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1 साल मोदी सरकार: सभी समस्याओं का हल एक साल में संभव नहीं,प्रशासन की कार्यशैली में बदलाव आया

मोदी सरकार से यह शिकायत अपनी जगह सही हो सकती है कि एक साल में उम्मीद के मुताबिक सरकार आर्थिक सुधारों की ओर नहीं बढ़ सकी है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि नीति आयोग के गठन से लेकर राज्यों को अधिक वित्त मुहैया कराने तक संस्थागत सुधारों तथा प्रशासनिक प्रबंधन के […]

मोदी सरकार से यह शिकायत अपनी जगह सही हो सकती है कि एक साल में उम्मीद के मुताबिक सरकार आर्थिक सुधारों की ओर नहीं बढ़ सकी है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि नीति आयोग के गठन से लेकर राज्यों को अधिक वित्त मुहैया कराने तक संस्थागत सुधारों तथा प्रशासनिक प्रबंधन के मोरचे पर कुछ उल्लेखनीय पहलें हुई हैं.
डिजिटल तकनीक के अधिकाधिक उपयोग के साथ स्वायत्तता और सहभागिता के सिद्धांत के आधार पर विकास की ओर अग्रसर होना मोदी सरकार की नीति है. लेकिन, इस राह में चुनौतियां भी हैं और दिशाहीनता का खतरा भी. बीते एक साल में संस्थागत और प्रशासनिक मोरचे पर उठाये गये कदमों का एक आकलन..
सुरेंद्र सिंह
पूर्व कैबिनेट सचिव, भारत सरकार
प्रधानमंत्री मोदी ने मंत्रियों के कामकाज पर भी निगरानी रखी है और समय-समय पर इसकी समीक्षा करते रहे हैं. संस्थागत स्तर पर बदलाव लाने के लिए बैंकों को वित्तीय स्वायत्तता देने की बात प्रधानमंत्री ने कही है.उन्होंने बैंकों को स्पष्ट कहा है कि किसी मंत्री के मौखिक आदेश को बैंक नहीं मानें. कोल ब्लॉक और स्पेक्ट्रम की पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया से सरकार को काफी राजस्व हासिल हुआ है. रेलवे की दशा सुधारने की कोशिश की जा रही है.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश के प्रशासनिक कामकाज और उसके तौर-तरीके में काफी बदलाव आया है. हालांकि, प्रशासनिक स्तर पर आमूल-चूल बदलाव के लिए समय चाहिए, लेकिन इस दिशा में सरकार ने कोशिश की है. यूपीए सरकार के दौरान नीतिगत फैसले लेने में ठहराव आ गया था.
भ्रष्टाचार के कारण नौकरशाह फैसले लेने से हिचक रहे थे और इससे सरकारी कामकाज प्रभावित हो रहा था. इतना ही नहीं, बाद में किसी जांच से बचने के लिए नौकरशाह फाइलों पर हस्ताक्षर नहीं कर रहे थे.प्रधानमंत्री मोदी ने अधिकारियों को बिना डरे हुए काम करने को कहा और इससे सरकार बनने के बाद फैसले लेने की प्रक्रिया में तेजी आयी है. नौकरशाही में भरोसा जगाने के लिए प्रधानमंत्री ने सभी सचिवों को कहा कि यदि उन्हें कोई परेशानी हो, तो वे उनसे सीधे संपर्क कर सकते हैं.
सरकारी दफ्तरों में लेट-लतीफी को दूर करने के लिए कर्मचारियों को समय पर आने का आदेश दिया गया और इसके लिए सभी विभागों में बायोमेट्रिक मशीनें लगा दी गयीं. अब अधिकांश कर्मचारी समय पर ऑफिस आ रहे हैं. कर्मचारियों के कामकाज की निगरानी भी की जा रही है. प्रधानमंत्री कार्यालय और कैबिनेट सचिवालय अधिकारियों के कामकाज की निगरानी कर रहा है. सरकार की पहल के कारण नीतिगत फैसले लिये जा रहे हैं.
हालांकि, इतना जरूर है कि चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने जो उम्मीद जगायी थी, उस हिसाब से बदलाव नहीं हुआ है. लेकिन चुनावी घोषणाओं और हकीकत के पैमाने पर काफी अंतर होता है. प्रत्येक पार्टी चुनावों में लोगों को लुभाने के लिए घोषणाएं करती है.
कुल मिलाकर देखें तो मोदी सरकार का एक साल का कार्यकाल कई पैमाने पर आशाजनक परिणाम लेकर सामने आया है. महंगाई दर में कमी आयी है. वित्तीय घाटा और चालू बचत घाटा नियंत्रण में है. विदेश नीति के मोरचे पर अच्छी कोशिश की जा रही है. निवेश बढ़ाने के उपाय किये जा रहे हैं. कॉपरेटिव फेडरेलिज्म को बढ़ाने के लिए 14वें वित्तीय आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी 10 फीसदी बढ़ा दी गयी.
इससे राज्य वित्तीय तौर पर सशक्त होंगे. सरकार ने खर्च कम करने के लिए कई मंत्रालयों को या तो खत्म कर दिया या उसका दूसरे मंत्रलय में विलय कर दिया है.
बदलते आर्थिक- सामाजिक माहौल में योजना आयोग की जगह ‘नीति आयोग’ का गठन संस्थागत बदलाव के संदर्भ में बड़ा प्रयास कहा जा सकता है. मोदी सरकार ने इसमें राज्यों को शामिल किया है और राज्यों की जरूरतों के हिसाब से नीतियां बनाने की बात कही है.
भारत बहुत बड़ा और विविधताओं वाला देश है. इसकी समस्या को एक साल में हल करना संभव नहीं है. लेकिन सरकारी खर्च में कटौती करने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक के पूर्व प्रमुख बिमल जालान के नेतृत्व में एक कमिटी का गठन किया है और उम्मीद है कि उसकी रिपोर्ट पर सरकार अमल करेगी. सरकार के बेवजह के खर्च को कम कर जनकल्याण में लगाया जा सकता है.
देश में प्रशासनिक सुधार की काफी गुंजाइश है, खासकर राज्य स्तर पर, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, जनकल्याण जैसी योजनाओं का क्रियान्वयन आखिरकार राज्यों को ही करना होता है. कई राज्य इन क्षेत्रों में बेहतर काम कर रहे हैं, लेकिन कई राज्यों का रिकार्ड अच्छा नहीं है.
नौकरशाही को जवाबदेह बनाकर योजनाओं के क्रियान्वयन को बेहतर बनाया जा सकता है. अधिकारियों का तबादला जल्दी-जल्दी नहीं किया जाना चाहिए और उन्हें कम से कम एक जगह पर दो साल का समय दिया जाना चाहिए. उनके कार्यकाल को फिक्स करने के साथ ही अधिकारियों की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए और उन्हें तय समय में लक्ष्य को पूरा करने की जिम्मेवारी दी जानी चाहिए.
यही नहीं अधिकारियों के कामकाज की मॉनीटरिंग भी होनी चाहिए. लोगों में सार्वजनिक सेवा को लेकर अक्सर शिकायत रहती है. नौकरशाही को ज्यादा जिम्मेवार बना कर इस समस्या को दूर किया जा सकता है.
मोदी सरकार द्वारा बड़ी योजनाओं के क्रियान्वयन पर निगरानी करने की पहल अच्छी है. इससे योजनाओं के क्रियान्वयन में तेजी आयेगी और विकास की गति तेज होगी. सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि एक साल में भ्रष्टाचार का एक भी मामला सामने नहीं आया है.
अधिकारियों को बिना किसी दबाव में आये निष्पक्ष फैसले लेने की आजादी मिली हुई है. प्रधानमंत्री का यह आकलन बिल्कुल सही है कि अगर नौकरशाही सही तरीके से काम करने लगे, तो जीडीपी में एक फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है.
लेकिन इसके लिए नौकरशाही को बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के काम करने की आजादी मिलनी चाहिए.मौजूदा सरकार ने अधिकारियों के कामकाज में दखल देने की कोशिश नहीं की है. लेकिन अधिकारियों को भी पूरी ईमानदारी से काम करना चाहिए. अधिकारियों की नियुक्ति इमानदारी और प्रतिभा के आधार पर होनी चाहिए. इससे काम करने वाले अधिकारियों का मनोबल बढ़ता है.
मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद गोल्फ खेलने और गैर-जरूरी काम करने वाले अधिकारियों को सख्त हिदायत दी और उन्हें अपने काम पर ध्यान देने को कहा. प्रधानमंत्री ने मंत्रियों के कामकाज पर भी निगरानी रखी है और समय-समय पर उनके कामकाज की समीक्षा करते रहे हैं.
संस्थागत स्तर पर बदलाव लाने के लिए बैंकों को वित्तीय स्वायत्तता देने की बात प्रधानमंत्री ने कही है. उन्होंने बैंकों को स्पष्ट कहा है कि किसी मंत्री के मौखिक आदेश को बैंक नहीं मानें. कोल ब्लॉक और स्पेक्ट्रम की पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया से सरकार को काफी राजस्व हासिल हुआ है. रेलवे की दशा सुधारने की कोशिश की जा रही है.
रेलवे के आधुनिकीकरण और कार्यप्रणाली में बदलाव की पहल की गयी. कई वर्षो के बाद ऐसा देखने में आया है कि बिना राजनीतिक पहलू पर गौर किये हुए रेलवे के किराये में बढ़ोतरी की गयी और दूरगामी नजरिया अपनाते हुए किसी भी नयी ट्रेन की घोषणा रेल बजट में नहीं की गयी.
विकास को गति देने के अलावा सरकार ने समाज के गरीब तबकों का भी ख्याल रखा. ग्रामीण लोगों तक बैंकिंग सुविधा की पहुंच बढ़ाने के लिए जन धन योजना की शुरुआत की गयी. गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना भी चलायी गयी. सरकार ने आर्थिक सुधार के साथ ही प्रशासनिक सुधार के उपाय किये हैं, क्योंकि बिना प्रशासनिक सुधार के आर्थिक सुधार का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच सकता है.
काले धन पर रोक लगाने के लिए कानून बनाया गया है. मोदी को आने वाले समय में गवर्नेस के स्तर में और बदलाव करने की जरूरत है, ताकि सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों को मिल सके. सब्सिडी की मौजूदा प्रणाली को पारदर्शी बनाने की जरूरत है, ताकि इसका सीधा लाभ लोगों को मिल सके.
मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या रही कृषि क्षेत्र. बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से फसलों को हुए नुकसान से किसान परेशान है. हालांकि, केंद्र ने मुआवजे की प्रक्रिया को सरल बनाया, लेकिन इसका लाभ किसानों को नहीं मिल पा रहा है. कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए सरकार को अन्य उपायों पर गौर करना होगा, क्योंकि नौकरशाही के भरोसे कृषि क्षेत्र का भला नहीं हो सकता है.
कुछ लोगों का कहना है कि नौकरशाही के कामकाज को बेहतर बनाने के लिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की नौकरशाही के प्रमुख पदों पर नियुक्ति होनी चाहिए. यह विचार अच्छा है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के लिए एक प्रक्रिया बनानी होगी. सरकारी वेतनमान और निजी क्षेत्र के वेतनमान में काफी अंतर है.
ऐसे में निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ कितना आकर्षित होंगे यह देखने वाली बात होगी. दूसरी समस्या है कि निजी क्षेत्र का व्यक्ति नीतियों के निर्माण में निजी क्षेत्र की कंपनियों के हित में काम न करे.
अगर ऐसा होगा तो सरकार को नुकसान होगा. इसके लिए सरकार को व्यवस्था बनानी चाहिए, क्योंकि अनुभवी और विशेषज्ञ लोगों की नियुक्ति से सरकारी कामकाज बेहतर होगा और इसका फायदा लोगों को मिलेगा. इसके अलावा, मोदी सरकार को चुनाव सुधार और न्यायिक सुधार की दिशा में ठोस पहल करनी होगी.
बिना इन सुधारों के देश में प्रशासनिक सुधार पूरा नहीं हो पायेगा. प्रधानमंत्री ने इस दिशा में अच्छी कोशिश की है और उम्मीद है कि आने वाले वर्षो में प्रशासनिक स्तर पर व्यापक बदलाव दिखेगा और गवर्नेस में लोगों की भागीदारी बढ़ेगी.
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को बेहतर करने की कोशिश की गयी है. कश्मीर में आयी बाढ़ से निबटने में केंद्र सरकार का प्रयास सराहनीय रहा. उसी प्रकार नेपाल में आये भूकंप के बाद मोदी सरकार ने जिस तत्परता से सहायता के कदम उठाये, वह सरकार की चुस्ती का सबसे बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है. इस तरह मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल को अच्छा कहा जा सकता है.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
बड़े बदलाव की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी मोदी सरकार
डॉ राम सिंह
प्राध्यापक, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स
बिना संस्थागत बदलाव किये देश का विकास संभव नहीं है. गवर्नेस को बेहतर बनाने के लिए शासन में पारदर्शिता और जबावदेही होनी चाहिए. सरकार भले बड़े घोटाले न होने का श्रेय ले, लेकिन सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार मौजूद है. रोजगार सृजन में भी एक साल निराशाजनक रहा है.
मोदी सरकार अपना एक साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही है. पूर्व सरकार से तुलना करें, तो मोदी सरकार का एक साल का कार्यकाल कुछ मायनों में बेहतर लगता है, लेकिन कई पैमाने पर सरकार का रिकार्ड निराशाजनक है.यह सही है कि किसी भी सरकार के एक साल के कार्यकाल में व्यापक बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है, क्योंकि आर्थिक, सामाजिक और संस्थागत बदलाव में समय लगता है.
लेकिन जैसी उम्मीद थी, वैसा बदलाव नहीं दिख रहा है. शुरुआत के दिनों में सरकार ने सरकार की कार्यप्रणाली बदलने के लिए कदम उठाये. जैसे कर्मचारियों का समय पर दफ्तर पहुंचना, उनके कामकाज की निगरानी करना. इन कदमों से दफ्तरों में कर्मचारियों की लेट-लतीफी पर लगाम लगी, लेकिन कार्यशैली पेशेवर नहीं बन पायी है. नौकरशाही में बदलाव के लिए प्रशासनिक सुधार के कदम उठाने होंगे.
आर्थिक मोरचे पर सरकार ने सुधार के कुछ कदम उठाये हैं. बीमा क्षेत्र, रेल और रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा को बढ़ाया है. भूमि अधिग्रहण विधेयक भी कई अध्यादेशों के बावजूद अधर में लटका पड़ा है. ऐसा पहली बार हो रहा है कि देश में किसी कानून को आजमाये बगैर ही बदलने की कोशिश की गयी.
जबकि विपक्ष में रहते भाजपा ने इस कानून का समर्थन किया था और इससे जुड़े संसदीय समिति की अध्यक्षता मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन ने की थी. अगर यह कानून लागू हो गया तो पहले से परेशान कृषि क्षेत्र को काफी नुकसान होगा. इस कानून से फायदा होने की बजाय नुकसान की अधिक संभावना है.
मोदी सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कोई ठोस पहल नहीं की है. उल्टे शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में कटौती कर दी गयी है. सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य का निजीकरण करने की ओर बढ़ रही है. दुनिया में हर देश की सरकार लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराती है. उसी प्रकार उच्च शिक्षा की नियामक संस्था यूजीसी के आवंटन में 20 फीसदी की कटौती कर दी गयी.
इसे विश्वविद्यालयों के कामकाज पर असर पड़ेगा. भ्रष्टाचार दूर करने के लिए मोदी सरकार लोकपाल का गठन नहीं कर पायी है. सरकार से जो लोगों को उम्मीदें थी, वह पूरी होती नहीं दिख रही है. डिलीवरी सिस्टम को दुरुस्त नहीं किया जा सकता है. चुनाव के दौरान भाजपा ने लोगों के शिकायत निवारण के लिए व्यवस्था बनाने की बात कही थी, लेकिन एक साल में इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है.
इस व्यवस्था के नहीं होने से लोगों की बात सरकार तक नहीं पहुंच पा रही है. उसी तरह सूचना आयुक्तों के पद काफी अरसे से खाली हैं. इससे सूचना के अधिकार के तहत लोगों को जानकारी नहीं मिल पा रही है. इस तंत्र के कमजोर होने से पारदर्शिता में कमी आयेगी.
मोदी सरकार ने योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग का गठन किया है. लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस आयोग का काम क्या होगा. क्या नीति आयोग नीतियां बनाने का काम करेगा या सरकार को नीतियां बनाने में मार्गदर्शन देगा? इसके कामकाज को लेकर असमंजस है.
हालांकि, योजना आयोग को खत्म कर सरकार ने एक सत्ता के केंद्र को खत्म कर दिया है. क्योंकि राज्यों को पहले योजना आयोग का भी चक्कर लगाना पड़ता था और सरकारी मंत्रालयों का भी. लेकिन नीति-आयोग की कार्य प्रणाली को लेकर स्पष्टता नहीं है.
मोदी सरकार ने 14वें वित्त आयोग की सिफारिश को स्वीकार कर राज्यों को वित्तीय तौर पर सशक्त करने का फैसला किया जो वाकई में स्वागत योग्य है. राजस्व में 10 फीसदी हिस्सेदारी बढ़ने से राज्य विकास और सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में अधिक खर्च कर पायेंगे और केंद्र पर उनकी निर्भरता कम होगी.
महंगाई को कम करने में सरकार ने सफलता पायी है. इसकी वजह सरकार की नीतियां नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों का कम होना रहा. सरकार कच्चे तेल की कीमतों में आयी कमी का पूरा फायदा नहीं उठा पायी.
देश में मैन्युफैरिंग को बढ़ावा देने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत की गयी. लेकिन इसे धरातल पर सफल करने के लिए सरकार ने कोई खास कदम नहीं उठाया है. मैन्युफैरिंग बढ़ाने के लिए सरकार को और भी कदम उठाने होंगे. सिर्फ नारे से इस क्षेत्र का विकास संभव नहीं है. बड़े उद्योगों के अलावा छोटे और मझोले उद्योगों के विकास पर सरकार को ध्यान देना होगा. सिर्फ विदेशी पूंजी से मेक इन इंडिया का नारा सफल नहीं होगा.
रोजगार सृजन के मामले में भी मोदी सरकार का एक साल का कार्यकाल निराशाजनक रहा है. बिना संस्थागत बदलाव किये देश का विकास संभव नहीं है. गवर्नेस को बेहतर बनाने के लिए शासन में पारदर्शिता और जबावदेही होनी चाहिए. सरकार भले बड़े घोटाले न होने का श्रेय ले, लेकिन सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार मौजूद है. सरकार को पूंजी निवेश के साथ ही सामाजिक क्षेत्र के विकास को भी प्राथमिकता देनी होगी.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
सांस्थानिक और प्रशासनिक सुधार
योजना आयोग के स्थान पर नीति आयोग
‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस’ के अपने राजनीतिक दर्शन को अमली जामा पहनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 65 वर्ष पुरानी संस्था योजना आयोग को भंग कर उसके स्थान पर नीति आयोग की स्थापना की है. नीति आयोग का पूरा नाम नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिग इंडिया (एनआइटीआइ) है.
जहां योजना आयोग का काम पंचवर्षीय योजनाओं की रूपरेखा तैयार करना और आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए संसाधनों का आवंटन करना था, वहीं नीति आयोग का काम नीतिगत सलाह और मार्गदर्शन का होगा. योजना आयोग कथित रूप से अत्यधिक केंद्रीकृत था और इस कारण राज्यों तथा केंद्र सरकार के मंत्रालयों को अक्सर शिकायतें रहती थीं. इस कारण योजना आयोग को सुपर कैबिनेट भी कहा जाता था.
बाजार अर्थव्यवस्था की जरूरतों के मद्देनजर योजना आयोग के स्वरूप में बदलाव की मांग कई वर्षो से की जा रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने उसकी जगह एक नये संस्थान को ही स्थापित कर दिया है. नीति आयोग के तहत राज्यों को उनकी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप निर्णय लेने में अधिक स्वतंत्रता देने की व्यवस्था है.
उम्मीद की जा रही है कि केंद्र से राज्य की ओर एकतरफा नीतिगत प्रवाह के स्थान पर अब सहकारी संघवाद की स्थिति बनेगी. धन आवंटित करने के योजना आयोग के अधिकार नीति आयोग को नहीं दिये गये हैं. अब यह अधिकार वित्त मंत्रलय के पास होंगे.
नीति आयोग के अधिशासी परिषद में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्रशासित प्रदेशों के उपराज्यपाल तथा प्रमुख मंत्रालयों के मंत्री सदस्य हैं. इसके पूर्णकालिक सदस्यों में एक उपाध्यक्ष, एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी तथा कुछ विशेषज्ञ हैं, जो सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जिम्मेवार बनाये गये हैं.
वर्तमान वित्त वर्ष में नीति आयोग के सचिवालय के खर्च के लिए 52 लाख रुपये खर्च का अनुमान है. यह खर्च पिछले वित्त वर्ष में 42 लाख रुपये और 2013-14 के वित्त वर्ष में 25 लाख रुपये था. इस वर्ष नीति आयोग का कुल खर्च 88 करोड़ रुपये होने का अनुमान है, जबकि पिछले वर्ष यह 93 करोड़ और 2013-14 में 78 करोड़ था.
अपनी पहली बैठक में आयोग ने केंद्र की योजनाओं की समीक्षा का कार्यक्रम बनाया है. सरकार द्वारा आयोग के कामकाज से संबंधित दिशा-निर्देशों के जारी होने और इसके पूरी तरह से सक्रिय होने के बाद ही इसकी दशा और दिशा का आकलन हो सकेगा.
संघीय करों में राज्यों को अधिक हिस्सेदारी
14 वें वित्त आयोग की सिफारिशों को मानते हुए केंद्र सरकार ने संघीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी में 10 फीसदी की वृद्धि कर 42 फीसदी करने का निर्णय लिया है. इससे राज्यों को 2015-16 के वित्त वर्ष में अतिरिक्त 1.78 लाख करोड़ मिलेंगे. पिछले वित्त वर्ष में यह राशि 3.48 लाख करोड़ थी.
अगले पांच वर्षो में राज्यों को केंद्र से करों में हिस्से के तौर पर 39.48 लाख करोड़ राशि मिलेगी. इसके अतिरिक्त राजस्व की गंभीर कमी से जूझ रहे 11 राज्यों को 48,906 करोड़ के अतिरिक्त अनुदान की आयोग की अनुशंसा को भी सरकार ने स्वीकार किया है.
वित्त आयोग ने पंचायतों और नगर- पालिकाओं के लिए अतिरिक्त 2.87 लाख करोड़ देने की सिफारिश भी की थी, जिसे मान लिया गया है. सरकार ने इस कदम को सहकारी संघवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के प्रमाण के रूप में पेश किया है. जानकारों के अनुसार, वित्त की उपलब्धता से राज्य सरकारें जन-कल्याण पर अधिक खर्च कर सकेंगी.
हर राज्य की अपनी योजनागत प्राथमिकताएं और आवश्यकताएं होती हैं, जिन्हें वे धन की कमी और केंद्र से सहयोग पर निर्भरता के कारण अक्सर पूरा नहीं कर पाती हैं. केंद्र सरकार के इस निर्णय से अब उन्हें अपनी विशिष्ट योजनाओं को कार्यान्वित करने में अधिक स्वायत्तता होगी. राज्यों की हिस्सेदारी में यह बढ़ोतरी प्रतिशत के लिहाज से स्वतंत्र भारत में हुई सबसे बड़ी वृद्धि है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार, इस वर्ष राज्यों को मिलनेवाले हिस्से में वास्तविक वृद्धि 45 फीसदी से अधिक होगी. हालांकि कुछ राज्यों ने उचित आधारों पर अधिक धन की मांग रखी है, पर सभी राज्य सरकारों ने वित्त आयोग की सिफारिशों के मानने के केंद्र सरकार के इस निर्णय का स्वागत किया है.
लेकिन यह चिंता भी जतायी जा रही है कि केंद्र द्वारा चलाये जा रहे सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए धन की कमी हो सकती है और उन योजनाओं पर इसका नकारात्मक असर पड़ सकता है. वित्त आयोग के प्रमुख सदस्य प्रोफेसर अभिजीत सेन ने इसी आधार पर रिपोर्ट में भिन्न राय रखी थी. केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने भी इस चिंता से सहमति जतायी है.
केंद्रीय योजनाओं को राज्यों को हस्तांतरण
केंद्रीय करों में राज्यों को अधिक हिस्सेदारी देने के वित्त आयोग की सिफारिशों को मानने के साथ ही केंद्र सरकार ने अपनी अनेक सामाजिक कल्याण योजनाओं की जिम्मेवारी भी राज्यों के सुपुर्द कर दी है.
केंद्रीय योजनाओं के संचालन के लिए राज्यों को पिछले वित्त वर्ष 2014-15 में 3.38 लाख करोड़ रुपये दिये गये थे, लेकिन चालू वित्त वर्ष में यह राशि घटाकर 2.04 लाख करोड़ कर दी गयी है. इसके साथ, योजनाओं पर आवंटन में भी कमी की गयी है.
स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसंदीदा कार्यक्रम स्वच्छ भारत अभियान का आवंटन 12,100 करोड़ से घटाकर वर्ष 2015-16 के लिए 6,236 करोड़ कर दिया गया है. बाल विकास योजना में 50 फीसदी से अधिक की कटौती करते हुए आवंटन 16,316 करोड़ से 8,000 करोड़ कर दिया गया है.
मिड-डे मील स्कीम के आवंटन को 11,770 करोड़ से 9,236 करोड़ कर दिया गया है. हालांकि, शहरी आवास योजना और उच्च शिक्षा में आवंटन में कुछ वृद्धि की गयी है, पर पिछड़ा क्षेत्र कोष, आदर्श विद्यालय और पर्यटन इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में 4,352 करोड़ की कमी की गयी है.
इन कटौतियों की भरपाई करने या अधिक खर्च करने का जिम्मा राज्यों पर डाल दिया गया है. सरकार का तर्क है कि राज्यों को अधिक आवंटन होने से अब उन्हें अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप विभिन्न योजनाओं में धन का योगदान करना होगा. वित्तीय प्रबंधन में इन बड़े निर्णयों पर पक्ष और विपक्ष के अपने-अपने तर्क हैं,परंतु यह उम्मीद है कि राज्य सरकारों की सक्रिय भागीदारी से कल्याणकारी योजनाओं का बेहतर कार्यान्वयन हो सकेगा.
आधार कार्ड के कई उपयोग
प्रधानमंत्री बनने से पूर्व आधार संख्या कार्यक्रम को लेकर अपनी आलोचनाओं को परे रखते हुए मोदी ने सत्ता संभालने के कुछ दिनों के भीतर ही इसे जारी रखने का संकेत दे दिया था.
पिछले साल सितंबर में उन्होंने आधार ऑथोरिटी को निर्देश दिया था कि जून, 2015 तक हर भारतीय को आधार संख्या उपलब्ध करा दिया जाये. आधार की उपयोगिता को बढ़ाते हुए जन धन योजना को पूरी तरह से आधार से जोड़ा गया है. इस योजना के तहत खाता खोलने के लिए सिर्फ आधार कार्ड की आवश्यकता होती है. अगर कोई व्यक्ति आधार के तहत पंजीकृत नहीं है, तो बैंक में ही उसका आधार पंजीकरण होगा और खाता खोला जायेगा.
आधार संख्या को ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, रसोई गैस पर मिलनेवाले अनुदान को ग्राहक के बैंक खाते में सीधे स्थानांतरण, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि विभिन्न कल्याण योजनाओं के साथ जोड़ा जा रहा है.
पूरे देश में कैदियों का पंजीकरण भी आधार के साथ किया जा रहा है तथा केंद्रीय कर्मचारियों की उपस्थिति के बायोमैट्रिक्स डाटा को भी आधार के साथ जोड़ा गया है. मोबाइल फोन के सिम कार्ड को भी आधार संख्या से जोड़ने का प्रस्ताव है. केंद्र सरकार के अलावा चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था ने भी मतदाताओं के पहचान-पत्र को आधार संख्या के साथ जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की है.
आधार से कल्याण कार्यक्रमों को जोड़ने की मोदी सरकार के निर्णयों से एक चिंता उभरी है कि कहीं यह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विपरीत तो नहीं है, जिसमें आधार को कल्याण योजनाओं या सरकारी दस्तावेजीकरण में अनिवार्य बनाने की मनाही की गयी है. सत्ता संभालने के शुरुआती दिनों में सरकार ने आधार परियोजना को कानूनी रूप देने का संकेत दिया था, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई पहल नहीं हुई है.
..लेकिन लोकपाल नियुक्ति में देरी
इस वर्ष एक जनवरी तक लोकपाल एवं लोकायुक्त कानून को लागू किया जाना था, लेकिन साढ़े चार महीने बीत जाने के बावजूद अभी तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकी है. सांसद इएम सुदर्शना नच्चिअप्पन के नेतृत्व में बनी एक संसदीय समिति ने पिछले महीने लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने पर मोदी सरकार की आलोचना की थी.
राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति में भी यही स्थिति है. भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के इरादे से इन संस्थाओं की संकल्पना की गयी है. केंद्र सरकार ने इस कानून में कुछ संशोधनों का प्रस्ताव किया है, जो उक्त संसदीय समिति के पास विचाराधीन है.

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