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तब कांके डैम में पूरा रातू रोड जमा होता था

अनु सिंह चौधरी पिछले तीन दशकों की छठ की स्मृतियों की बेसलाईन मेरे लिए बिहार नहीं, बल्कि झारखंड का शहर रांची है, जहां मैं पली-बढ़ी. नब्बे के दशक की बात है. रांची में अपनी छत पर हम खड़े होते तो सामने कांके डैम दिखता. दूर खेतों के पार, दो छोटी पहाड़ियों से लगकर खड़ा, शांत […]

अनु सिंह चौधरी
पिछले तीन दशकों की छठ की स्मृतियों की बेसलाईन मेरे लिए बिहार नहीं, बल्कि झारखंड का शहर रांची है, जहां मैं पली-बढ़ी. नब्बे के दशक की बात है. रांची में अपनी छत पर हम खड़े होते तो सामने कांके डैम दिखता. दूर खेतों के पार, दो छोटी पहाड़ियों से लगकर खड़ा, शांत और स्थिर. पानी के किनारे भी नजर आते, किनारों पर पसरे खेत भी. कहीं-कहीं खेतों के बीच से निकलती हुई पगडंडियां दूर घने मोहल्लों में जाकर गुम हो जाया करतीं. मैं अक्सर उन पगडंडियों-सा होने की ख्वाहिश करती- जिसका एक सिरा वीराना हो और दूसरा घनी बस्ती. मगर हमें डैम तक जाने की इजाजत न थी. अकेले तो क्या, दो-चार लोगों के साथ भी नहीं.
साल में बस दो दिन उधर जाने की आजादी थी. वे छठ के दिन थे. दोपहर होते-होते कांके डैम के चारों ओर पूरा रातू रोड जमा हो जाता. डैम के सभी किनारों पर खूब भीड़ दिखती थी. दोनों किनारों के बीच बहते पानी में डूबते हुए सूरज की नरमी घुलती रहती और पानी में खड़े छठव्रती उस नरमी में भरपूर आस्था के साथ डुबकियां लगाते. छठव्रतियों की नजर अस्ताचल की ओर रत्ती-रत्ती खिसकते सूरज पर होती तो बाकियों का ध्यान पटाखे चलाने, एक-दूसरे को छेड़ने और किनारों पर गप्पें हांकने में लगा रहता. घाट पर कई सालों तक बहुओं को आने की इजाजत न थी. उनका काम घर में व्रतियों के लिए अगले दिन का भोजन तैयार करना, ठेकुए ठोकना और तलना होता. बाद में ये परंपरा भी बदली और बहुओं को सोलह श्रृंगार से साथ घाट पर लाया जाने लगा, जैसे किसी नुमाईश के लिए निकाला जा रहा हो. छठ के हैंगओवर में कई दिनों तक घाट पर आयी बहुओं के रूप-रंग-गुण-अवगुण पर मोहल्ले की महिलाएं नुक्ताचीं के लिए भी बैठा करतीं. सूरज के डूबने से पहले कादो-मिट्टी के किनारे से होते हुए फिसलते-गिरते पानी में उतर जाने की होड़ लग जाया करती. तब संतुलन बनाये रखने के लिए किसी अनजान का हाथ थामना भी वर्जित न होता. पानी में अर्घ्य देने के लिए उतरी मां-चाचियों-काकियों-दादियों को छू लेने पर से छठी मैया का आशीर्वाद अपने लिए बुक हो जाया करता. उनके 36 घंटों के कठिन उपवास से हम इतने भी लाभान्वित हो जाएं, क्या कम था!
मगर वह दौर बीत गया है. घर-परिवार की कई औरतें अब अपनी गिरती उम्र और सेहत का वास्ता देकर छठ की परंपरा आगे ले जाने की सुपारी अगली पीढ़ियों को सौंप रही हैं. सुपारी देनेवाले कई हैं, लेनेवाले कम.
अपने गांवों को छोड़कर रांची जैसे शहर में आ बसनेवाली पीढ़ियां अब अपने बच्चों के महानगरों और विदेशों में बस जाने की तकलीफ झेल रही हैं. मकान जितनी तेजी से बने हैं रांची में, घर उतनी ही तेजी से टूटे हैं. छठ घाट की टूटी हुई सिमटती हुई टोलियां इस बात का सबूत है. अक्सर स्मृतियां ऐसे घने कोहरे-सी साथ चलती हैं कि आगे कुछ दिखता नहीं और वक्त के साथ कदमताल करते हुए छठ को लेकर नयी स्मृतियां बनाने की भी अब इच्छा भी नहीं होती. इस साल भी पढ़ लूंगी अखबार की वेबसाइट पर कि इस बार छठ पर कांके डैम की रौनक कैसी थी!
(कथाकार, पत्रकार और फिल्म मेकर अनु सिंह चौधरी सीवान की रहने वाली हैं. इनका बचपन रांची में गुजरा है. इनकी दो पुस्तकें नीला स्कार्फ और मम्मा की डायरी नई वाली हिंदी की चर्चित पुस्तकों में से एक है.)

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