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Friday, March 29, 2024

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संकट में नेपाल

नेपाल में संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए चल रही दशकों पुरानी कोशिशों के बाद 20 सितंबर को पूर्ण संविधान को अंगीकार कर लिया गया. एक ओर यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपलब्धि है, वहीं इससे मधेस, थारू, मुसलिम और अन्य जनजातियों में भविष्य को लेकर नयी आशंकाएं भी पैदा हो गयी हैं. संविधान लागू होने […]

नेपाल में संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए चल रही दशकों पुरानी कोशिशों के बाद 20 सितंबर को पूर्ण संविधान को अंगीकार कर लिया गया. एक ओर यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपलब्धि है, वहीं इससे मधेस, थारू, मुसलिम और अन्य जनजातियों में भविष्य को लेकर नयी आशंकाएं भी पैदा हो गयी हैं. संविधान लागू होने के तुरंत बाद शुरू हुए आंदोलनों ने देश में राजनीतिक संकट की स्थिति पैदा कर दी है. संविधान की समर्थक पार्टियों का कहना है कि संविधान में देश के हर तबके और इलाके की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व है.
लेकिन, मधेस एवं अन्य अल्पसंख्यक समुदायों का आरोप है कि यह दस्तावेज उनके हितों की उपेक्षा करता है तथा बहुसंख्यक पहाड़ी नेपाली समुदाय के पक्ष में है. इस पूरे प्रकरण में भारत-नेपाल संबंधों पर भी असर पड़ा है. कूटनीतिक तनातनी के साथ आर्थिक स्तर पर भी अविश्वास का माहौल बन रहा है. इस संकट के परिणामों का इस क्षेत्र की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ने की संभावना है. नेपाल के मौजूदा राजनीतिक हालात पर एक नजर आज के समय में.
मुद्दा क्या है?
नेपाल में विगत 20 सितंबर को स्वीकृत संविधान पर किसी भी बड़ी मधेसी पार्टी ने हस्ताक्षर नहीं किया है. नये संविधान में 165 सदस्यीय संसद की व्यवस्था है. मधेसी समुदाय का आरोप है कि सीटों का बंटवारा भौगोलिक स्तर पर इस प्रकार किया गया है कि पहाड़ी इलाकों को 100 सीटें मिली हैं, जबकि जनसंख्या में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम है. देश की आधी आबादी तराई में बसती है, पर उस क्षेत्र में मात्र 65 सीटें ही दी गयी हैं.
तराई क्षेत्र में बसनेवाले थारु, राजबंशी और सतार समुदाय के लोगों की जमीनें 1970 से ही पहाड़ियों द्वारा लेने और उन पर बसने का सिलसिला जारी है. इन इलाकों में पहाड़ी नेपाली प्रभावशाली स्थिति में हैं. ऐसे में मधेसियों को लगता है कि नये संविधान से उनके हाशिये पर जाने की प्रक्रिया तेज हो सकती है. इस आशंका के पर्याप्त आधार हैं. मौजूदा संसद में कुल 601 सदस्य हैं. तराई में मधेसियों और थारू समुदाय की बहुलता के बावजूद उन्हें मात्र 10 फीसदी सीटें ही मिल सकी हैं.
ये समुदाय अभी इन मांगों पर आंदोलनरत हैं-
1. तराई में दो स्वायत्त क्षेत्रों की स्थापना.
2. संसद में तराई के लिए 83 सीटों की व्यवस्था.
3. प्रशासन के हर क्षेत्र में मधेसी और थारू समुदाय के लिए आरक्षण.
4. सुरक्षा बलों की ज्यादतियों की जांच के लिए स्वतंत्र आयोग का गठन.
हो क्या रहा है?
भारत-नेपाल सीमा पर और उससे लगे तराई इलाके में तनाव की स्थिति बरकरार है. हिंसा और मौतों के अलावा इस आंदोलन का यातायात और भारत से वस्तुओं की आपूर्ति पर गंभीर असर पड़ा है. नये संविधान से असंतुष्ट मधेसी पार्टियां नेपाल-भारत सीमा को अवरुद्ध कर बैठी हुई हैं. नेपाल की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि भारत ने दबाव डालने के इरादे से जरूरी चीजों की आपूर्ति रोक दी है, पर भारत ने इन आरोपों का खंडन किया है.
सीमा पर तैनात अधिकारियों के अनुसार, सरकार की ओर से वाहनों को नेपाल जाने से रोकने का कोई निर्देश नहीं दिया गया है. नेपाल में अस्थिरता और हिंसा के कारण वाहन सीमा पार करने से हिचक रहे हैं. भारतीय सीमा में कई किलोमीटर तक हजारों की संख्या में सामानों से लदे वाहन खड़े हैं. इस वजह से नेपाल में रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल आदि की किल्लत हो गयी है और भारी कीमत चुका कर लोग इन वस्तुओं की खरीद कर रहे हैं. भारतीय सीमा में खड़े ट्रकों के चालकों और कर्मचारियों के पास पैसे की कमी हो रही है तथा उन्हें खुले में रात-दिन रहना पड़ रहा है.
मधेसी आंदोलनकारियों ने भारत से निवेदन किया है कि उनसे निकटता का ध्यान रखते हुए भारत नेपाल में वस्तुओं की आपूर्ति रोक दे. उन्होंने यह भी कहा है कि वे अपने इलाके में भारतीय वाहनों पर हमला नहीं करना चाहते हैं. नेपाल से सटे बिहार में विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव को देखते हुए भारतीय अधिकारी यथास्थिति बनाये हुए हैं, पर वे चौकस भी हैं. मधेसों के बिहार और उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में रिश्तेदारियां हैं.
पेच कहां फंसा है?
– वर्ष 2007 और 2008 के लंबे मधेसी आंदोलन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला और मधेसी पार्टियों के बीच हुए दो अलग-अलग समझौते में संघीय ढांचे, आनुपातिक प्रतिनिधित्व और समावेशीकरण की अवधारणाएं अंतरिम संविधान में शामिल की गयी थीं. नये संविधान की व्यवस्थाओं ने मधेसी समुदाय की चिंताओं को बढ़ा दिया है.
– इसमें नागरिकता के अधिकार को व्यक्ति की राष्ट्रीयता से जोड़ दिया किया है. इस कारण सीमा-पार शादी करनेवाले मधेसी समुदाय के लोगों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. इस नियम से नेपाली महिलाएं भी असंतुष्ट हैं. पैतृक, प्राकृतिक और प्राप्य नागरिकताओं के श्रेणीकरण ने इन समूहों के विरोध को तेजी दी है़
– तराई-मधेस इलाके में एक या दो प्रांत बनाने का वादा पहले किया गया था, ताकि इन प्रांतों में बहुलता के कारण मधेसी और थारू समुदायों का सशक्तीकरण होगा, लेकिन अब मधेसों के बंटवारे से उन्हें पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों के संख्या-बल के तहत रहना पड़ सकता है. अगर शासक समुदाय के पूर्व अनुभव अच्छे होते, तो फिर चिंता की वजह नहीं थी, पर ऐतिहासिक रूप से तराई के लोगों को राष्ट्रीय विमर्श में ‘अन्य’ के रूप में देखा जाता रहा है, न कि मुख्यधारा के हिस्से के बतौर.
– संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व किसी भी लोकतांत्रिक संविधान की विशेषता होती है, पर नये संविधान में संसद के गठन का आधार भौगोलिक प्रतिनिधित्व कर दिया गया है. मधेसियों की नजर में यह नियम उनके वैधानिक अधिकारों को सीमित करने तथा बहुमत को थोपने के लिए बनाया गया है. इस व्यवस्था में मधेसी समुदाय का संसदीय प्रतिनिधित्व सीमित हो सकता है. नेपाल में लगभग 35 फीसदी आबादी मधेसों की है, पर वे मुख्यतः एक ही प्रांत में सीमित हैं.
– रोजगार में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की अंतरिम संविधान की व्यवस्था को नये संविधान में कायम तो रखा गया है, पर उसको बहुत हद तक प्रभावहीन बना दिया गया है. इस व्यवस्था के लाभार्थियों में सबसे अधिक प्रभावशाली समुदायों को भी शामिल कर लिया गया, जिसका नकारात्मक असर अल्पसंख्यकों और वंचितों के अवसरों पर पड़ेगा. इन व्यवस्थाओं को बाद में कानूनी प्रक्रिया से बदलना भी मुश्किल हो जायेगा.
– सेना में ‘बाहरी’ समुदायों से सामूहिक बहाली की प्रक्रिया को भी समाप्त कर दिया गया है. ऐसे में इस संविधान का मधेसी समुदाय द्वारा किया जा रहा विरोध तार्किक प्रतीत होता है.
– रिपोर्टों की मानें, तो संविधान पर हस्ताक्षर करनेवाले मधेसी प्रतिनिधियों ने भी निजी तौर पर अपना असंतोष जाहिर किया है और संविधान को स्वीकृत करने के अपने निर्णय का कारण पार्टी के व्हिप को बताया है.
रिश्ते बिगाड़ने की साजिश!
भूकंप के बाद दूसरी बड़ी त्रासदी से गुजर रहा है नेपाल
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
नेपाल में भूकंप के बाद यह राजनीतिक विफलता से जन्मी दूसरी त्रासदी है, जिसका सीधा असर नेपाल के अंतिम आदमी पर पड़ा है. चीनी राजदूत वू चुन्ताई ने कूटनीतिक गरिमा का ध्यान नहीं रखते हुए बयान दिया कि भारत ने नेपाल के विरुद्ध आर्थिक नाकेबंदी कर रखी है. चीनी राजदूत वू ने यह बयान नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण के बुधनगर स्थित कार्यालय में जाकर दिया है. मोहन वैद्य किरण, भारत के विरुद्ध आग उगलनेवाले नेपाली नेताओं में शुमार होते हैं…
पीएम इन वेटिंग केपी शर्मा ओली दो अक्तूबर को गांधीगीरी वाले मूड में दिखे. काठमांडो के एक समारोह में उन्होंने ऐलान किया कि जो ‘अघोषित अवरोध’ दिख रहा है, उसके बारे में भारत से बात करेंगे. नेकपा-एमाले के चेयरमैन ओली इस बात से निश्चिंत दिखे कि भारत-नेपाल के बीच संबंध सामान्य हो जायेंगे.
उन्होंने कहा, ‘बस एक बार शीर्ष स्तर पर बात होने दीजिए, सब ठीक हो जायेगा. नेपाल के नये संविधान में मधेसी समुदाय की हिस्सेदारी कम की गयी है, और उन्हें कोई अधिकार नहीं दिया गया है, इस बारे में अनावश्यक बातें की जा रही हैं. संविधान को बदनाम किया जा रहा है.’
अगर ओली को इतना भरोसा है कि सब कुछ ठीक हो जायेगा, तो भारत क्या कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि चेयरमैन ओली प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद अपने समकक्ष पीएम मोदी से बात करेंगे? तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून तक बयान दे चुके हैं कि तराई के नेताओं से बात कर इस संकट का समाधान निकाला जाये. काकड़भिटा, बीरगंज, सुनौली, जोगबनी, रूपैडीया, गद्दाचौकी महेंद्रनगर, भैरहवा, नेपालगंज जैसे 1,700 किलोमीटर भारत-नेपाल सीमा पर मीलों दूर खड़े पांच हजार से अधिक ट्रक, टैंकर दोनों तरफ की प्रशासनिक विफलता की कहानी भी कहते हैं.
आये दिन सीमा आर-पार के जिला प्रशासन के अधिकारी बैठकें करते हैं, लेकिन इतने बड़े संकट को सुलझाने के लिए क्या सचमुच भारत-नेपाल के स्थानीय अधिकारियों ने बैठक की है, या मूक दर्शक बने रहे?
यह ठीक है कि संविधान को लेकर तराई में तनाव है, लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं. लेकिन क्या यह संभव नहीं था कि भारत और नेपाल के अधिकारी, सशस्त्र सीमा बल के जवान और सेना की देख-रेख में सुदूर नेपाल तक सामानों की आवाजाही की जाती? प्रदर्शनकारी यदि प्रशासन पर भारी पड़ते हैं, तो इसे सरकार की विफलता नहीं, तो क्या कहें? नेपाल सीमा तक सामान पहुंचाना भारत की जिम्मेवारी बनती थी.
उससे आगे नेपाल के विभिन्न इलाकों तक प्रहरी और सेना की देख-रेख में पेट्रोलियम और आवश्यक वस्तुओं को क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता था? इस पर हो रही राजनीति में नेपाल का आम आदमी पिस रहा है. नेपाल में भूकंप के बाद यह राजनीतिक विफलता से जन्मी दूसरी त्रासदी है, जिसका सीधा असर नेपाल के अंतिम आदमी पर पड़ा है.
शनिवार को सरकारी स्वामित्व वाले नेपाल खाद्य संस्थान की ओर से बयान जारी हुआ है कि काठमांडो उपत्यका में 7,800 टन चावल, दाल और दूसरे अन्न स्टाॅक में हैं. देश के दूसरे भागों में 120 हजार टन चीनी, 113 हजार टन नमक के भंडार हैं, इसलिए फिलहाल चिंता की बात नहीं है.
लोग मितव्ययी बनें. यदि वास्तव में चिंता की बात नहीं है, तो खाना पकानेवाले एलपीजी गैस के लिए हाहाकार क्यों मची हुई है? क्यों पेट्रोल, डीजल की लंबी लाइनें लगी हैं? सरकार गैस के बदले वैकल्पिक ऊर्जा पर जोर दे रही है. कल तक नेपाल की जो जनता मोदी-मोदी के नारे लगाते नहीं थक रही थी, वह गुस्से से कपड़े फाड़ रही है. नेपाल के कुछ हिस्सों में प्रधानमंत्री मोदी के पुतले फूंके जा रहे हैं. क्या भारत के विरुद्ध एक बड़ी साजिश रची गयी है? या विदेश मंत्रालय में बैठे नेपाल मामलों के कूटनीतिकों को यह नहीं सूझ रहा है कि ऐसे समय में हम क्या करें?
चीनी सहायता का क्या हुआ?
पिछले एक हफ्ते से इस बात का गुब्बारा फुलाया गया कि चीन से नेपाल के लिए आवश्यक वस्तुएं आनी शुरू हो रही हैं. नेपाल को अब भारत पर आश्रित होने की जरूरत नहीं है. नेपाल के वाणिज्य सचिव नइंद्र उपाध्याय ने इसके लिए चीन से कूटनीतिक पहल भी की थी. तिब्बत का सिगात्से शहर काठमांडो से करीब 400 किलोमीटर दूर है, जहां पर पेट्रोलियम और अन्न का भंडार चीन ने बना रखा है.
यह इलाका भूकंप से तबाह हुआ था, जिसे ठीक तो कर लिया गया, मगर नेपाली सीमा से लगा खासा बाजार और मितेरी पुल तक की सड़कें अब भी चालू हालत में नहीं हैं. नेपाल के सिंधुपाल्चोक जिले के बाराबीसे से चीनी सीमा तातोपानी को जोड़नेवाली 26 किलोमीटर सड़क अब भी बड़े वाहनों के चलने लायक नहीं है.
चीनी अधिकारी ‘वार लेबल’ पर इस सड़क को दुरुस्त करने में लगे हैं, ताकि नेपाल आवश्यक वस्तुएं पहुंचा कर इसका क्रेडिट ले सकें. लिपिंग बाजार तक चट्टानें हटा कर सड़क को दुरुस्त कर दी गयी है. गुरुवार को सिंधुपाल्चोक में इस बारे में आधिकारिक बैठक हुई, उसमें काठमांडो स्थित चीनी राजदूत वू चुन्ताई भरोसा दे चुके हैं कि दशहरा तक सड़कें दुरुस्त हो जायेंगी.
चीनी राजदूत वू चुन्ताई ने कूटनीतिक गरिमा का ध्यान नहीं रखते हुए पिछले मंगलवार को बयान दिया कि भारत ने नेपाल के विरुद्ध आर्थिक नाकेबंदी कर रखी है. चीनी राजदूत वू ने यह बयान नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण के बुधनगर स्थित कार्यालय में जाकर दिया है. मोहन वैद्य किरण, भारत के विरुद्ध आग उगलनेवाले नेपाली नेताओं में शुमार होते हैं.
चेयरमैन किरण ने चीनी राजदूत वू से रसुआगढ़ी और तातोपानी कस्टम प्वाॅइंट को जल्द खोलने का आग्रह किया था. अफसोस कि इसमें देरी हो रही है. चीन की बेबसी और बेचैनी पर हमारे कूटनीतिकों को इतराने की जरूरत नहीं हैं. नेपाल में भारतीय वस्तुएं फौरन पहुंचे, इसके लिए दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार को त्वरित गति से आगे बढ़ने की आवश्यकता है. यदि हवाई मार्ग से नेपाल आवश्यक वस्तुएं, भेजने की जरूरत है, तो उसमें कोताही नहीं करनी चाहिए!
कूटनीतिक कड़वाहट
गुरुवार को दिल्ली के एक अंगरेजी दैनिक में नेपाली राजदूत दीप कुमार उपाध्याय का बयान छपा कि हमारे देश का संविधान दक्षिण एशिया का सबसे प्रगतिशील संविधान है. नेपाली राजदूत ने कहा कि यह खुला दस्तावेज है, और इसमें संशोधन हो सकता है. लेकिन नेपाली दूतावास में ‘डीसीएम’ (डेपुटी चीफ ऑफ मिशन) कृष्ण प्रसाद ढकाल की प्रतिक्रिया थी, ‘नेपाली संविधान, भारतीय संविधान से बेहतर है, क्योंकि इसमें अल्पसंख्यकों और महिलाओं का ध्यान रखा गया है.’ अब इस तरह की बातों से कूटनीतिक हलकों में कड़वाहट तो फैलती है. इसे कौन रोकेगा?
‘डीसीएम’ ढकाल को पता होना चाहिए कि भारतीय संविधान के प्रस्तावना में ही ‘सोशलिस्ट, सेक्युलर, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ की चर्चा कर सर्वधर्म समभाव को समाहित किया गया है. डीसीएम ढाकाल ऐसी टिप्पणी से पहले भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 पढ़ लेते, जिसमें महिलाओं को समान अधिकार दिये गये हैं. डीसीएम ढकाल को पता नहीं कितनी जानकारी है कि दुनिया का सबसे वृहद और विस्तृत भारतीय संविधान के निर्माण में दो साल 11 महीने, 18 दिन लगे थे, और उस पर करीब एक करोड़ रुपये का खर्च आया था.
मगर आठ हिस्सों, और 305 अनुच्छेदों वाले नेपाल के नये संविधान के निर्माण में आठ साल लग गये, और इस पर दो-चार करोड़ नहीं, डेढ़ अरब से अधिक रुपये खर्च हुए हैं. यह शायद, विश्व का सबसे महंगा संविधान साबित होगा. 67 वर्षों में नेपाल का यह सातवां संविधान है. यानी, हर दस साल पर एक संविधान! और इस संविधान के लागू होने से पहले हिंसा में 43 नागरिक मारे गये, इसका अफसोस हम सभी को है.
ठीक से देखा जाये, तो जबसे नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, काठमांडो से दर्जन भर वरिष्ठ नेता संविधान पर मशविरा लेने के बहाने दिल्ली दौरा कर चुके हैं. ऐसे नेता भी दिल्ली दरबार में हाजिरी देने आये, जो नेपाल को एक बार फिर से हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे. इनमें राप्रपा के अलावा नेपाली कांग्रेस, और मधेस के भी कुछ नेता थे. मतलब, आप सलाह लेने आइए, तो कोई बात नहीं, लेकिन हम सुझाव दें, तो सार्वभौमिकता में हस्तक्षेप का सवाल उठने लगता है. ऐसा क्यों है?
मधेस का सवाल और भारत
बचपन से हम सुनते आ रहे हैं, ‘नेपाल और भारत के बीच बेटी और रोटी का संबंध है.’ यह जुमला नहीं, जमीनी सच्चाई है. लेकिन भारत का जब-जब इस सच से सरोकार होता है, नेपाल के चंद नेताओं को लगता है कि भारत विस्तारवादी है, और उनकी संप्रभुता का हनन कर रहा है. एक सच यह भी है कि देशव्यापी विरोध के बीच नेपाल का संविधान जारी किया गया.
43 लोग थरूअट और तराई में मारे जा चुके थे. संविधान लागू होने के बाद भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर मोदी जी के विशेष दूत बन कर काठमांडो आये, और बयान दिया कि हम उम्मीद करते हैं कि नेपाल के नये संविधान से तराई में हिंसा और न भड़के. बस इतना कहना था कि बवाल मच गया, मानो इसी की प्रतीक्षा थी. एनेकपा (माओवादी) के चेयरमैन ‘प्रचंड’ ने कहा कि हम भारत का ‘यस मैन’ बनना नहीं चाहते. प्रचंड के राजनीतिक गुरु नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य ‘किरण’ ने इसे नेपाल के आंतरिक मामले, और उसकी सार्वभौमिकता में हस्तक्षेप बताया. ऐसी युगलबंदी से साफ झलकता है कि नेपाल के कुछ नेता भारत पर दबाव बनाये रखना चाहते हैं.
प्रश्न यह है कि क्या भारत सरकार का उनसे लेना-देना नहीं होना चाहिए, जिनसे बेटी-रोटी का संबंध है? ये वही माओवादी नेता हंै, जिनके लिए नेपाली संसद में ‘युद्ध से बुद्ध’ की राह पर जाने के लिए उनकी जमकर प्रशंसा की थी. प्रशंसा कीजिए तो ठीक, नसीहत दीजिए, तो सार्वभौमिकता का हनन होता है! 2008 में माओवादियों की वजह से नेपाल, विश्व का एक मात्र हिंदू राष्ट्र बना नहीं रह सका. मधेसी जनअधिकार फोरम मधेस के नेता प्रो भाग्य नाथ गुप्ता कहते हैं, ‘मेची से महाकाली तक मधेस क्यों धधक रहा है, इससे माओवादी मुंह मोड़ना चाहते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी को ध्यान देना होगा, और ‘युद्ध से बुद्ध की राह पर चलनेवालों मित्रों’ को समझाना होगा.’
तराई के नेता चाहते क्या हैं?
मुद्दा सिर्फ ‘एक मधेस, एक प्रदेश’ का नहीं है. थारू वनवासी अलग क्षेत्र चाहते हैं, यह भी एक सवाल है. प्रदेश सीमांकन, नागरिकता, देश के उच्च पदस्थ अधिकारियों की नियुक्ति, जनसंख्या के आधार पर संसद में सीट का निर्धारण, समानुपातिक समावेशी प्रतिनिधित्व, संसदीय निर्वाचन क्षेत्र का पुनरावलोकन 20 के बदले दस वर्षों में करने जैसी प्रमुख मांगंे हैं.
मधेस नेता दावा कर रहे हैं कि तराई की आबादी देश की कुल आबादी के पचास प्रतिशत से अधिक है, इसलिए संसद की सीट आबादी के अनुरूप आवंटित हो. नेपाली संविधान के अनुच्छेद 283 में व्यवस्था है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश, संसद के सभामुख, ऊपरी सदन के अध्यक्ष, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, विधानसभाओं के सभामुख, सुरक्षा अंगों के प्रमुख पदों पर उन लोगों को बिठाया जाये, जिनकी नागरिकता वंशज के आधार पर मिली हुई है. मधेसी नेता चाहते हैं, जो जन्मजात नागरिक हैं, या जिन्हें नागरिकता का अधिकार प्राप्त है, वैसे लोग भी इन सर्वोच्च पदों पर आसीन हों.
मधेसी कौन हैं?
जातीय आधार पर नेपाल की जनता को दो भागों में बांटा जा सकता है. पहला, आर्य, और दूसरा मंगोल. मंगोल मूल के लोगों की बसावट तिब्बत सीमा से लेकर नेपाल के हिमाली और पहाड़ी इलाकों में सघन रूप से है. दूसरी ओर आर्यों और द्रविड़ मूल के लोगों की बसावट मैदानी क्षेत्र से लेकर चूरे भांवर (पहाड़ और तराई के बीच का इलाका) में रहा है. लेकिन 1990 के बाद तराई की आबादी राजधानी काठमांडो में भी काफी घनी हो गयी. नेपाल के हिमालयी क्षेत्र में रहनेवाली जनजातियों में भोंटिया, शेर्पा, थकाली आदि हैं. इनके अलावा बाहुन, क्षेत्री, दमाई, कामी, गाइने, संन्यासी, सार्की, ठकुरी भी ऊपरी इलाकों में आबाद हैं.
पहाड़ी क्षेत्र में चेपांग, जीरेल, गुरूंग, लेप्चा, लिंबू, मगर, राई (इनमें ज्यादातर गोरखा सेना में भर्ती होते रहे हैं), सुनुवार, तमांग, नेवार, धामी आदि हैं. भीतरी मधेस में बोटे, दनुवार, दरई, कुम्हाल, माझी, राजी, राउटे हैं. मधेस के जातीय समूहों में बनियां, ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, चमार, धोबी, दुसाध, हलुआई, लोहार, कानू, कसाई, धानुक, राजवंशी, मारवाड़ी, मुसलिम, रौनियार, हजाम, सोनार, सिख, पंजाबी तक हैं, जिन्हें समग्र रूप से तराईवासी या मधेसी कहा जाता है. एक और मधेसी नेता उपेंद्र यादव ने अपनी पुस्तक, ‘नेपाली जनआंदोलन और मधेसी मुक्ति का सवाल’ में लिखते हैं कि शाहवंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह ने जब गोरखा राज्य का विस्तार किया, तो मधेस में छोटे-छोटे राज्य अस्तित्व में थे.
1991 में नेपाल सरकार ने मधेसियों की जनसंख्या 31.8 प्रतिशत दिखाया था. इसी से तत्कालीन नेपाल सरकार की नीयत का पता चलता था. लेकिन 2001 की जनगणना में इसे दुरुस्त किया गया, तो मधेसी 48.5 प्रतिशत दिखे. बहुभाषी देश नेपाल में सिर्फ भोंट-बर्मेली परिवार की भाषाओं की संख्या 58 से भी ज्यादा हैं. मेची से महाकाली तक हिंदी महत्वपूर्ण भाषा है.
लेकिन नेपाली, मैथिली, भोजपुरी, थारू, अवधी, ऊर्दू, राजवंशी, बंगाली, दनुवारी, बज्जिका, मारवाड़ी, मगही, दरई, माझी आदि प्रमुख भाषाएं और बोलियां हंै. नेपाल में इन भाषाओं के एफएम चैनल, सोशल मीडिया, फिल्में इस बात को साबित करती हैं कि राजनीति, संस्कृति की सीमाओं को नहीं बांध सकती!
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