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पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पर पढिए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय व अन्य शख्सियत का विशेष आलेख…

चंद्रशेखर यानी एक प्रखर वक्ता, लोकप्रिय राजनेता, विद्वान लेखक और बेबाक समीक्षक. देश के प्रधानमंत्री के रूप में आठ महीने से भी कम के कार्यकाल (10 नवंबर, 1990 से 20 जून, 1991) में ही उन्होंने नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता की ऐसी छाप छोड़ी, जिसे आज भी याद किया जाता है. समाजवादी संकल्पों के व्यापक आवरण […]

चंद्रशेखर यानी एक प्रखर वक्ता, लोकप्रिय राजनेता, विद्वान लेखक और बेबाक समीक्षक. देश के प्रधानमंत्री के रूप में आठ महीने से भी कम के कार्यकाल (10 नवंबर, 1990 से 20 जून, 1991) में ही उन्होंने नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता की ऐसी छाप छोड़ी, जिसे आज भी याद किया जाता है. समाजवादी संकल्पों के व्यापक आवरण में रहते हुए उन्होंने मतभेदों को कभी दलीय और विचारधारात्मक संकीर्णता में सीमित नहीं किया.
राष्ट्रीय मसलों और जनता के सवालों पर सरकारों का विरोध भी किया और आवश्यक सहयोग भी. उनके जन्म दिवस पर इस अनन्य राजनीतिक व्यक्तित्व की स्मृति में यह विशेष प्रस्तुति..
जनता पार्टी का अनुभव और चंद्रशेखर
राम बहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाने की घोषणा की उसी रात अर्थात् 25 जून को चंद्रशेखर जयप्रकाश नारायण से मिलने संसद भवन थाने गये. वे उनसे मिल कर जब निकल रहे थे, तो किसी पुलिस अधिकारी ने चंद्रशेखर को सूचना दी कि आपको भी गिरफ्तार किया जाता है.
चंद्रशेखर उनकी इजाजत से पुलिसकर्मियों के साथ अपने घर गये, जरूरी सामान लिया और जेल चले गये. अगर गौर करें तो चंद्रशेखर कांग्रेस के अकेले ऐसे नेता थे, जो कि आंदोलन के सर्मथन में नहीं, बल्कि जयप्रकाश नारायण के समर्थन में थे.
चंद्रशेखर की ऐसी दृढ धारणा थी कि जेपी और इंदिरा गांधी के बीच टकराव देश हित में नहीं है. हुआ भी वही, इंदिरा गांधी ने देश में आपपाकाल लगा दिया. आपातकाल लगाया जाना एक काला अध्याय था.
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने बहुत लोगों को खरीदने, लालच देने की कोशिश की- लेकिन इंदिरा गांधी की तरफ से चंद्रशेखर को किसी भी तरह के लालच या प्रलोभन देने की कोई कोशिश नहीं हुई.
आपातकाल के दौरान चुनाव की घोषणा हुई. चंद्रशेखर जनता पार्टी के बड़े नेताओं में से एक थे. दिल्ली के प्रगति मैदान में 1 मई, 1977 को जनता पार्टी का विधिवत गठन हुआ. इसकी अध्यक्षता मोरारजी देसाई ने की थी. इस सम्मेलन के बाद रामलीला मैदान में एक सभा हुई. इस सभा में एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत को मानते हुए मोरारजी देसाई ने घोषणा किया कि चंद्रशेखर जनता पार्टी के अध्यक्ष होंगे. इस तरह चंद्रशेखर जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष बने. 23 मार्च, 1977 को आपातकाल हटा. इसके कई कारण थे. इस दौरान जितने भी बड़े नेता थे वे मोरारजी देसाई की सरकार में मंत्री बनना चाहते थे.
24 मार्च, 1977 को केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी. 22 से 24 मार्च के बीच जनता पार्टी के तमाम नेता मंत्री बनने की कोशिश करते दिखे. चंद्रशेखर को भी मंत्री बनने का प्रस्ताव था, लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया. उस समय जयप्रकाश नारायण जसलोक अस्पताल में भर्ती थे. उन्होंने चंद्रशेखर को संदेश दिया कि यदि मोरारजी देसाई आपको मंत्री बनाते हैं, तो आपको मंत्रिमंडल में शामिल होना चाहिए. उन्होंने जेपी की सलाह को ठुकराते हुए कहा कि मोरारजी देसाई ने मंत्री बनने का प्रस्ताव किया है, लेकिन मैं मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होऊंगा. उन्होंने कहा कि इसका कारण वे मिलने के बाद बतायेंगे.
चंद्रशेखर ने प्रस्ताव इसलिए ठुकराया, क्योंकि मोरारजी देसाई से उनका मतभेद था, और वे ऐसा मानते थे कि और उनका मानना सही भी है कि कैबिनेट प्रणाली में प्रधानमंत्री से मतभेद रह कर मंत्रिमंडल में शामिल होना उचित नहीं है. यह कैबिनेट प्रणाली के विरुद्ध है. उन्होंने यह बात जेपी को भी बतायी थी और मोरारजी देसाई को भी.
पार्टी अध्यक्ष के रूप में चंद्रशेखर ने जनता पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. वे खींचतान के बावजूद पार्टी में समरसता और समन्वय बनाने की दिशा में काम करते रहे. पार्टी अध्यक्ष के रूप में जब उन्हें महामंत्री बनाने का अवसर मिला, तो कई लोगों ने सलाह दी कि नानाजी देशमुख से सतर्क रहिए. इसके बाद वे महासचिवों को जांचने परखने में लग गए. कुछ माह बाद उन्होने पाया कि नानाजी देशमुख ही उनके सबसे भरोसेमंद है.
चंद्रशेखर की राजनीति की यह विशेषता थी कि पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच मतभेद होते हुए भी वे राजनीतिक शिष्टाचार का पूरी तरह से निर्वहन करते थे. जनता पार्टी मात्र 29 माह चलकर विघटित हो गयी. इसके विघटन के विषय में लोगों की अलग—अलग राय है.
कुछ लोगों को कहना था कि चंद्रशेखर भी इस विघटन में एक पक्ष बन गये थे लेकिन मैं इस विचार से सहमत नहीं. वे दूरदृष्टि वाले नेता थे, उनको बखूबी समझ हो गयी थी कि पार्टी को झगड़े से निकालना आसान नहीं. कुछ लोग मानते हैं कि वे अच्छे संघटक साबित नहीं हुए. जनता पार्टी का गठन आपातकाल से लड़ने और लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने के लिए हुआ था. इस दल का निर्माण एक आंदोलन का परिणाम थी. जब आपातकाल खत्म हुआ तो जनता पार्टी आंदोलन से राजनीतिक दल बनने की प्रक्रिया में टूट गयी. चंद्रशेखर ने इसे विपदा और हताशा की स्थिति न मानते हुए, स्वाभाविक परिणति माना.
1979 में जनता पार्टी टूटी और इसके 10 साल बाद 11 अक्तूूबर, 1988 को जनता दल बना. 1979 से 1988 तक वे जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे. इसी दौरान उन्होंने भारत यात्रा की. भारत यात्रा के दौरान देश में जो उत्साह पैदा हुआ था, उसे अगर अभियान के रूप में बदला जा सकता, तो भारतीय राजनीति को व्यापक बदलाव की दिशा में ले जाया जा सकता था.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
चंद्रशेखर के सहयोगी एवं सजपा अध्यक्ष
कमल मोरारका
आज देश में पक्ष-विपक्ष की परिपाटी है. एक खेमा पक्ष में तो दूसरा विपक्ष में होता है, जबकि चंद्रशेखर जी हमेशा बीच का रास्ता अपनाते थे.. वे कहते थे कि जो अल्पसंख्यक हैं उनकी भाषा सख्त हो सकती है, लेकिन उनकी भावना नहीं, क्योंकि यदि उन्हें अपने देश में रह कर किसी तरह की परेशानी उठानी पड़ रही है, तो नि:संदेह उनकी भाषा सख्त होगी ही.
चंद्रशेखर समता मूलक समाज में विश्वास करते थे. उनके विचार, उनकी सोच और दृष्टि में एक समृद्ध भारत की तसवीर रही है. उनकी संवेदना हमेशा आम-आदमी के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी. उन्होंने कभी भी तात्कालिक लाभ के लिए ऐसा कोई भी काम नहीं किया, जिससे समाज या देश का नुकसान हो. वे कहा करते थे कि यदि भारत को समृद्ध और खुशहाल बनाना है, तो उसके लिए दूरदृष्टि रखनी होगी, सभी को मिल कर काम करना होगा. सभी को यह अहसास करना होगा कि यह भारत यहां रहनेवाले सभी लोगों का है. किसी एक का या किसी खास का नहीं है. तात्कालिक लाभ के लिए वह कभी कोई बयान भी नहीं देते थे.
आज चंद्रशेखर जी होते तो देश में जो तमाम तरह की समस्याएं है, उसे सुलझाने में काफी मदद मिलती. वह अलग-अलग प्रदेशों की अलग-अलग समस्याओं से परिचित थे. चाहे वह कश्मीर का मुद्दा रहा हो, पंजाब या फिर पूर्वोतर भारत का. वे समस्याओं का स्थायी हल निकालने में विश्वास रखते थे. चंद्रशेखर संवेदनशील थे, भावनात्मक थे, लेकिन सख्त भी उतने ही थे. गलत कामों को वह हरगिज बर्दास्त नहीं करते थे.
आज देश में कई तरह की समस्याएं है.सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच एक दूसरे से संवाद तक नहीं हो पा रहा है. सरकार अपनी मर्जी से काम कर रही है. विपक्ष की भूमिका को नकारा जा रहा है. जबकि चंद्रशेखर जी हमेशा स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष को भी उतना ही महत्व देते थे. वे पूरी तरह निरपेक्ष थे.
चाहे वह सत्ता में रहे हों या विपक्ष में, जो सही और सच था वही बोलते थे. चाहे इसके लिए उन्हें किसी तरह का जोखिम ही क्यों नहीं उठाना पड़े. सच बोलने में उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया. यही कारण रहा कि विपक्ष भी उनका उतना ही सम्मान करता था.
आज देश में पक्ष-विपक्ष की परिपाटी है.
एक खेमा पक्ष में तो दूसरा खेमा विपक्ष में होता है. जबकि चंद्रशेखर जी हमेशा बीच का रास्ता अपनाते थे. वह गांधी की तरह रास्ता चुनते थे. यही कारण रहा कि बाबरी मसजिद जैसे विवादित मुद्दे को भी उन्होंने लगभग सुलझा लिया था.
वे कहते थे कि जो अल्पसंख्यक हैं उनकी भाषा सख्त हो सकती है, लेकिन उनकी भावना नहीं, क्योंकि यदि उन्हें अपने देश में रह कर किसी तरह की परेशानी उठानी पड़ रही है, तो नि:संदेह उनकी भाषा सख्त होगी ही. यही कारण था कि जब भी उनसे मिलने अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी या समाज के निचले पायदान पर खड़े समूह आते थे, तो वे हमेशा उनकी भावना का ख्याल रखते थे.
पड़ोसियों से अच्छे संबंध के वे बड़े हिमायती रहे. वे सभी देशों से अच्छे संबंध बनाने के पक्षधर रहे हैं, बनिस्पत किसी एक देश के. चंद्रशेखर जी जानते थे कि किसी एक देश से एकतरफा अच्छा संबंध दूसरे देशों के संबंध पर असर डाल सकता है. पाकिस्तान ने भी अमेरिका से बेहतर संबंध बना कर देख लिया कि उसका दुष्परिणाम क्या निकला है.
वे हमेशा गांधीयन मेथड से समस्या को सुलझाने में विश्वास रखते थे. चंद्रशेखर जी के विचार आज भी प्रासंगिक है. आज समाज और देश में जो समस्याएं है, उसका हल सभी को मिल कर ही करना होगा. चंद्रशेखर जी के विचारों को अपना कर भारत तरक्की कर सकता है, आगे बढ़ सकता है. एक-दूसरे के दिलों की दूरी को कम कर सकता है. जरूरत इस बात की है कि हम उनके बताये रास्ते पर चलें.
(अंजनी कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
आज जरूरत झगड़े की नहीं है, आपसी सद्भाव की है. एक आदमी भी यदि मरता है तो वह हिंदुस्तान का कोई बेटा या बेटी मरती है. मैं चाहूंगा, आज सांप्रदायिकता के सवाल पर, जात-बिरादरी के सवाल पर, गरीबी के सवाल पर हमको एकमत होकर एक ऐसी राह ढूंढनी चाहिए, जिससे दुखी दिलों पर मरहम लगा सकें, एक नयी ताकत पैदा कर सकें और नया देश बना सकें..
जीवन-यात्रा
1927 : 17 अप्रैल को बलिया जिले (यूपी) के इब्राहिम पट्टी गांव में जन्म.
1951 : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में परास्नातक. बलिया में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के जिला सचिव पद पर निर्वाचित.
1962 : उत्तर प्रदेश से प्रसोपा से राज्यसभा के लिए निर्वाचित.
1964 : प्रसोपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए.
1967 : कांग्रेस के महासचिव बने.
1969 : ‘यंग इंडिया’ नामक साप्ताहिक पत्रिका की शुरुआत.
1975 : आपातकाल में गिरफ्तार, पत्रिका पर तालाबंदी.
1977 : नवगठित जनता पार्टी में शामिल हुए और इसके अध्यक्ष बने.
1983 : छह जनवरी से 25 जून तक 4,260 किलोमीटर की पद यात्रा की.
1990 : विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के गिरने और जनता दल में फूट के बाद कांग्रेस के समर्थन से भारत के प्रधानमंत्री बने.
1991 : पांच मार्च को चंद्रशेखर सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया. अगले दिन पद से इस्तीफा. कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में 20 जून तक कार्यरत.
2007 : आठ जुलाई को 80 वर्ष की आयु में कैंसर की बीमारी से निधन.
संसदीय मर्यादा
समस्याएं जटिल होती जाएं, लोगों के अंदर निरुत्साह की भावना आये तो स्थिति विस्फोटक हो जाती है. लोगों के मन की आकांक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, उसके कारण उनमें निराशा की भावना पैदा होती है. ऐसी स्थिति में अगर संसदीय संस्थाएं भी अपनी मर्यादा को छोड़ कर लोगों का यह विश्वास भी न रख पायें कि उनके द्वारा उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति हो रही है तो ऐसे ही समय में अराजकतावादी शक्तियों को बल मिलता है. समाज में जो एक श्रृंखला है, जो जोड़े हुए है सबको, उसके टूट जाने का बड़ा भारी भय पैदा हो जाता है.
आर्थिक उदारीकरण
देश की मुख्य धारा राजनीति में सक्रिय कुछ राजनीतिक पार्टियां भी भूमंडलीकरण-उदारीकरण का विरोध करती हैं. यहां तक कि उसकी शुरुआत करनेवाली कांग्रेस भी अब ऊहापोह की स्थिति में नजर आती है. हालांकि इन पार्टियों का विरोध ज्यादातर जबानी जमा खर्च तक ही सीमित है.
धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता का सवाल शाश्वत सवाल है. धर्म के नाम पर आदमी आदमी का खून न बहाये, धर्म के नाम पर अल्पसंख्यकों के मन में दहशत न पैदा की जाये. अगर दहशत पैदा की जायेगी तो हम उसके खिलाफ संघर्ष करेंगे, हम उसके खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे.. मेरा दृष्टिकोण इस मामले में बहुत ही स्पष्ट है.
धर्म के नाम पर एक-दूसरे की हत्या नहीं होनी चाहिए. यह धर्म के खिलाफ है. चाहे इसलाम हो या हिंदू, चाहे ईसाई मत हो, किसी भी धर्म में इसे उचित नहीं ठहराया गया है.
(चंद्रशेखर के विचार/‘रहबरी के सवाल’ से साभार)
ग्रामीण भारत के विकास के पैरोकार
ओपी श्रीवास्तव
पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश सरकार
आज लोगों के भावना की समझ नेताओं में नहीं है. चंद्रशेखर ने देश की नब्ज टटोलने के लिए भारत भ्रमण किया और प्रचार व शोहरत से दूर किसान और मजदूरों की समस्या पर अग्रणी भूमिका निभाते रहे.
समाजवादी विचारधारा में अटूट विश्वास रखनेवाले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में महत्ता काफी बढ़ गयी है. छात्र राजनीति से राजनीति की शुरुआत करनेवाले चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बनने के बाद भी सिद्धांतों की राजनीति से नहीं भटके. सोशलिस्ट पार्टी में बिखराव और फिर कांग्रेस में जाने का मकसद पद हासिल करना नहीं था.
कांग्रेस में रहते हुए भी उन्होंने हमेशा सिद्धांतों की लड़ाई लड़ी. इस कारण उनका इंदिरा गांधी से विवाद हुआ, लेकिन वे नहीं झुके. इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाये गये आपातकाल का उन्होंने जम कर विरोध किया और इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा. अगर वे चाहते तो कांग्रेस में रहते कोई पद हासिल कर सकते थे, लेकिन उनके लिए पद से अधिक सिद्धांत महत्वपूर्ण थे. इंदिरा गांधी की नीतियों के विरोध के अगुआ बने.
सादगी पसंद जीवन जीने में यकीन रखनेवाले चंद्रशेखर अपने बेबाक बोल के लिए जाने जाते थे. आर्थिक मुद्दों से लेकर विदेश नीति के मसले पर उनकी राय काफी महत्वपूर्ण होती थी. लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करनेवाले चंद्रश्ेखर संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती के पक्षधर थे. वर्ष 1991 में जब मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार की नीतियों को लागू करने का फैसला किया, तो उन्होंने भविष्य में इससे होनेवाले नुकसान के बारे में चेताया था.
उनका मानना था कि कोई भी विदेशी कंपनी भारत में पैसा लगा कर देश के लोगों का कल्याण नहीं करेगी. इन कंपनियों का मकसद भारत से लाभ कमा कर अपना हित साधना होगा और इससे देश की गरीबी कम नहीं होगी. अगर आज इस बात पर गौर करें तो देश में आर्थिक असमानता पहले की तुलना में बढ़ी है. महंगाई बढ़ रही है और संपन्न लोगों के पास ही तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं. गांव, गरीब, आदिवासी, मजदूर की स्थिति पहले से खराब हुई है. आज देश में आंकड़ों में भले गरीबी घट गयी हो, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है.
देश की मौजूदा स्थिति क्या है? कश्मीर में अलगाववादी शक्तियां, तो देश में सांप्रदायिक शक्तियां मजबूत हो रही हैं. वे हमेशा से सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ रहे. उनका साफ मानना था कि सांप्रदायिक राजनीति देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक है और आनेवाले समय में इसके परिणाम भयंकर होंगे.
चंद्रशेखर के राष्ट्रवाद में देश में शांति और सौहार्द की बात होती थी. वे मानते थे कि ग्रामीण क्षेत्र को मजबूत बना कर ही रोजगार के अवसर पैदा किये जा सकते हैं, क्योंकि आज भी 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है. लेकिन आर्थिक विकास के नाम पर शहरों में बड़ी-बड़ी कंपनियां लगाने पर जोर दिया जा रहा है. देश में बेरोजगारों की तादाद बढ़ती जा रही है. चंद्रशेखर का स्पष्ट मानना था कि विदेशों में भीख का कटोरा लेकर घूमने से देश का विकास नहीं होगा. भारत अपनी जरूरतों और शर्तो के आधार पर भी आगे बढ़ सकता है.
देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से समस्या का समाधान नहीं होनेवाला है. भारत के लोगों में क्षमता है और वे अपने पैरों पर खड़ा होकर देश का भला कर सकते हैं. आर्थिक उदारीकरण के बाद भले ही विकास दर में बढ़ोत्तरी हुई हो, लेकिन व्यापार संतुलन गड़बड़ा गया है. अब देश की अर्थव्यवस्था की सेहत दूसरे देशों पर निर्भर हो गयी है. चंद्रेशखर चाहते थे कि आर्थिक तरक्की करने के लिए कृषि क्षेत्र को मजबूत किया जाना चाहिए.
आज सबसे खराब स्थिति कृषि क्षेत्र की है. किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. आज देश के लोगों के भावना की समझ नेताओं में नहीं है. चंद्रशेखर ने देश की नब्ज टटोलने के लिए भारत भ्रमण किया और प्रचार व शोहरत से दूर किसान और मजदूरों की समस्या पर हमेशा अग्रणी भूमिका निभाते रहे.
विचारधारा अलग होने के बावजूद वे दूसरे दलों के नेताओं से मिलने में परहेज नहीं करते थे. उनकी स्पष्ट राय थी कि राजनीति में विचारों की मतभिन्नता होती है और इसका व्यक्तिगत संबंधों पर असर नहीं पड़ना चाहिए. विरोधियों की हमेशा शब्दों की मर्यादा में ही आलोचना करते थे.
आज राजनीति में कड़वाहट और शब्दों की मर्यादा नहीं दिखती है. सत्ता के लिए कभी सिद्धांतों से समझौता न करने वाले चंद्रशेखर जैसे नेता आज भारतीय राजनीति में नहीं दिखते हैं. छात्र जीवन से लेकर प्रधानमंत्री तक का उनका सफर संघर्ष से भरा रहा.
उनका प्रधानमंत्रित्व काल काफी छोटा रहा, अगर वे लंबे समय तक इस पद पर रहते, देश को नयी दिशा की ओर ले जाने में सक्षम होते. प्रधानमंत्री रहते उन्होंने पड़ोसी देशों के साथ संबंध बेहतर बनाने का हरसंभव प्रयास किया. अपने सिद्धांत और विचारों के कारण वे भारतीय राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

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