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Friday, March 29, 2024

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हमेशा नकारात्मक सोचना ठीक नहीं

एक हफ्ते पहले मैंने अपना तीन हजार रुपये का विंटर जैकेट लॉन्ड्री वाले को दिया. इस जैकेट की खासियत है, इसका बेल्ट, जो इसे यूनिक लुक देता है. लॉन्ड्री में देते वक्त दुकानवाले ने जैकेट को ठीक से देखा और रसीद में लिखा ‘जैकेट विद अ बेल्ट’. डिलीवरी के लिए उन्होंने 16 नवंबर की तारीख […]

एक हफ्ते पहले मैंने अपना तीन हजार रुपये का विंटर जैकेट लॉन्ड्री वाले को दिया. इस जैकेट की खासियत है, इसका बेल्ट, जो इसे यूनिक लुक देता है. लॉन्ड्री में देते वक्त दुकानवाले ने जैकेट को ठीक से देखा और रसीद में लिखा ‘जैकेट विद अ बेल्ट’. डिलीवरी के लिए उन्होंने 16 नवंबर की तारीख दी.

16 को बिजी होने की वजह से मैं दुकान जा नहीं पायी. 17 का दिन भी ऐसा ही जाने वाला था. इसी वजह से मैंने अपने एक दोस्त को जैकेट की रसीद लेकर दुकान भेज दिया. वह जैकेट का पैकेट उठा लाया. मैं निश्चिंत हो गयी कि मेरा जैकेट बिल्कुल नये जैसा हो कर आ गया होगा.

रात को घर जा कर जब उस पैकेट को खोला, तो देखा कि जैकेट में बेल्ट गायब है. रात के 12 बज रहे थे, इसलिए दुकान जाना मुमकिन नहीं था. मैंने सुबह जाना तय किया, लेकिन सुबह होने में काफी वक्त था. दिमाग में अजीब-अजीब ख्याल आ रहे थे. जैसे- अगर दुकानवाले ने कह दिया कि हमने बेल्ट दिया था, आप झूठा इल्जाम लगा रही हैं, तो क्या होगा? मैंने सोचा कि रसीद में जैकेट के साथ बेल्ट लिखा था, रसीद ले कर जाऊंगी. फिर याद आया कि रसीद भी दुकानवाला सामान की डिलीवरी के वक्त अपने पास रख लेता है.

अब मेरा तनाव और बढ़ गया. मैंने सोचा कि अब मैं पहले विनम्रता से बेल्ट के बारे में बात करूंगी. अगर उन्होंने थोड़ी भी आना-कानी की, तो फिर उनको बताऊंगी कि मैं पत्रकार हूं. अब मैं दुकान की लापरवाही पर खबर छापूंगी. तब शायद वह डर कर मुङो बेल्ट दे दें. लेकिन अगर बेल्ट उनसे भी खो गया होगा, तो क्या होगा. यानी मेरा जैकेट खराब. मैं उपभोक्ता फोरम में जाऊंगी, मुआवजा मांगूंगी. लेकिन तब तक तो ठंड निकल जायेगी.. उफ्फ. रातभर ये सब सोचते हुए मेरी नींद लग गयी. सुबह उठते ही मैं दुकान पहुंची. मैं अंदर घुसी ही थी कि दुकानदार बोला, ‘मैडम कल आपका दोस्त जैकेट ले गया. उसमें बेल्ट रखना मैं भूल गया. मैं आपको ही फोन लगा रहा था.’ मेरे चेहरे पर बड़ी-सी स्माइल आ गयी. मैंने बेल्ट लिया और सोचा, बेवजह अपनी रात खराब कर दी मैंने. मैं पॉजीटिव भी तो सोच सकती थी.

daksha.vaidkar@prabhatkhabar.in

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