एक दिन शरीर की इंद्रियों ने सोचा कि हम लोग मेहनत कर-करके मर जाते हैं और यह पेट हमारी कमाई मुफ्त में ही खा जाता है. अब से हम कमायेंगे, तो हम ही खायेंगे, नहीं तो काम करना बंद कर देंगे. इस सुझाव पर शरीर की सभी इंद्रियों ने हामी भर दी.
पेट को इस प्रस्ताव का पता चला, तो वह बोला- मैं तुम्हारी कमाई खुद नहीं रखता हूं. जो कुछ तुम लोग देती हो, उसे तुम्हारी शक्ति बढ़ाने के लिए वापस तुम्हारे ही पास भेज देता हूं. यकीन रखो, तुम्हारा परिश्रम तुम्हें ही वापस मिल जाता है. यह बात इंद्रियों की समझ में नहीं आयी. प्रस्ताव के अनुसार, सभी इंद्रियों ने काम करना बंद कर दिया.
पेट भूख से तड़पने लगा और दूसरे अंगों को भी ऊर्जा देने में असमर्थ हो गया. इससे सारे अंगों की शक्ति नष्ट होने लगी. तब मस्तिष्क ने इंद्रियों से कहा- मूर्खों, तुम्हारा परिश्रम कोई नहीं खा रहा. वह लौटकर तुम्हें ही वापस मिलता है. यह न सोचो कि दूसरों की सेवा से तुम्हारा नुकसान होता है, जो तुम दूसरों को देती हो, वह ब्याज समेत लौट कर आता है. इंद्रियों को सहयोग की वास्तविकता समझ में आ गयी थी.
इस कहानी को बताने का मकसद यह था कि यह बात ऑफिस में भी लागू होती है. कई बार हमें लगता है कि ऑफिस में केवल हम ही मन लगा कर काम कर रहे हैं. हम अकेले ही इस ऑफिस को चला रहे हैं. अगर हम चले जायें या काम करना बंद कर दें, तो ऑफिस बंद हो जायेगा. हमें लगता है कि सामनेवाला बैठे-बैठे हमारा क्रेडिट ले रहा है, लेकिन यह सिर्फ हमारा भ्रम होता है. दरअसल, कोई भी ऑफिस किसी एक व्यक्ति की वजह से नहीं चलता. सभी का थोड़ा-थोड़ा योगदान उसे चलाता है. यह अलग बात है कि हमें सामनेवाले का कार्य नजर नहीं आता.
यही बात घर पर भी लागू होती है. कई बार पति-पत्नी के बीच इसी बात को ेलेकर झगड़ा होता है. पतियों को लगता है कि पत्नियां केवल घर पर बैठे-बैठे टीवी देखती हैं. अगर वह कह दें कि उसने दिनभर घर की सफाई की, तो वे हर तरफ नजर दौड़ा कर कह देते हैं, ऐसी कौन-सी सफाई कर दी? थोड़ा-सा सामान इधर का उधर करने में वक्त ही कितना लगता है?
– बात पते की…
* कार्य की सफलता का श्रेय किसी को भी जाये, यह संभव सामूहिक पुरुषार्थ से ही होता है. किसी के कार्य को छोटा या कमतर न समझें.
* हमें केवल अपने कार्य नजर आते हैं. यदि हम दूसरों के कार्यों पर गौर करेंगे, तो पता चलेगा कि वह व्यक्ति शायद हमसे भी ज्यादा काम करता है.