कार मोहताज भी है, तो प्रधानाध्यापक जैसे दृढ़ निश्चयी, वीर्यवान और शौर्यवान लोगों को, जो निडर हो बेबाक सच्चाई बयां कर जाता हो और लोगों की कोई चाहत न भी हो, तो अच्छाई उनके घर कर जाता हो.

प्रीतम सिंह अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ. उसे लग रहा था मानो वर्षों बाद उसे जीवन के दर्शन हुए. वह अछूत प्रधानाध्यापक को अपना जीवन समझ उसे अपने में आत्मसात कर लेना चाह रहा था. मानो उसके ऐसा नहीं करने से वह जीवन से ही जाता रहेगा. उसने प्रण किया कि आज और अभी से सागर पर उससे कहीं ज्यादा प्रधानाध्यापक का अधिकार है. सागर के जीवन की चिंता करना उसके लिए बेकार है, क्योंकि अब पुत्र तो पुत्र, उसे भी प्रधानाध्यापक के विचारों की अधीनता स्वीकार है.

इन सबों के बीच प्रीतम सिंह की आंखों से बहती प्रायश्चित रूपी अश्रु की धारा अछूत प्रधानाध्यापक सुरेश की आंखों से बहते स्वाभिमान और विवेक की अश्रुधारा में इस तरह विलीन हो रही थी, मानो नदियां समुद्र में मिल अपनी चिरस्थायी शांति को प्राप्त कर रही हों.

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