दक्षा वैदकर
एक बार भगवान बुद्ध उपदेश दे रहे थे. उस सभा में सभी लोग गंभीरता से उनकी बातों को सुन रहे थे. उसी सभा में एक व्यक्ति ऐसा भी था, जो बार-बार ऊंघ रहा था. भगवान बुद्ध की नजर उस पर पड़ गयी. उन्होंने उसे टोका और कहा, वत्स सोते हो? उस व्यक्ति ने जवाब दिया, नहीं भगवन.
भगवान बुद्ध ने फिर से उपदेश देना शुरू कर दिया. वह व्यक्ति फिर वैसे ही ऊंघने लगा. दोबारा जब भगवान की नजर उस पर पड़ी तो उन्होंने फिर से टोका और पूछा, वक्त सोते हो? उस व्यक्ति ने फिर से वही जवाब दिया, नहीं भगवन. भगवान बुद्ध ने उपदेश देना शुरू कर दिया. इस बार जब फिर से वह व्यक्ति ऊंघने लगा, तो भगवान बुद्ध ने पूछा, वक्त जिंदा हो? उस व्यक्ति ने उसी तरह से जवाब दिया, नहीं भगवन.
यह सुन कर सभा में उपस्थित सभी लोग हंसने लगे. वह व्यक्ति सभी के बीच खुद को शर्मिदा महसूस करने लगा. इसका जिम्मेवार वह खुद था, क्योंकि वह लगातार झूठ बोल रहा था. हम भी जिंदगी में कई बार ऐसा ही करते हैं. हम यह जान रहे होते हैं कि हम कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो हमें उस समय नहीं करना चाहिए, फिर भी वह करते हैं और किसी के पूछने पर बिना सोचे-समङो तुरंत जवाब देते हैं कि नहीं हम ऐसा नहीं कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए बच्चे पढ़ने के साथ टीवी भी देख रहे हैं और मम्मी या पापा बीच में टोकते हैं कि पढ़ाई नहीं करके टीवी देख रहे हो, तो बच्चे जवाब देते हैं कि नहीं वे पढ़ाई ही कर रहे हैं. जबकि वे टीवी देख रहे हैं और मम्मी-पापा भी उन्हें ऐसा करते देख रहे हैं, फिर भी उनके सामने वे झूठ ही बोलते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि हम झूठ तो बोलते ही हैं, साथ ही सामने वाले को इतना मूर्ख समझते हैं कि झूठ बोल कर हम बच निकलेंगे. सामने वाला हमारी गलती को पकड़ नहीं पायेगा.
दोस्तों कई बार हमारे सामने ऐसी परिस्थिति हो जाती है कि किसी काम में हम रुचि नहीं ले पाते या किसी चीज पर ध्यान नहीं लगा पाते. वैसे में जबरदस्ती उस चीज में खुद के व्यस्त होने का नाटक करने से अच्छा है कि हम ईमानदारीपूर्वक उससे बाहर निकल जाएं और संबंधित लोगों से इसके लिए क्षमा मांग लें.
बात पते की..
कोई चीज तभी करें, जब उसके लिए आपका मन और आपका दिल स्वीकृति दे. किसी को खुश करने के लिए कुछ न करें.
जब आपको किसी ऐसी चीज के लिए टोका जा रहा है, जो आप कर रहे हैं, तो झूठ बोलने की बजाय उसे स्वीकार कीजिए. इससे अच्छी छवि बनेगी.