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नीस, ब्रुसेल्स, पेरिस के बाद लंदन में आतंकी हमला आतंक का बढ़ता जोर

लंदन में संसद परिसर में हुए आतंकी हमले ने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खतरे को फिर से रेखांकित किया है, बल्कि उसके तौर-तरीकों में खतरनाक बदलाव को भी चिन्हित किया है. वर्ष 2005 के बाद ब्रिटेन की राजधानी में यह सबसे बड़ा हमला है. इस घटना ने सुरक्षा और चौकसी के उपायों को ठोस […]

लंदन में संसद परिसर में हुए आतंकी हमले ने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खतरे को फिर से रेखांकित किया है, बल्कि उसके तौर-तरीकों में खतरनाक बदलाव को भी चिन्हित किया है. वर्ष 2005 के बाद ब्रिटेन की राजधानी में यह सबसे बड़ा हमला है. इस घटना ने सुरक्षा और चौकसी के उपायों को ठोस बनाने की जरूरत की ओर ध्यान दिलाने के साथ आतंक, नस्लवाद, सांस्कृतिक बहुलता जैसे मुद्दों पर बहस को भी तेज किया है. लंदन हमले के हवाले से आतंकवाद और इसे रोकने की पहल पर विश्लेषण आज के इन दिनों में…

उन्माद नहीं है देशभक्ति

पेरिस, बर्लिन, ब्रुसेल्स, और अब लंदन के वेस्टमिंस्टर के आतंकी हमलों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इसके कुछ फलितार्थ जितने आतंकवाद की सरजमीं के हिस्से हैं, उतने ही खुद इन हमलों के भी. खबर फैलने के एक-दो घंटों के अंदर अतिदक्षिणपंथी या तो अपने स्मार्टफोन उठा कर अथवा निकटस्थ टीवी स्टूडियो तक भागकर वैसे ही संदेश देने लगते हैं, जो हत्यारों के उद्देश्य को ही पूरा करता है. हत्यारे, जो यह चाहते हैं कि उनके निशाने पर आये समुदायों में क्रोध और तनाव का ज्वार पैदा हो, और कयामत के आ पहुंचने के संदेश मुखर हों. और फिर क्या होता है? जिन लोगों ने हमें ब्रेक्जिट, ट्रंप तथा हजारों शब्दाडंबरपूर्ण रेडियो स्पॉट एवं खबरिया कॉलम दिये, वे बड़ी खुशी से उनकी इच्छापूर्ति करते हैं.

जैसे यह पहले से तय हो, बुधवार की रात वैकल्पिक अथवा अति अनुदार ब्रिटिश नेता नाइजल फराज ‘फॉक्स न्यूज’ पर प्रकट हुए और अपने मत पर उन्मादी बल देते हुए उन्होंने जो कुछ कहा, उसकी बानगी यों है: ‘इन राजनीतिज्ञों ने 15 वर्षों के अरसे में ही जो कुछ कर दिया, वह इस देश में हमारे जीवन पर अगले सौ साल तक असर डालता रहेगा. हमने इस देश में कुछ भयानक भूलें की हैं, जो वस्तुतः 1997 में टोनी ब्लेयर के निर्वाचन के साथ शुरू हुआ था. उन्होंने कहा कि वे एक बहुसांस्कृतिक ब्रिटेन का निर्माण करना चाहते हैं. उनकी सरकार ने तो यहां तक कहा कि उन्होंने ब्रिटेन लाये जानेवाले आप्रवासियों की तलाश में पूरे विश्व में खोजी दल भेजे. बहुसंस्कृतिवाद के साथ समस्या यह है कि यह हमें विभाजित समुदायों तक ले जाता है. यह बहुनस्लवाद से बिलकुल भिन्न है. मुझे यह कहते हुए खेद है कि अब हमारे यूरोपीय देशों के अंदर ही एक राष्ट्रद्रोही समुदाय भी निवास करता है.’

इसके बाद उस नेटवर्क पर चर्चित टीवी हस्ती तथा समाचार पत्र स्तंभकार केटी होपकिंस आयीं और उन्होंने इस स्वर को और पुष्ट किया: ‘ग्रेट ब्रिटेन अपने अतीत के किसी भी वक्त से आज अधिक विभाजित है. तथ्य तो यह है कि हम अल्पसंख्यकों की मलिन बस्तियों के राष्ट्र में तब्दील हो गये हैं और मैं समझती हूं कि उदारवादी यह सोचते हैं कि बहुसंस्कृतिवाद का अर्थ यह है कि हम सब साथ ही मरेंगे.’

इसके जल्दी ही बाद, यूकिप (यूके इंडिपेंडेंस पार्टी) के दानदाता आरोन बैंक्स ने ट्वीट करते हुए बताया कि ‘आम आप्रवासन की मेहरबानी से हमारे पाले आज एक भीषण इसलामी समस्या मौजूद है. यह आप्रवासियों का हमसे जुड़ाव सुनिश्चित किये बगैर आम आप्रवासन की त्रुटिपूर्ण नीति है, जिसने समुदायों को नष्ट कर डाला है. हमारे पास ऐसे समुदाय हैं, जो हमारे देश एवं जीवन प्रणाली से नफरत करते हैं.’

यह कितना अजीब है कि सियासत की यह उन्मादी और अतिरंजनायुक्त किस्म उस अंगरेजी अनुदारवाद के भ्रूण से पैदा हुई है जो, कमोबेश मार्गरेट थैचर की लफ्फाजी को छोड़ कर, एक अनिवार्यतः शांतचित्त एवं उद्वेगरहित पंथ की प्रकृति रखती आयी है और जिसने इस पर बल देने के काफी उपक्रम किये हैं कि जिस ब्रिटिश जिजीविषा को तोड़ने में हिटलर नाकाम रहा, उसे और कुछ भी नहीं तोड़ सकता. पर उसी अनुदारवाद की औरस संतान कुछ और ही हैं- ये भयभीत तथा क्रुद्ध लोग, जिनका प्रत्येक घंटा यह चेतावनी देते गुजरता है कि उदारवादियों की कृपा से जो शक्तियां बेलगाम छोड़ दी गयीं, उनकी तथा उनके मार्ग में अवरोध पैदा करने में बहुसंख्यक विफलता की वजह से आज सभ्यता का अंत निकट आ पहुंचा है.

हाल में, ट्रंप द्वारा सत्ता हासिल करने हेतु ऐसे ही उन्माद का इस्तेमाल किये जाने के नतीजतन, यही प्रवृत्ति ब्रिटिश सियासत के अतिदक्षिणपंथी तत्वों से आगे अब और अधिक फैल रही है. कुछ राजनीतिज्ञ तथा मीडिया के हिस्से ब्रेक्जिट तथा उसके नतीजों का महिमामंडन करते हुए जब यह धमकी देते हैं कि ब्रेक्जिट को नकारना दंगों के विस्फोट को आमंत्रण देना है, और यह कि कुछ उदारवादियों, अवैध आप्रवासियों तथा धोखेबाज सांसदों का गंठजोड़ हमें कयामत की ओर धकेल रहा है, तो भी वे यही काम करते हैं.

मैं ये बातें इसलिए रख रहा हूं कि मुझे भी अपने देश से उतना ही ज्यादा प्यार है, जितनी देशभक्ति का ढिंढोरा ये लोग पीटा करते हैं, पर शायद जिसे इसकी थोड़ी बेहतर समझ है कि ब्रिटेन वस्तुतः वह नहीं है, जो ये लोग इसे समझा करते हैं. उन्हें मेरी सलाह होगी कि वे एक मिनट के लिए चीखना बंद कर जॉर्ज ऑरवेल की ‘दि लायन ऐंड दि यूनिकॉर्न’ पढ़ डालें जो उस असंभावित भद्रता का एक अत्यंत सारगर्भित चित्र है, जो आज भी अधिकतर अधिकतर ब्रिटिश लोगों की विश्वदृष्टि की सबसे सटीक व्यंजना प्रस्तुत करता है. ऑरवेल लिखते हैं, ‘इंगलैंड में अहंकार का प्रदर्शन और झंडे लहराना, शासन करेगा ब्रिटेनिया जैसी बातें एक छोटे अल्पसंख्यक समूह द्वारा ही की जाती हैं. आम लोगों की देशभक्ति न तो मुखर है और न ही चेतन.’ यह बहुत सच है. हम इसमें यह भी जोड़ सकते हैं कि जब हमारे शहरों में बम फूटे, उस वक्त भी बहुत कम लोगों ने ही सामाजिक ध्वंस के निकट होने अथवा नस्लीय सियासत की बातें कीं.

ऑरवेल की उक्ति में मैं सिर्फ इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि हालांकि अंगरेजी समभाव तथा धीरता में एक विशिष्ट सांस्कृतिक अभिव्यक्ति न्यस्त है, पर संभवतः यह नफरत तथा कट्टरता के प्रति बुनियादी मानवीय अनास्था की ही एक किस्म और यह अंतर्निहित समझ है कि इंसानों की इस दुनिया को चाहे जो भी उपद्रव झकझोर दे, सुबह का सूरज फिर भी उगता ही है.

मेरी यह सुझाने की किंचित भी नीयत नहीं कि जो आतंकी घटना हुई, उसकी भयानकता शब्दों के परे नहीं थी अथवा यह कि इसलामी अतिवाद एक ऐसी बुराई नहीं, जिससे बार-बार मुकाबला किया जाना है. पर एक हत्यारे का कृत्य उन धार्मिक समुदायों के बारे में कुछ भी नहीं कहता, जिसके दसियों लाख सदस्य हैं, जिनमें से बहुत तो इतने पर्याप्त रूप से घुले-मिले हैं कि उन्होंने ब्रेक्जिट के पक्ष में मत दिये. ब्रिटेन किसी दैत्याकार सामाजिक ध्वंस से बाल भर दूर वस्तुतः नहीं है. मूर्खतापूर्ण बकवास तात्कालिक फायदे तो देते ही हैं, संगीन सियासत करना तो सदैव किसी और के ही मत्थे मढ़ा जाना चाहिए.

(द गार्डियन में प्रकाशित. साभार. अनुवाद: विजय नंदन)

जॉन हैरिस

वरिष्ठ पत्रकार, द गार्डियन

यूरोप के प्रमुख शहरों में हुए हालिया आतंकी हमले

22 मार्च, 2017- लंदन में वेस्टमिंस्टर ब्रिज के फुटपाथ पर चल रहे लोगों को एक कार ने कुचल दिया. इसके बाद हमलावर ने एक पुलिस अधिकारी को चाकू मार दिया. इस घटना में आतंकी समेत पांच लोगों की जान गयी और करीब ४० लोग घायल हुए.

फरवरी/मार्च, 2017- पेरिस में एक सैनिक की तत्परता से पेरिस ओर्ली एयरपोर्ट पर होनेवाला हमला तब टल गया जब एक व्यक्ति ने एयरपोर्ट पर गश्त कर रहे सैनिक की बंदूक को छीनने का प्रयास किया और सैनिकों ने उस व्यक्ति को मार गिराया. इसी वर्ष फरवरी के प्रारंभ में गश्त लगा रहे एक सैनिक ने मिस्र के एक हमलावर को तब मार गिराया जब वह चाकू निकाल रहा था.

दिसंबर, 2016- जर्मनी की राजधानी बर्लिन में इसलामिक स्टेट के समर्थकों ने भीड़ भरे क्रिसमस बाजार में ट्रक चला कर अनेक लोगों को कुचल दिया था. इस घटना में 12 लोगों की मृत्यु हो गयी थी. इसके कुछ दिनों बाद ही इस घटना को अंजाम देने के संदेह में मिलान के नजदीक एक 24 वर्षीय ट्यूनिशियाई व्यक्ति को पुलिस ने मार गिराया था.

जुलाई, 2016- फ्रांस के नाइस शहर में भीड़ भरे समुद्री किनारे पर एक हमलावर ने ट्रक से लोगों को कुचल दिया था, जिसमें 86 लोग मारे गये थे. इस हमले की जिम्मेदारी इसलामिक स्टेट ने ली थी.

मार्च, 2016- बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में इसलामिक हमलावरों द्वारा एयरपोर्ट और मेट्रो स्टेशन पर किये गये बम विस्फोट में 32 लोगों की मौत हो गयी थी.

जनवरी, 2016- तुर्की के शहर इस्तांबुल में हगिया सोफिया और ब्लू मसजिद के नजदीक पर्यटक समूह के बीच एक आत्मघाती हमालवर ने खुद को उड़ा लिया था. इस हमले में जर्मनी के 12 नागरिक मारे गये थे.

नवंबर, 2015- इसलामिक स्टेट के समर्थकों द्वारा पेरिस के स्टाडे डे फ्रांस फुटबॉल स्टेडियम, अनेक रेस्तरां और बाटाक्लैन थिएटर के संगीत समाराेह स्थल में एक के बाद एक हुए हमले में 130 लोग मारे गये थे और 100 से अधिक लोग घायल हुए थे.

फरवरी, 2015- डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन में एक 22 वर्षीय युवक ने एक कैफे में गोली दाग कर एक व्यक्ति की जान ले ली. इसके बाद उसने सिनेगॉग (यहूदियों के पूजा स्थल) की रखवाली कर रहे एक व्यक्ति की गोली मार कर हत्या कर दी. बाद में पुलिस ने उस हमलावर को मार गिराया था.

जनवरी, 2015- पेरिस में पत्रिका शार्ली एब्दो के कार्यालय और एक सुपरमार्केट में आतंकियों द्वारा किये गये हमले में 17 लोगों की जान चली गयी थी. बाद में इस हमले में शामिल दोनों आतंकियों को पुलिस ने मार गिराया था. आतंकी संगठन अल-कायदा ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी.

मई, 2014- ब्रूसेल्स में एक फ्रांसीसी इसलामी चरमपंथी ने यहूदियों के संग्रहालय में चार लोगों को गोलियों से भून दिया था. बाद में इस हमलावर को पुलिस ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था. हमलावर खुद को जेहादी कहता था और वह सीरिया युद्ध में भी शामिल रह चुका था.

जुलाई, 2005- लंदन में चार ब्रिटिश मुसलमानों ने लंदन के अंडरग्राउंड रेलवे और बस में आत्मघाती बम विस्फोट कर 56 लोगों की जान ले ली थी. इस विस्फोट में 700 लोग घायल हो गये थे.

मार्च, 2004- स्पेन की राजधानी मैड्रिड तब दहल उठी थी जब यहां के एक यात्री ट्रेन में कई बम विस्फोट हुए थे. इस विस्फोट के कारण लगभग 191 लोगों की जान चली गयी थी और 1500 घायल हो गये थे.

लंदन में हाल में हुए आतंकी हमले

7 जुलाई, 2005 को सेंट्रल लंदन में एक के बाद एक हुए चार आत्मघाती हमलों में 52 लोग मारे गये थे और 700 से अधिक लोग घायल हुए थे. इनमें से तीन हमले अंडरग्राउंड ट्रेन में एल्डगेट व लीवरपूल स्ट्रीट स्टेशन, रसेल स्क्वेयर और किंग्स क्रॉस सेंट पैंक्रास स्टेशन और एडवेयर रोड व पैडिंग्टॉन स्टेशन के बीच हुए थे और एक हमला डबल डेकर बस में हुआ था. इस घटना को चार ब्रिटिश इसलामिक आत्मघाती हमलावरों ने अंजाम दिया था.

21 जुलाई, 2005 को एक बार फिर आत्मघाती हमलावरों ने 7 जुलाई की घटना को दुहराने की कोशिश की थी. इस बार हमलावरों ने तीन ट्यूब ट्रेन (शेफर्ड्स बुश, वारेन स्ट्रीट व ओवल स्टेशन) और शोरेडिच में एक बस में खुद को विस्फोट से उड़ाने की कोशिश की, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके और हादसा होने से बच गया. अंतत: सभी हमलावरों को पकड़ लिया गया. ये सभी हमलावर पूर्वी अफ्रीका मे जन्मे थे, जो 1990 में ब्रिटेन आये थे.

29 जून, 2007 को लंदन में दो कार बम बरामद किये गये.

22 मई, 2013 को दो चरमपंथियों एक ब्रिटिश सैनिक को चाकू से गोद कर मार डाला था. यह घटना दक्षिण पूर्व लंदन के वूलविच में रॉयल आर्टिलरी बैरक के नजदीक घटी थी.

5 दिसंबर, 2015 को सोमालिया में जन्मे मुहिद्दीन मिरे ने लेटोंस्टोन ट्यूब स्टेशन पर संगीतज्ञ लायले जिम्मेर्मान को चाकू मारकर घायल कर दिया और चार अन्य यात्रियों को धमकाया. बाद में पुलिस ने मिरे को गिरफ्तार कर लिया.

22 मार्च, 2017 को लंदन के वेस्टमिंस्टर ब्रिज पर एक हमलावर ने कार से लोगों काे कुचल दिया और पार्लियामेंट हाउस के सामने एक पुलिस अधिकारी की चाकू मार कर हत्या कर दी. इस घटना में हमलावर समेत पांच लोगों की मौत हो गयी और 40 घायल हो गये.

आतंकवाद के प्रति दोहरा मापदंड सबसे बड़ी अड़चन

दुनिया के ज्यादातर देशों में इस बात को लेकर सहमति है कि इसलामिक आतंकवाद बहुत बड़ी चुनौती और खतरा है. लेकिन, देशों के बीच आतंकवाद के खिलाफ जिस प्रतिबद्धता के साथ सहमति होनी चाहिए, वह नहीं दिखती. कई देशों ने आतंकवाद के प्रति दोहरे मापदंड अपना रखे हैं. यदि पाकिस्तान का ही उदाहरण लें, तो पाकिस्तान खुद के लिए और क्षेत्र के लिए इसलामिक स्टेट को खतरा मानता है, लेकिन इसी के तर्ज पर चलनेवाले अन्य गुटों जैसे तालिबान या लश्कर-ए-तैय्यबा आदि का वह समर्थन करता है. यही स्थिति मध्य-पूर्व देशों के मामले में दिखती है. ये देश इसलामिक स्टेट को खतरा मानते हैं और उसके खिलाफ कदम उठाने की बात करते हैं, लेकिन कतर और सऊदी अरब जैसे कई देश अलकायदा जैसी तंजीमों, जिससे इस गिरोह का जन्म हुआ, के साथ समर्थन में नजर आते हैं.

पश्चिमी देशों ने सीरिया और लीबिया आदि देशों में लोकतंत्र बहाल करने के उद्देश्य से जो अस्थिरता फैलायी और विषम हालात पैदा किये, उससे चरमपंथी गुटों को पैर जमाने का मौका मिल गया. उनके बारे में शक जाहिर होता है कि वे भी ऐसी तंजीमों का समर्थन कर रहे हैं, जिनके तार अलकायदा से जुड़े हैं या जिनका दुनिया को देखने का रवैया अलकायदा और दायेस आदि गुटों में काफी मिलता है. यही बात रूस, इराक और ईरान के बारे में कही जा सकती है. दोहरे मापदंड दुनिया को एक सहमति पर लाने में सबसे बड़ी अड़चन हैं. इसके लिए जरूरी है एक ऐसी नीति बने, जो कट्टरपंथ के हर स्वरूप के खिलाफ है और जिसके आधार पर सभी देश एकजुट हो सकें.

आतंकवाद से निपटने में देशों के बीच एक सोच की कमी स्पष्ट रूप से दिखती है. इसलामिक स्टेट द्वारा जो भी वारदातें की जा रही हैं, ऐसा अलकायदा और तालिबान जैसे गुट पहले कर चुके हैं. तालिबान से अलग हुए गुट पाकिस्तान और अफगानिस्तान में दायेस में शामिल हो गये. आतंकवाद से निपटने के लिए जरूरी है कि सभी इसलामिक और गैर इसलामिक देश एकजुट हों, लेकिन यह फिलहाल संभव होता नहीं दिख रहा है. दूसरी बात यह है कि यूरोपीय देश खतरे को भांपते हुए कुछ इसलामिक देशों के प्रति रवैया बदल रहे हैं और शिकंजा कस रहे हैं. संभव है कि कुछ देशों के बीच चरमपंथी गुटों को लेकर तालमेल बैठ रहा हो और यह उनकी सामरिक नीति का हिस्सा हो. पाकिस्तान ने तो आतंकवाद को अपनी स्टेट पॉलिसी ही बना लिया है. लेकिन, यह कहना है कि बहुत सारे इसलामिक देश मिल कर आतंकवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं, यह गलत है और उसका अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला है. इसलामिक देशों में ऐसे लोग होंगे, जिनका आपस में समन्वय हो सकता है और जो मिलकर आतंकवाद को समर्थन दे रहे होंगे.

लंदन हमले में शामिल आतंकी ने धर्म-परिवर्तन कर इसलाम को अपनाया था. हालांकि, एक रिसर्च रिपोर्ट से स्पष्ट है कि यूरोप में जो आतंकवादी पकड़े गये या जिनकी निशानदेही हुई या जो भी जिहादी चिन्हित किये गये, उनमें से केवल 12 फीसदी ही धर्म परिवर्तित कर इन गतिविधियों में शामिल हुए थे. ऐसे में यह मानना गलत है कि धर्म परिवर्तित कर आनेवाले मुसलिम कट्टरपंथ में शामिल होते हैं. गौर करनेवाली बात यूरोपीय देशों में धर्म-परिवर्तन कर इसलाम अपनानेवालों में ज्यादातर समाज से कटे या आर्थिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि के लोग होते हैं. आतंकवाद के मामलों में चिन्हित लोग अक्सर पहले से ही अपराधी प्रवृत्ति होते हैं. माना जाता है कि यूरोप के कई जेलों में कट्टरपंथ तेजी से बढ़ रहा है.

भारत में इसलामिक स्टेट के प्रति रुझान बढ़ा है. भारत में अलकायदा को समर्थन करनेवालों की संख्या बहुत कम थी, लेकिन दायेस के समर्थक अपेक्षाकृत अधिक हैं. इसके कई कारण है, पहला यह कि अलकायदा बहुत शांत तरीके से काम करता था, ऐसे में उसके साथ जुड़ पाना आसान नहीं था, लेकिन दायेस पब्लिसिटी कैंपेन के नये-नये हथकंडों से लोगों को जोड़ता है. अलकायदा दबे-छिपे परदे के पीछे काम करनेवाला संगठन था. भारत के अंदर ये कोई नया रूझान नहीं है. केरल, तमिलनाडु आदि प्रदेशों ऐसे मामले 1990 से ही आते रहे हैं. अल-उम्मा जैसी कुछ तंजीमों का रूख कुछ इसी प्रकार का था. हालांकि समस्या अभी उतनी गंभीर नहीं है, लेकिन चिंता का विषय जरूर है. हमारे देश में 18वीं सदी से ही कट्टरपंथ ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थी, उस समय भी उबाल आया था, लेकिन अंगरेजों ने अपने वर्चस्व के आगे उन्हें उभरने नहीं दिया. हालांकि, ये समस्याएं 1857 से पहले की थी. उस जमाने में भी वहाबी कट्टरपंथ के प्रति रुझान बढ़ा था. उस जमाने मानवाधिकार और राजनीतिक प्रभाव नहीं था, कानून तोड़ने पर यदि रियासत को खतरा महसूस होता था, तो बिना किसी लाग-लपेट के वे कार्रवाई कर देते थे, लेकिन वह अब आसान नहीं है. इसलामी समाज के अंदर ही काफी जद्दोजहद थी, बहुत सारे उलेमा लोग ऐसे लोगों के खिलाफ थे. हालांकि, अब राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर संजीदगी दिखायी जा रही है और उसकी निगरानी की जा रही है. बिना किसी शोर किये सामाजिक स्तर काम हो रहा है, लोगों में जागरूकता बढ़ रही है. लोगों की निशानदेही और काउंसेलिंग पर जोर दिया जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई राजनीतिक और सामरिक कारणों से ऐसी तंजीमों के साथ ढील बरती जाती है, ताकि उनको फायदा मिल जाये. उसको हम राज्यों में भी देख रहे हैं. बंगाल का ही उदाहरण लेते हैं. बांग्लादेश में यदि कट्टरपंथियों की धरपकड़ या कार्रवाई होती है, तो वे भाग कर पश्चिम बंगाल में घुस जाते हैं और उन्हें वहां संरक्षण मिलता है. सरकार कार्रवाई के लिए तैयार नहीं है.

सुशांत सरीन

रक्षा विशेषज्ञ

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